पैदल...। ट्रकों में...। बसों में...। और जुगाड़ के वाहनों पर भी। वो चले जा रहे हैं। पैरों में छाले हैं। खाने के लाले हैं। दिल में दर्द है। आहें हैं तो कदम भी भारी हैं। फिर भी एक ही सपना है। एक ही मंजिल है। अपने घर पहुंच जाएं। क्यों? पूछने पर हर चेहरे से एक ही जवाब ...। एक ही शिकायत-जिन दरख्तों को अपने पसीने से सींचा। अपनी जान लगा दी। मुश्किल हालात में वे दरख्त बेगाने हो गए। ऐसी बेरुखी! टीस तो होगी ही। पर, रो भी नहीं सकते। कोई अपना दर्द समझने वाला भी तो हो। हम घर जा रहे हैं। क्योंकि वहां मां होगी। अपने होंगे। बस उन्हीं के कांधे पर सिर रखकर रो लेंगे। अपनी मिट्टी की खुशबू हर जख्म को भर देगी। इसलिए मुझे घर जाना है... चलते जाना है...