लखनऊ। प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बने भले ही 10 महीने गुजर चुके हों लेकिन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान अभी भी बसपा सरकार के आदेशों का ही पालन करेगा। संस्थान चालू वित्तीय वर्ष में उन्हीं पुरस्कारों को देगा जो बसपा सरकार ने तय किए थे। समाजवादी चिंतकों राममनोहर लोहिया और मधु लिमये की स्मृति में दिए जाने वाले पुरस्कारों को शुरू करने के प्रति भी संस्थान ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई है। संस्थान सभी 111 पुरस्कार और एक नया पुरस्कार तभी शुरू करेगा जब बढ़ी हुई धनराशि का प्रावधान बजट में किया जाएगा।
बसपा सरकार ने वर्ष 2010 में 111 में से मात्र तीन पुरस्कार देना तय किया था तब सूत्रों ने यह भी संकेत दिया था कि समाजवादी चिंतकों के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कार और पुरस्कारों के लिए चयनित नामों में दलितों की भागीदारी न होने को लेकर आपत्ति थी, लेकिन अब जब चालू वित्तीय वर्ष के समापन तक पुरस्कार बंटेंगे तो फिलहाल तीन वर्षों के रुके वे तीन-तीन पुरस्कार ही दिए जाएंगे जो बसपा सरकार ने जारी रखे थे। ये पुरस्कार बंटेंगे, लेकिन उन्हीं नियमों के तहत जो पिछली सरकार ने बनाए हैं। वैसे संस्थान के स्थापना दिवस समारोह में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बसपा सरकार द्वारा समाप्त किए पुरस्कारों को शुरू करने, उनकी राशि दोगुनी करने और राजर्षि टंडन के नाम पर एक नया पुरस्कार शुरू करने की घोषणा कर साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों को खुश कर दिया था, लेकिन संस्थान के अधिकारियों का तर्क है कि अभी तीन पुरस्कारों की धनराशि ही बजट में मिली है, इसलिए चालू वित्तीय वर्ष में इनका वितरण स्थगित रखा है। ऐसे में सभी पुरस्कार बढ़ी हुई धनराशि के साथ तभी शुरू होंगे जब अगले वित्तीय वर्ष में इनकी धनराशि का प्रावधान बजट में किया जाएगा। संस्थान अगर चाहती तो लोहिया साहित्य सम्मान और मधु लिमये स्मृति पुरस्कार जैसे पुरस्कारों को शुरू कर सरकार के बदलाव का संकेत दे सकती थी। इन पुरस्कारों के लिए बहुत धनराशि की आवश्यकता भी नहीं थी। लोहिया साहित्य सम्मान दो लाख रुपए और मधु लिमये स्मृति पुरस्कार एक लाख रुपए का है। लाखों रुपए के बजट वाले हिंदी संस्थान के लिए तीन लाख रुपए की व्यवस्था करना बड़ी बात नहीं थी। मगर जब मार्च तक तीन वर्षों के तीन-तीन पुरस्कार बंटेंगे तो संदेश यही जाएगा कि सरकार अपने चिंतकों के नाम के पुरस्कार अपने शासन के एक वर्ष बाद भी शुरू नहीं करा सकी है।
लखनऊ। प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बने भले ही 10 महीने गुजर चुके हों लेकिन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान अभी भी बसपा सरकार के आदेशों का ही पालन करेगा। संस्थान चालू वित्तीय वर्ष में उन्हीं पुरस्कारों को देगा जो बसपा सरकार ने तय किए थे। समाजवादी चिंतकों राममनोहर लोहिया और मधु लिमये की स्मृति में दिए जाने वाले पुरस्कारों को शुरू करने के प्रति भी संस्थान ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई है। संस्थान सभी 111 पुरस्कार और एक नया पुरस्कार तभी शुरू करेगा जब बढ़ी हुई धनराशि का प्रावधान बजट में किया जाएगा।
बसपा सरकार ने वर्ष 2010 में 111 में से मात्र तीन पुरस्कार देना तय किया था तब सूत्रों ने यह भी संकेत दिया था कि समाजवादी चिंतकों के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कार और पुरस्कारों के लिए चयनित नामों में दलितों की भागीदारी न होने को लेकर आपत्ति थी, लेकिन अब जब चालू वित्तीय वर्ष के समापन तक पुरस्कार बंटेंगे तो फिलहाल तीन वर्षों के रुके वे तीन-तीन पुरस्कार ही दिए जाएंगे जो बसपा सरकार ने जारी रखे थे। ये पुरस्कार बंटेंगे, लेकिन उन्हीं नियमों के तहत जो पिछली सरकार ने बनाए हैं। वैसे संस्थान के स्थापना दिवस समारोह में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बसपा सरकार द्वारा समाप्त किए पुरस्कारों को शुरू करने, उनकी राशि दोगुनी करने और राजर्षि टंडन के नाम पर एक नया पुरस्कार शुरू करने की घोषणा कर साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों को खुश कर दिया था, लेकिन संस्थान के अधिकारियों का तर्क है कि अभी तीन पुरस्कारों की धनराशि ही बजट में मिली है, इसलिए चालू वित्तीय वर्ष में इनका वितरण स्थगित रखा है। ऐसे में सभी पुरस्कार बढ़ी हुई धनराशि के साथ तभी शुरू होंगे जब अगले वित्तीय वर्ष में इनकी धनराशि का प्रावधान बजट में किया जाएगा। संस्थान अगर चाहती तो लोहिया साहित्य सम्मान और मधु लिमये स्मृति पुरस्कार जैसे पुरस्कारों को शुरू कर सरकार के बदलाव का संकेत दे सकती थी। इन पुरस्कारों के लिए बहुत धनराशि की आवश्यकता भी नहीं थी। लोहिया साहित्य सम्मान दो लाख रुपए और मधु लिमये स्मृति पुरस्कार एक लाख रुपए का है। लाखों रुपए के बजट वाले हिंदी संस्थान के लिए तीन लाख रुपए की व्यवस्था करना बड़ी बात नहीं थी। मगर जब मार्च तक तीन वर्षों के तीन-तीन पुरस्कार बंटेंगे तो संदेश यही जाएगा कि सरकार अपने चिंतकों के नाम के पुरस्कार अपने शासन के एक वर्ष बाद भी शुरू नहीं करा सकी है।