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Mohali: कर्नल जसबीर सिंह ने 71 के युद्ध में पाक को चटाई थी धूल, बांग्लादेश सरकार अब भी करती है सम्मानित

अमर उजाला नेटवर्क, मोहाली/चंडीगढ़ Published by: निवेदिता वर्मा Updated Thu, 26 Jan 2023 03:51 PM IST
सार

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिलने के तीन साल बाद 1950 में देश में संविधान लागू किया गया था। भारतीय सेना के अफसर आज भी देश के लिए कुछ करने का जज्बा रखते हैं।

कर्नल जसबीर सिंह
कर्नल जसबीर सिंह - फोटो : फाइल

विस्तार

1971 में हुई भारत-पाक जंग में जीरकपुर के कर्नल जसबीर सिंह ने बांग्लादेश को आजाद करवाने में अहम रोल अदा किया था। इसके चलते अब भी उन्हें बांग्लादेश सरकार की ओर से देश में बुलाकर सम्मानित किया जाता है। पहली बार 2016 में और दूसरी बार दिसंबर 2022 में उन्हें सम्मानित किया गया है।



कर्नल जसबीर सिंह ने बताया कि बांग्लादेश दिसंबर में पाकिस्तान से अलग हुआ था। 14 दिसंबर से लेकर 19 दिसंबर तक बांग्लादेश में आजादी हफ्ता मनाया जाता है। भारत के 28 लोगों को बुलाकर सम्मानित किया जाता है। इन 28 लोगों में वह अकेले ही पगड़ीधारी हैं। दूसरी वर्ल्ड वार के बाद भारत में यह पहला मौका था कि पाकिस्तान के 93 हजार फौजियों ने आत्मसमर्पण किया था। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था और उसमें भारत का बड़ा रोल था। उन्होंने बताया कि 2001 में फौज से रिटायर्ड होने के बाद अब वह समाजसेवा करते हैं।


फौजी काका सिंह ने 1965 की जंग में देश पर कुर्बान कर दी अपनी आंखें
जीरकपुर के रहने वाले काका सिंह ने पहली जंग 1961 की चीन के खिलाफ लड़ी थी और दूसरा युद्ध 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ा था। इसमें उन्होंने अपनी आंखें गंवा दीं थीं। उन्होंने बताया कि 1965 में जब वह युद्ध क्षेत्र में ट्रक में जा रहे थे तो अचानक ब्लास्ट हो गया और ट्रक में बैठे सभी जवान घायल हो गए थे। किसी की टांग, किसी की बाजू शरीर से अलग हो गई थी। इसमें उन्होंने व एक और साथी जवान ने अपनी आंखें गंवा दी थीं। इसके बाद उनकी आंखों का ऑपरेशन हुआ और उन्हें देहरादून स्थित आर्मी ब्लाइंड स्कूल में ट्रेनिंग दी गई। 1970 में रिटायरमेंट के बाद से वह घर में ही रहते हैं। इस समय उनकी उमर 95 साल हो चुकी है और अभी भी स्वस्थ जिंदगी जी रहे हैं।

जवानी में सीमा और अब सैनिकों के हकों की रक्षा कर बने गणतंत्र के प्रहरी
सेवानिवृत कर्नल एसएस सोही ने बताया कि जवानी के समय में उन्होंने सीमा पर रहते हुए देश की रक्षा की। वहीं, अब वह गणतंत्र के प्रहरी बनकर सैनिकों के हकों की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। आज देश का 74वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। ऐसे में जो जज्बा पहले होता था। वह अब कम ही देखने को मिलता है। आज भी लड़ाई का मैदान वैसा ही है जैसे पहले हुआ करता था।

जंग के मैदान से महीना नहीं होता था संपर्क, अब माहौल बदला
सोही ने बताया कि हमारे समय में चिट्ठियां और लैंडलाइन होते थे। ऐसे में जंग के मैदान से घर वालों से महीनों संपर्क नहीं हो पाता था। आज के जवानों के पास ये सुविधा है कि वह ड्यूटी से फ्री होने के बाद अपने घर वालों से बात कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि 1971 की जंग के दौरान उन्हें जंग से पहले ही जंग की आदत पड़ चुकी थी। क्योंकि उनकी ड्यूटी ज्यादातर जम्मू-कश्मीर ही रही है। 1971 की जंग के बाद उन्हें लीपा वैली में दुश्मन की चार पोस्ट पर अटैक करने आदेश हुए थे। ऐसे में चार कंपनियां बनाई गई थीं जिनमें उनकी तीसरी कंपनी थी। ऐसे में उन चार पोस्ट तक पहुंचने से पहले दुश्मन की ओर से बिछाई माइन्स से निपटना था। कई जवान उन बंब पर पैर रखते हुए अपने टांगें और जान गंवा चुके थे। ट्रेनिंग में सिखाया जाता है कि लड़ाई के समय घायल हुए जवानों को मदद नहीं करनी होती है। मिशन पर ही पूरी तरह फोकस रखना होता है।

