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UP By-Elections : अखिलेश से ज्यादा शिवपाल और आजम की साख दांव पर, दोनों के सामने पाने से ज्यादा खोने का संकट
अखिलेश वाजपेयी, लखनऊ
Published by: दुष्यंत शर्मा
Updated Sun, 04 Dec 2022 05:48 AM IST
सार
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UP : यहां चुनाव लड़ने वालों से ज्यादा शिवपाल सिंह यादव व आजम खां की साख दांव पर है, नतीजे उनकी हैसियत भी तय करेंगे। लगभग सवा साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भी इसके नतीजे अहम हैं।
आजम खान, अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव।
- फोटो : अमर उजाला
मैनपुरी लोकसभा सीट का उपचुनाव भविष्य के सियासी समीकरणों की आहट अपने अंदर समेटे हुए है। यहां चुनाव लड़ने वालों से ज्यादा शिवपाल सिंह यादव व आजम खां की साख दांव पर है, नतीजे उनकी हैसियत भी तय करेंगे। लगभग सवा साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भी इसके नतीजे अहम हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले समाजवादी कुनबे के भीतर जो वर्चस्व का संघर्ष शुरू हुआ था, उसने अखिलेश को पार्टी का नेतृत्व तो जरूर दे दिया, लेकिन समस्याएं भी कम नहीं दीं। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सपा सियासी तौर पर कमजोर हुई है। कन्नौज, बदायूं, फिरोजाबाद जैसे यादव परिवार के सियासी गढ़ में लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई। साथ ही इस वर्ष हुए लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ एवं रामपुर सीटों के सपा के हाथ से फिसलकर भाजपा के पास चले जाना इसी संघर्ष मुख्य वजह है।
मुलायम के बिना सपा पहली बार कोई चुनाव लड़ रही है। शिवपाल के पास ही मुलायम के कंधे से कंधा मिलाकर संगठन का काम करने तथा उनके सियासी दांव-पेंच को करीब से देखने-समझने का वर्तमान नेताओं में सबसे ज्यादा अनुभव है। अखिलेश के साथ जाने से शिवपाल को अपनी पार्टी (प्रसपा) के कुछ प्रमुख नेताओं की नाराजगी का सामना का भी करना पड़ा है।
जिन्होंने शिवपाल के साथ सपा छोड़ी थी, वे भी भविष्य को लेकर आशंकित हैं। इनका मानना है कि डिंपल चुनाव जीत जाती हैं तब तो उम्मीद की जा सकती है कि अखिलेश शायद चाचा शिवपाल की सपा में सम्मानजनक वापसी करा ले। पर, शिवपाल के लिए सपा के मुकाबले प्रसपा बनाने एवं उसे खड़ी करने में साथ देने वालों को भी अखिलेश से पूरा महत्व दिलाना काफी मुश्किल होगा।
वहीं परिणाम कुछ अलग आए तब तो शिवपाल के साथ उनके लिए भी अपना राजनीतिक वजूद बचाना मुश्किल हो जाएगा। शिवपाल के लिए भी प्रसपा को मजबूती देना तो दूर समर्थकों को एकजुट रखना काफी कठिन होगा। यह कहना भी मुश्किल है कि उस स्थिति में भी शिवपाल को सपा में पूरा महत्व मिलेगा।
पकड़ व पहुंच पर भी सवाल
मैनपुरी की हार से विरोधियों को यह कहने का तर्क भी मिल जाएगा कि शिवपाल की भी लोगों के बीच पकड़ व पहुंच अब पहले जैसी नहीं बची है। राजनीतिक विश्लेषक प्रो. एपी तिवारी कहते हैं कि यह स्थिति सपा से ज्यादा व्यक्तिगत रूप से शिवपाल सिंह के अस्तित्व के लिए संकट खड़ी करेगी। भाजपा की अगर जीत होती है तो न सिर्फ सपा परिवार के एक और प्रमुख गढ़ मैनपुरी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पार्टी को पहली जीत दिलाने का श्रेय मिलेगा।
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बल्कि इस तर्क को भी बल मिलेगा कि भाजपा अब हर सियासी समीकरण, शख्सियत और चुनौती से पार पाने की क्षमता रखती है। रामपुर सीट पर भाजपा अभी तक नहीं जीती है। इसी वर्ष लोकसभा उपचुनाव में रामपुर से भाजपा जीती जरूर थी, लेकिन तब भी उसे रामपुर विधानसभा क्षेत्र में सपा के मुकाबले कम वोट मिले थे।
अखिलेश देंगे चार परीक्षाएं
अखिलेश यादव की साख भी कुछ कम दांव पर नहीं लगी है क्योंकि पहली बार वह किसी उपचुनाव में वोट मांगने उतरे हैं। एक बड़ी वजह मैनपुरी का पिता मुलायम की विरासत से जुड़ा होना और इस सीट से उनकी पत्नी डिंपल यादव का उपचुनाव लड़ना भी माना जा रहा है। अखिलेश पिता की विरासत और पत्नी की सियासत बचाने तथा संगठन की ताकत एवं अपनी सियासी महारत बताने की चार परीक्षाएं एक साथ दे रहे हैं ।
आजम के लिए भी जीवन-मरण का सवाल
रामपुर की जीत व हार व्यक्तिगत रूप से आजम के अस्तित्व का सवाल बनी हुई है। कई वर्षों बाद रामपुर में आजम परिवार का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ रहा है। आजम कानूनी शिकंजे में फंसे हुए हैं। उनकी विधानसभा सदस्यता ही नहीं छिनी बल्कि मताधिकार का हक भी नहीं रहा है। ऐसे में सपा यदि यहां जीत हासिल कर लेती है तो न सिर्फ आजम को राजनीतिक ताकत मिलेगी बल्कि कानूनी लड़ाई के लिए भी मनोवैज्ञानिक शक्ति मिल जाएगी। लेकिन, सपा की पराजय उनकी ही नहीं, उनके परिवार की रामपुर में राजनीतिक पकड़ व पहुंच के लिए बड़ा सवाल बनकर भविष्य के लिए संकट खड़ी करेगी।
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