हस्तिनापुर की रत्नगर्भा में उसके वैभवशाली युग के चिन्ह दबे हुए हैं। जितना जमीन के ऊपर है, उससे ज्यादा उसके नीचे है। पांडव या उल्टाखेड़ा टीला के नीचे अनेक कालखंड सोये हुए हैं। दशकों पहले जब अन्वेषण की कुदालियां चलीं तो इसमें से पुरा संपदा की खान निकली।
पांडव टीला अनदेखे हस्तिनापुर को दिखाता है। हस्तिनापुर की समृद्धि से लेकर उसके विध्वंस तक की कथा को यह अपने अंदर समाहित किए है। यह पुरातत्वविद् ही नहीं आमजन के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। यह पांडव टीला ही है जो हस्तिनापुर को जनश्रुतियों से निकालकर ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक बनाता है। संरक्षण की कमी ने इसे जंगलात बन जाने दिया। जहां उत्खनन हुआ, वहां झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। सरकारी उदासीनता ने हस्तिनापुर को उजाड़ बने रहने के लिए अभिशप्त किया है।
पांडव टीला को उल्टाखेड़ा भी कहा जाता है। माना जाता है कि कौरवों और पांडवों के महल यहीं थे। जब गंगा में प्रलय आई तो सब कुछ उलट-पुलट होकर मिट्टी में समा गया। पांडव टीला अपने अंदर सब कुछ समेटे एकल खड़ा है। ऊपर चढ़ते हैं तो जंगल पाते हैं। थोड़ी दूर चलकर अमृत कूप है। मान्यता है कि इसमें स्नान करने से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। कुछ लोग यहां स्नान करने आते हैं व पुराने कपड़े छोड़ जाते हैं। इससे आगे राघवराय का महल है। जो ब्रह्मलीन महंत डॉ. स्वामी आश्रम के नाम से जाना जाता है।
खुलती हैं हस्तिनापुर के समय चक्र की परतें
‘मयराष्ट्र मानस’ (संपादक कृष्ण चंद्र शर्मा) पुस्तक में लिखा है कि हस्तिनापुर का टीला बूढ़ी गंगा के किनारे स्थित है। पेशवा के चाचा राघीवा या राघवराय ने इस स्थान पर एक छोटे किले का निर्माण कराया था।
ऊबड़-खाबड़ रास्ते से आगे बढ़ते हैं। जहां बरसों पहले उत्खनन हुआ था। वहां झाड़-झक्कड़ उग आए हैं। उस स्थान पर एक शिलापट तक नहीं है। कहने को यह टीला पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। पर्यटकों को जोड़ने के लिए यहां एक म्यूजियम बनाया जा सकता था। टीले से निकली पुरा संपदा को लोगों के लिए दर्शनीय बनाया जा सकता था पर इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। उल्टाखेड़ा को आम टीले की तरह छोड़ दिया गया।