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मोहल्ला गाथा: 400 वर्ष पहले तुर्कों ने बसाया था तुर्कमानपुर मोहल्ला, जानिए इसका इतिहास
डॉ. दानपाल सिंह, गोरखपुर।
Published by: vivek shukla
Updated Fri, 17 Mar 2023 03:16 PM IST
सेना में जो तुर्क थे, उन्होंने बसने के लिए तुर्कमानपुर का हिस्सा चुना, जो उन दिनों जंगल हुआ करता था। जैसे-जैसे तुर्क बसते गए, इलाका भी समृद्ध होता गया और स्थायी रूप से मोहल्ले का रूप लेता गया।
गोरखपुर महानगर के सबसे पुराने मोहल्लों में तुर्कमानपुर का नाम अग्रिम श्रेणी में है। इस मोहल्ले की पहचान तुर्कों से है, जो यहां युद्ध के लिए करीब चार सौ वर्ष पहले आए और यहीं बस गए। मोहल्ले के नाम का आधार ही तुर्क हैं, ऐसे में साफ है कि मुहल्ले के नाम से तुर्कों का सीधा रिश्ता है। इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं।
तुर्कमानपुर मोहल्ला 17वीं शताब्दी के अंतिम चरण में अस्तित्व में आया, जब मुगलों की सेना ने गोरखपुर पर आक्रमण किया। जीत हासिल करने के बाद सेना के एक हिस्से ने गोरखपुर में स्थायी डेरा बना लिया। सेना में जो तुर्क थे, उन्होंने बसने के लिए तुर्कमानपुर का हिस्सा चुना, जो उन दिनों जंगल हुआ करता था। जैसे-जैसे तुर्क बसते गए, इलाका भी समृद्ध होता गया और स्थायी रूप से मोहल्ले का रूप लेता गया।
जब मोहल्ला स्थायी स्वरूप लेने लगा तो तुर्कों के अलावा और लोग भी यहां बसने लगे, लेकिन मोहल्ले में बसावट की शुरुआत तुर्कों ने की थी, इसलिए इसकी पहचान उनके नाम पर ही बनी। मोहल्ले में तुर्कों की पुरानी मजारें भी इस बात का प्रमाण हैं। बाद में मोहल्ले का नाम और कद तब और बढ़ गया जब मुंशी प्रेमचंद और फिराक गोरखपुरी का नाम इससे जुड़ गया।
प्रेमचंद के पिता मुंशी अजायब लाल ने इसी मोहल्ले में रहकर पोस्ट ऑफिस की नौकरी की, जिससे प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा इसी मोहल्ले में हुई। बाद में प्रेमचंद ने इसी मोहल्ले में रहकर शिक्षा विभाग की नौकरी की और ‘हामिद का चिमटा’ और ‘नमक का दारोगा’ जैसी मशहूर कहानियां लिखीं। इसी तरह फिराक गोरखपुरी के पिता और मशहूर शायर गोरख प्रसाद इबरत का आशियाना भी तुर्कमानपुर में ही था, इसलिए फिराक ने इस मोहल्ले में अपना काफी वक्त गुजारा।
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