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स्मृति शेष : संसदीय पैंतरों के माहिर थे पंडित केशरीनाथ त्रिपाठी, एक में अनेक पहचान समेटे हुए...
अखिलेश वाजपेयी, लखनऊ
Published by: दुष्यंत शर्मा
Updated Mon, 09 Jan 2023 04:06 AM IST
सार
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केशरी को जब जैसी भूमिका मिली, उन्होंने उसका पूरी निष्ठा से निर्वाह किया। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे या विधानसभा के अध्यक्ष। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने भाजपा मुख्यालय का दरवाजा भी देखना नहीं स्वीकार किया। पार्टी कार्यालय में कदम तभी रखा जब इन पदों की संवैधानिक सीमाओं से मुक्त हो गए।
कर्मसिद्ध का शोध ग्रन्थ हूं,
ऋषि -मुनियों का मूल मंत्र हूं,
युग की गति का कालयंत्र हूं,
इसके आगे मैं क्या बोलूं ?
अपनी कविता की इन पंक्तियों की तरह थे पंडित केशरीनाथ त्रिपाठी। एक में अनेक पहचान समेटे हुए। सरल व्यक्ति, सहज राजनेता, कठोर प्रशासक, भावपूर्ण कवि, प्रख्यात विधिवेत्ता, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति समर्पित, संविधानवेत्ता और समर्पित, वरिष्ठ साहित्यकार, प्रसिद्ध हिंदी सेवी लेकिन अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान, चलते-फिरते थिसारस और भी बहुत कुछ।
न बड़े राजनेता होने का एहसास कराने की चिंता और न प्रोटोकॉल की फिक्र। हां, मुद्दा दायित्व व कर्तव्य के लिए मर्यादा का हो तो काफी कठोर। कृश काया के केशरी विराट व्यक्तित्व के थे । वह ऐसे साहित्यकार और संविधानवेत्ता थे, जिन्हें सियासी पैंतरे भी खूब पता थे ।
केशरी की पहचान भले ही प्रयागराज से जुड़ी हो , लेकिन उनके पूर्वज मूल रूप से देवरिया के थे। जहां से उनका परिवार प्रयागराज के नींवी गांव में आकर बस गया। केशरीनाथ का जन्म 10 नवंबर 1934 को हुआ।
छह बार विधायक, तीन बार विधानसभा अध्यक्ष
केशरीनाथ प्रयागराज की दक्षिणी सीट से छह बार विधायक चुने गए। वह तीन बार विधानसभा अध्यक्ष भी रहे । प्रदेश में 1991 में विशुद्ध भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली कल्याण सिंह सरकार के समय वह पहली बार विधानसभा अध्यक्ष निर्वाचित हुए। संवैधानिक पेचीदगियों को क्षण भर में सुलझा देने वाले और समस्याओं का समाधान कर रास्ता सुझा देने वाले केशरी के विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर निर्णयों की धार काफी तीक्ष्ण होती थी। उनके कई निर्णय नजीर बनकर विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी संभालने वालों का मार्गदर्शन करते दिखते हैं ।
जैसा पद वैसी भूमिका
केशरी को जब जैसी भूमिका मिली, उन्होंने उसका पूरी निष्ठा से निर्वाह किया। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे या विधानसभा के अध्यक्ष। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने भाजपा मुख्यालय का दरवाजा भी देखना नहीं स्वीकार किया। पार्टी कार्यालय में कदम तभी रखा जब इन पदों की संवैधानिक सीमाओं से मुक्त हो गए।
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