मराठी और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज कलाकार रमेश देव का राजस्थान के जोधपुर पैलेस से गहरा नाता रहा है। उनके परदादा और दादा दोनों इंजीनियर थे जिन्होंने जोधपुर पैलेस का निर्माण कराया। छत्रपति शाहू महाराज ने दोनों को कोल्हापुर शहर बनाने के लिए बुलाया और तभी से ये परिवार कोल्हापुर में बस गया। रमेश देव के पिता कोल्हापुर में जज बने और 30 जनवरी 1926 को उनके घर में रमेश का जन्म हुआ। उनके बेटे अजिंक्य के मुताबिक, रमेश देव का फिल्मों में आना भी किसी संयोग से कम नहीं रहा। वह गए थे अपने भाई से पुलिस की नौकरी के टिप्स लेने और लौटे तो उन्हें एक मराठी फिल्म में लीड रोल मिल चुका था, कैसे? आइए अजिंक्य देव से जानते हैं। आगे की कहानी रमेश देव के बेटे अजिंक्य की जुबानी...
‘यह 1945 की बात है। कोल्हापुर उन दिनों फिल्म निर्माण का महाराष्ट्र में प्रमुख केंद्र था। दिनकर पाटिल की मराठी फिल्म 'पाटलाची पोर' की शूटिंग चल रही थी और पिताजी अपने दोस्तों के साथ शूटिंग देखने चले गए। कॉलेज के एक दृश्य की शूटिंग थी और पिता जी को काम मिला अपने दोस्तों को फिल्म में अभिनय करने के लिए राजी करने का। पिताजी के कहने पर सब माने। इसके एवज में सबको अच्छे पैसे मिले और पिताजी को मिला कॉलेज के मॉनिटर का रोल।
‘शॉट अच्छा गया तो पिताजी को इस किरदार की एक लाइन बोलने के लिए मिले 15 रुपये। बाकी लड़कों को आठ-आठ रुपये और लड़कियों को 10 रुपये का भुगतान किया गया। धीरे-धीरे पिताजी शूटिंग के लिए जरूरी युवाओं को कॉलेज से नियमित पहुंचाने लगे और इस दौरान खुद भी छोटे मोटे रोल करते रहे। जज साब को पता चला तो उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने सिर्फ पिताजी को अपनी पढ़ाई जारी रखने और वकील बनने के लिए कहा। लेकिन, जज साब के पिताजी यानी पिताजी के दादाजी चाहते थे कि वह पुलिस या सेना में जाएं। उनकी दादी चाहती थीं कि वह खेती करें क्योंकि हमारे पास बहुत सी कृषि भूमि थी। पिताजी ने तीनों को हां कहा, लेकिन इनमें किसी में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।'
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‘फिर पिताजी का पुलिस में भर्ती के लिए चयन हो गया। दारोगा की ट्रेनिंग के लिए उन्हें नासिक जाना था। मेरे ताऊजी उमेश देव सेना में मेजर थे और पुणे में तैनात थे। पिताजी उनसे कुछ टिप्स और पैसे लेने के लिए पुणे गए। और, वहां दोनों रेस देखने भी पहुंचे। मराठी अभिनेता और निर्देशक राजा परांजपे भी वहां आए थे। ताऊजी से नुस्खा लेने के बाद जिस घोड़े पर उन्होंने दांव लगाया और हार गए। इसके बाद वह पिताजी की तरफ मुड़े। उनको रेस का कुछ पता नहीं था, लेकिन राजा ने कहा कि बोहनी भी किस्मत ही होती है और पिताजी से एक घोड़ा चुन लेने को कहा। पिताजी जिस जिस घोड़े का नंबर बताते जाते, वे सारे घोड़े रेस में जीतते गए। और, रेस खत्म होने तक राजा पराजंपे 21 हजार रुपये जीत चुके थे।’
‘राजा परांजपे को उन दिनों एक फिल्म के निर्देशन के तीन हजार मिलते थे, एक साथ 21 हजार रुपये देख वह बहुत खुश हुए। उन्होंने पिताजी से कहा, 'रमेश, तुम मेरे लिए बहुत भाग्यशाली हो। मैं दो दिनों में अपनी अगली फिल्म शुरू कर रहा हूं और मेरे पास खलनायक की भूमिका निभाने के लिए कोई नहीं है। तुम ये भूमिका क्यों नहीं करते?' पिताजी के सामने पुलिस की नौकरी थी, लेकिन ताऊजी ने उन्हें ये प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए कहा।'
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