समय होता तो शायद साथियों की बचा पाते जान
जो कंपनी पहले लड़ाई के लिए जाती है। वह बाकी की कंपनी के लिए सेफ गैलरी बनाती हुई जाती है। ऐसे में जब हमारी कंपनी के आगे बढ़ने का समय आया तो देखा कि हमारे सुरक्षित रास्ते में कुछ जवान बंब के कारण अपने शरीर के अंग गंवा चुके हैं। वह मदद के लिए चिल्ला रहे थे। एक जवान पर तरस आया तो मदद करकी चाही तो साथियों ने सख्ती दिखाते हुए कहा कि साहब अगर हम उनकी मदद करने लगे तो हम अपने मिशन तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ऐसे में उस जवान को बुरी हालात में ही छोड़ना पड़ा। इसके बाद हमने चारों पोस्ट उठाते हुए दुश्मन को मार भगाया और विजय प्राप्त की। आज भी वह मंजर याद आता है तो लगता है कि समय होता तो शायद उन बेबस जवानों को बचा सकता था।
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युद्ध में पता नहीं चलता कि साथी शहीद हो गए
जब दुश्मन की तरफ से गोलीबारी हो रही होती है तो आपको पता नहीं चलता कि आपके साथ वाला साथी शहीद हो चुका है। बस आपको इतना पता चलता है कि गोली आपके पास से कितनी दूरी से निकली है। हमारे जवानों का जज्बा ही था कि हम देश पर उठने वाली हर आंख को झुका पाए। गणतंत्र दिवस हमारे उन जवानों की बदौलत ही है जिन्होंने देश की हर लड़ाई आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया है।

सरफरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा करो, फूंक दो बर्बाद कर दो आशियाना अंग्रेज का...
सरफरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा करो, फूंक दो बर्बाद कर दो आशियाना अंग्रेज का...क्रांतिकारी नज्म को पढ़ने पर मेरे पिता को वर्ष 1942 में जेल भेज दिया गया। उस समय मेरी उम्र मात्र 16 वर्ष थी। यह कहना है सेक्टर- 43 निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय वेद प्रकाश मेहरा के बेटे अश्वनी कुमार मेहरा का।

उन्होंने बताया कि उनके पिता वेद प्रकाश मेहरा का जन्म 27 मई 1926 में लाहौर हुआ था। दादा जी लाला राम दत्ता मल एक क्रांतिकारी थे। लाला लाजपत राय और सरदार भगत सिंह के साथ क्रांतिकारी दल में थे। माता सुखदेवी ने सरोजनी नायडू के साथ काम किया। हमारे परिवार में देशभक्ति कूट कूट कर भरी हुई थी।

अश्वनी कुमार बताते हैं कि जब उनके पिता मात्र दो वर्ष के थे तो वे मां के साथ जेल गए। अंग्रेजों ने पिताजी को बोसतल जेल में रखा। 1942 में पिता को एक क्रांतिकारी नज्म बोलने पर जेल भेज दिया गया। नज्म थी (सरफरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा करो, फूंक दो बर्बाद कर दो आशियां अंग्रेज का। इस नज्म को पेश करने पर तीन वर्ष तक वो जेल मे रहे।

जेल जाने से पहले उनकी माता ने कहा था कि बेटा अभी तुम बहुत छोटे हो, तुमको अंग्रेज डरांएगे मारेंगे पर तुम माफी मांग कर मत आना, बेशक मर जाना। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक क्रांतिकारी मां के दिल में देश के प्रति कितना प्यार था। 15 अगस्त 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ताम्रपत्र प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया था। वह पंजाब यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत्त हुईं। लंबी बीमारी के बाद 10 फरवरी 2013 को अपनी जीवन यात्रा पूरी की। अश्वनी मेहरा ने बताया कि उनके पिता की दाई बाजू पर अंग्रेजों के साथ मुकाबला करते हुए गोली लगी थी। ऑपरेशन अमृतसर में डाॅ. युद्धवीर सचदेवा ने किया था। बाजू में पड़े थे। 

महात्मा गांधी का भाषण सुन मन बदला और छोड़ दी थी बैंक की नौकरी
महात्मा गांधी के एक भाषण ने मेरे पिता की जीवनशैली को बदल दिया। यह बात स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी एसोसिएशन चंडीगढ़ के अध्यक्ष केके शारदा ने बताया। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी के भाषण ने मेरे पिता का मन ऐसा बदला कि उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी।

नौकरी छोड़ने के बाद वे गांधी जी के आश्रम में चले गए। आश्रम में जाने के बाद उन्होंने गांधी जी से काम मांगा। गांधीजी ने उन्हें मैला उठाने का काम दिया। उन्होंने इस काम को बखूबी किया। महीनों काम करने के बाद गांधीजी ने कहा कि तुम पास हो गए हो। जाओ देश की सेवा करो। पिताजी ने हमेशा चरखा काते हुए सूत का ही कपड़ा पहना। वह गांधी जी और विनोबा भावे को बहुत पसंद करते थे। वर्ष 2009 में निधन के बाद तिरंगा में लिपटकर उनकी अंतिम यात्रा पूरी हुई।

उन्होंने एक विशेष बात यह बताई कि उनके दादा अंबाला में रेलवे में नौकरी करते थे। जब पिताजी आजादी के आंदोलन में सक्रिय हुए तो उनके दादा को अंग्रेजी सरकार ने पदावनति कर दिया और छोटे स्टेशन पर भेज दिया था। दादाजी पिताजी पर काफी गुस्सा हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने गले लगाया और कहा कि तुमने बहुत अच्छा काम किया है। देश सेवा में आगे बढ़ते रहो।

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