जब देश आजाद हुआ था, लोग खुशी मना रहे थे, सभी अपने-अपने रंग में डूबे थे और आजादी का जश्न मना रहे थे, मगर अटल बिहारी वाजपेयी के मन में कहीं न कहीं आजादी अभी अधूरी लग रही थी। अटल जी ने यहां डीएवी कालेज के छात्रावास में रहते हुए प्रथम स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त 1947 को एक कविता लिखी थी।
‘पंद्रह अगस्त का दिन कहता - आजादी अभी अधूरी है,
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।
जिनका लाशों पर पग धरकर आजादी भारत में आई,
वे अब तक हैं खानाबदोश, गम की काली बदली छाई।
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी पानी सहते हैं,
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं।
हिंदू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती,
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती।
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है,
इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर मन में मुसकाता है।
भूखों को गोली, नंगो को हथियार पिंहाये जाते हैं,
सूखे कंठों से जेहादी नारे लगवाये जाते हैं।
लाहौर, कराँची, ढाका पर मातम की है काली छाया,
पख्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया।
बस इसलिए तो कहता हूँ आजादी अभी अधूरी है,
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं ? थोड़े दिन की मजबूरी है।