भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट से हुए खुलासे के बाद फिर से प्राधिकरण में तैनात रहे पूर्व अधिकारियों की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में आ गई है। औद्योगिक नगरी के रूप में विकसित किए जाने वाले नोएडा का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह शहर बिल्डर, अफसर और नेताओं के हाथ की कठपुतली बना हुआ था।
बिल्डरों ने फायदे के लिए नेताओं और अधिकारियों से साठगांठ करके शहर के विकास में पूरा हस्तक्षेप रखा। अधिकारी व नेता करोड़ों की कमाई में लगे रहे और बिल्डर मनमानी करते रहे। लाखों लोगों ने जिंदगी भर की कमाई आशियाने के लिए लगा दी, लेकिन 57 हजार से ज्यादा खरीदार आज भी अधूरे प्रोजेक्ट और रजिस्ट्री न होने के कारण चैन की नींद नहीं सो पा रहे हैं।
आलम यह है कि शहर के कई सेक्टरों के नक्शे से भी कई बार छेड़छाड़ की गई। बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए औद्योगिक सेक्टरों को आवासीय में परिवर्तित कर दिया गया, लेकिन बिल्डराें ने करोड़ों एडवांस लेने के बाद भी लोगों को घर उपलब्ध नहीं कराए।
पूरे सेक्टर ही कर दिए गए बिल्डरों को आवंटित
बिल्डरों को आवासीय योजना के लिए बडे़ भूखंड आवंटित किए जाते थे, लेकिन 2007 के दौरान प्रॉपर्टी के बूम का रंग बिल्डरों पर ऐसा पड़ा कि दिल्ली से सटे नोएडा पर उनकी नजर पड़ गई। इस औद्योगिक नगरी में जहां चंद ही आवासीय सोसाइटी बनाई जानी थीं, वहां बिल्डरों को पूरे के पूरे सेक्टर ही आवंटित कर दिए। गौड़ सिटी, वेव, जेपी, एसडीएस, आम्रपाली व सुपरटेक गोल्फ कंट्री जिले की ऐसी ही कुछ टाउनशिप हैं जिनमें से ज्यादातर के खरीदार आज भी आशियाने का इंतजार कर रहे हैं।
ताक पर रख दिए नियम-कायदे
बिल्डरों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरा खेल नोएडा की जमीन के लिए खेला गया। शासन के एक इशारे पर नोएडा के बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए सभी कायदे-कानूनों को ताक पर रख दिया गया। इससे बिल्डरों ने न केवल प्राधिकरण को हजारों करोड़ की चपत लगाई, बल्कि खरीदारों के भी करोड़ों रुपये लेकर चंपत हो गए। किसी व्यक्ति ने जीवन की पूरी कमाई ही यहां आशियाने की आस में लगा दी तो किसी ने कमाई के साथ-साथ बैंक से मोटा कर्ज भी ले लिया। आशियाना तो नहीं मिला अलबत्ता जीवन भर की कमाई गंवाने के साथ-साथ ऐसे लोग अब बैंक किश्त भी जमा करने को भी मजबूर हैं।
बकाया भुगतान के लिए एक की जगह दी गई दो साल की मोहलत
बकाया भुगतान पहले जहां बिल्डर को मात्र एक साल के अंदर करना होता था, उसी भुगतान के लिए लखनऊ से बिल्डर को दो साल की मोहलत दी गई। ऐसे में बिल्डर ने प्राधिकरण से ज्यादा से ज्यादा जगह खरीदी। अपने प्रोजेक्ट लांच किए और प्री बुकिंग के नाम पर ही घर खरीदारों से हजारों करोड़ बटोर लिए। बिल्डरों ने खरीदारों के पैसों को प्रोजेक्ट में न लगाकर अपने अन्य प्रोजेक्ट के लिए जमीन खरीदने में लगा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि बिल्डर न तो घर तैयार कर पाया और न ही प्राधिकरण का बकाया भुगतान कर पाया। खरीदारों के पैसे तो फंसे ही प्राधिकरण की जमीन के भी हजारों करोड़ इन बिल्डर्स पर फंस गए।
आवंटन के समय दी जाने वाली रकम काे कम करते ही खूब खरीदीं जमीनें
बिल्डर लॉबी की सहायता के लिए मुख्य रूप से दो नियम ऐसे थे, जिनके लागू होने के बाद बिल्डरों ने दोनों हाथों से प्राधिकरण को लूटने का काम किया। पहले प्राधिकरण किसी भी बिल्डर से आवंटन के दौरान ही जमीन की कुल कीमत का 30 फीसदी वसूल लेता था। इसके बाद उसे एक साल की मोहलत दी जाती थी। बिल्डर को जमीन पर प्रोजेक्ट लांच करने और बाकी कीमत चुकाने के लिए एक साल का समय दिया जाता था। बसपा सरकार में अचानक ही बिल्डरों के लिए 30 फीसदी की जगह 10 फीसदी जमा कराना तय हुआ। नियम बदले गए और बिल्डरों ने दोनों हाथों से प्राधिकरण की जमीन बटोरनी शुरू कर दी।
पहले जहां बिल्डर 10 हजार वर्ग मीटर जमीन खरीदता था, वहीं नए नियम के बाद बिल्डर 30 हजार वर्ग मीटर जमीन खरीदने लगा। उसे तीन गुना जमीन के लिए भी उतनी ही रकम प्राधिकरण को देनी होती थी, जितनी वह पहले मात्र 10 हजार वर्गमीटर जमीन के लिए भुगतान करता था।