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मान्यता: इस मंदिर में रखा हुआ है महिषासुर का रक्त, देखने पर हो जाते हैं अंधे
दिनेश जस्पा, अमर उजाला, उदयपुर (लाहौल-स्पीति) Published by: अरविन्द ठाकुर Updated Wed, 11 Dec 2019 05:33 PM IST
लाहौल घाटी के उदयपुर में प्रसिद्ध मृकुला देवी मंदिर का इतिहास द्वापर युग के दौरान पांडवों के वनवास काल से जुड़ा हुआ है। समुद्रतल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर बना यह मंदिर अपनी अद्भुत शैली और लकड़ी पर नक्काशी के लिए जाना जाता है। यहां मां काली की महिषासुर मर्दिनी के आठ भुजाओं वाले रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर कश्मीरी कन्नौज शैली में बना हुआ है। बताते हैं कि महाबली भीम एक दिन एक विशालकाय पेड़ को यहां लाए और उन्होंने देवता के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा से यहां मंदिर के निर्माण के लिए कहा। विश्वकर्मा ने एक दिन में इस मंदिर का निर्माण किया।
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- फोटो : अमर उजाला
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आज भी मंदिर के भीतर उन दिनों के बनाए रामायण और महाभारत की कलाकृतियां देख लोग दंग रह जाते हैं। कहीं मृत्यु शैया में लेटे भीष्म पितामह, कहीं सागर मंथन, सीता मैया का हरण, अशोक वाटिका, गंगा-जमुना, आठ ग्रह, भगवान विष्णु के अवतार, भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुलने, भगवान कृष्ण-अर्जुन, द्रोपदी स्वयंवर, अभिमन्यु का चक्रव्यूह, सहित कई देवी-देवताओं के लकड़ी के बनाए चित्र मौजूद हैं। मंदिर की लकड़ी की दीवारें पहाड़ी शैली में बनी हुई हैं। मान्यता है कि महिषासुर का वध करने के बाद मां काली ने यहीं पर खून से भरा हुआ खप्पर रखा था। यह खप्पर आज भी यहां माता काली की मुख्य मूर्ति के पीछे रखा हुआ है। इसे श्रद्धालुओं के देखने पर प्रतिबंध है। लोगों में आस्था है कि अगर इस खप्पर को कोई गलती से भी देख ले तो वह अंधा हो जाता है।
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मंदिर कपाट के पास दो द्वारपाल बजरंग बली और भैरो खड़े हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धालुओं को बताया जाता है कि यहां पूजा-अर्चना और दर्शन के बाद भूलकर भी ‘चलो यहां से चलते हैं’ नहीं बोल सकते हैं। मान्यता के अनुसार ऐसा कहने पर आप और आपके परिवार पर विपदा आ सकती है। बताते हैं कि ऐसा कहने पर इस मंदिर के द्वार पर खड़े दोनों द्वारपाल भी साथ चल पड़ते हैं। आज के बदलते परिवेश में भी इस मंदिर में कभी भी चलो नहीं कहते हैं। दर्शन करने के बाद चुपचाप लौट आते हैं।
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घाटी में साल में एक बार फागली उत्सव होता है। उत्सव की पूर्व संध्या पर मां मृकुला देवी मंदिर के पुजारी खप्पर की पूजा-अर्चना की रस्म अदायगी अकेले करते हैं। खप्पर को बाहर निकाला जाता है लेकिन कोई देखता नहीं है। मंदिर के पुजारी दुर्गा दास बताते हैं कि बुजुर्गों की बात पर यकीन किया जाए तो 1905-06 में इस खप्पर को देखने वाले चार लोगों की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई थी।
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मरगुल गांव का नाम कैसे पड़ा उदयपुर- बताते हैं कि 16वीं शताब्दी से पहले इस गांव का नाम मरगुल था। यहां चंबा के राजा उदय सिंह लाहौल आए। उन्होंने देवी की अष्टधातु की मूर्ति की स्थापना की। इसके बाद गांव का नाम उदयपुर पड़ गया। यह गांव तांदी- किश्तवाड़ मार्ग पर चिनाब (चंद्रा और भागा) नदी के किनारे बसा है। हिंदू देवी मृकुला या देवी काली के महिषासुर मर्दिनी अवतार को पूजते हैं जबकि बौद्ध माता वृकुला के नाम से देवी वज्रराही (बौद्ध धर्म में एक क्रोधी देवी) के रूप में पूजते हैं। बौद्धों का मानना है कि यह वही स्थान है जहां प्रसिद्ध तांत्रिक संत पद्मसंभव ने अपनी यात्रा के दौरान ध्यान लगाया था।
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