Movie Review: कार्गो
कलाकार: विक्रांत मैसी, श्वेता त्रिपाठी, नंदू माधव, बिस्वपति सरकार, हंसल मेहता आदि।
निर्देशक: आरती कदव
ओटीटी: नेटफ्लिक्स
रेटिंग: **
अगर किसी उभरते फिल्मकार को अपनी काबिलियत का पैमाना निर्माता निर्देशक अनुराग कश्यप से मेल पर मिली तारीफ से नापना है तो इसमें बुराई नहीं है। लेकिन, सोशल मीडिया पर इसका प्रदर्शन करने के पीछे की मंशा एक प्रतिभावान निर्देशक की खुद पर भरोसा करने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा देती है। सिनेमा दर्शकों से ज्यादा खुद पर भरोसा करने का माध्यम है, यहां किसी दूसरे के ठप्पे की जरूरत आपको नहीं है। हां, अगर आप उसी लीग में शामिल होकर वैसी ही संघर्ष गाथा अपने करियर की लिखना चाह रहे हैं तो अलग बात है। आरती की बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘कार्गो’ मनोरंजन के उस कालखंड में रिलीज हो रही है जिसमें इतना कुछ देखना भी अपने आप में बड़ी चुनौती है।
कलाकार: विक्रांत मैसी, श्वेता त्रिपाठी, नंदू माधव, बिस्वपति सरकार, हंसल मेहता आदि।
निर्देशक: आरती कदव
ओटीटी: नेटफ्लिक्स
रेटिंग: **
अगर किसी उभरते फिल्मकार को अपनी काबिलियत का पैमाना निर्माता निर्देशक अनुराग कश्यप से मेल पर मिली तारीफ से नापना है तो इसमें बुराई नहीं है। लेकिन, सोशल मीडिया पर इसका प्रदर्शन करने के पीछे की मंशा एक प्रतिभावान निर्देशक की खुद पर भरोसा करने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा देती है। सिनेमा दर्शकों से ज्यादा खुद पर भरोसा करने का माध्यम है, यहां किसी दूसरे के ठप्पे की जरूरत आपको नहीं है। हां, अगर आप उसी लीग में शामिल होकर वैसी ही संघर्ष गाथा अपने करियर की लिखना चाह रहे हैं तो अलग बात है। आरती की बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘कार्गो’ मनोरंजन के उस कालखंड में रिलीज हो रही है जिसमें इतना कुछ देखना भी अपने आप में बड़ी चुनौती है।

पहले फिल्म शुक्रवार को रिलीज होती थी। प्रेस शो उसका आमतौर पर गुरुवार की शाम हो जाता था और शनिवार को इसे लिखा जाता था। पर्याप्त समय होता था समीक्षक के पास फिल्म को देखने, उस पर विचार करने और फिर ठंडे दिमाग से उस पर लिखने का। ‘कार्गो’ समीक्षा के उत्साह काल की फिल्म है। ये ऐसा समय है जहां थोड़ा सा भी औसत से बेहतर कुछ दिख जाए तो लोग लट्टू हो जाते हैं। हां, नकारात्मकता ऐसी भी है कि लोगों को फिल्म ‘परीक्षा’ में आदिल हुसैन का रिक्शा खींचना भी नकली लगता है, और ‘कार्गो’ का पहले फ्रेम से नकली दिखता अभिनय भी कमाल लगता है। सब समय की बलिहारी है। ऐसे में रिलीज से पहले फिल्म ना ही देखना सुखकर है। ‘नेटफ्लिक्स’ ने इस बार ये फिल्म पहले दिखाई भी नहीं।

फिल्म ‘कार्गो’ अपने बनने के समय से चर्चा में रही फिल्म है। लंबा समय गुजर गया तबसे। फिल्म को तमाम लोगों ने पहले भी देखा, इसकी चाय पर चर्चाएं भी हुईं। लेकिन, कुछ अपने नाम के चलते और कुछ अपनी कहानी के चलते, ये फिल्म आम दर्शकों में उत्सुकता जगा नहीं पाई। फिर पिछले हफ्ते सोनी लिव ने एक बेहतरीन फिल्म को चार टुकड़ों में काटकर रिलीज किया तो ये समझ आया कि ओटीटी के दिग्गजों को भी हिंदी सिनेमा के दर्शकों की नब्ज समझ आती ही हो, तय नहीं है। ‘कार्गो’ उससे कहीं कमतर कहानी है। दोनों साइंस फिक्शन हैं, लेकिन दोनों में कहानी कहने का तरीका ही दोनों का असली अंतर है।

जन्म और मृत्यु की कहानी कहती तमाम फिल्में हिंदी सिनेमा में पहले भी बन चुकी हैं। जीतेंद्र युग की उन फिल्मों में ये कहानी कॉस्ट्यूम ड्रामा होती थी, यहां ये साइंस फिक्शन का चोला पहने है। मनुष्य और राक्षस प्रजाति के बीच समझौते के बाद धरती पर मरने वाला ऊपर जाकर अपनी याददाश्त मिटवाता है। कोरी स्लेट लेकर फिर से जन्म लेने को प्रस्तुत हो जाता है। इस एक लाइन की पौराणिक कथा को साइंस फिक्शन बनाने के लिए आरती कदव ने कैलेंडर काफी आगे का चुना है। कहानी काल्पनिक है और इसका निर्देशन भी इन्ही कल्पनाओं के सहारे बुना गया है। लेकिन, इतने आगे की कहानी में इतने सस्ते से दिखने वाले विज्ञान उपकरण बजट की ही नहीं सोच की भी कमी दिखाते हैं। बजट ‘जेएल 50’ का भी बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन वहां निर्देशक ने अपनी सोच बड़ी रखी है और बजट कम। अनुराग के बारे में पहले कहा जाता था कि उनके घर की बनी लाइब्रेरी की फिल्मों के सबसे अच्छे सीन उनकी फिल्मों में कहीं न कहीं दिख ही जाते हैं। आरती की फिल्म देखते समय अगर आपको स्टीवन सोडरबर्ग की ‘सोलैरिस’ और डंकन जोन्स की ‘मून’ बार बार याद आती है तो दिक्कत कहां है आप समझ सकते हैं।

अभिनय के लिहाज से भी फिल्म उल्लेखनीय नहीं बन सकी है। विक्रांत मैसी का तो खैर किरदार ही ऐसा है कि उनके चेहरे का तनाव उनके किरदार को आगे बढ़ाने में मदद करता है। साल की शुरूआत फिल्म '‘छपाक‘ से करने वाले विक्रांत अगर फिल्मों में मेन लीड का मोह छोड़ अच्छी कहानियों में दमदार किरदार करने शुरू करे तो उनका विस्तार मनोज बाजपेयी जैसा हो सकता है। उस कैटेगरी में किसी युवा कलाकार ने अभी मनोज की जगह नहीं ली है। 35 साल की हो चुकीं श्वेता त्रिपाठी को अपनी ऊर्जा को अब संचित करके सही समय पर सही तरीके से प्रस्फुटित करने की जरूरत है। उनके पास अभिनय का विस्तार है, निर्देशक उनको बेहतर मिलने जरूरी हैं। बाकी तमाम कलाकार कहानी में आते जाते रहते हैं। कभी कहानी को बोझिल होने से बचाने के लिए तो कभी बस यूं हीं, ऐंवई।
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