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Delhi : On the return of the Pandavas, the whole Indraprastha was lit with lamps
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Dilli ki Diwali : पांडवों की वापसी पर दीपों से जगमगाया था सारा इंद्रप्रस्थ, मुगलकाल में परवान चढ़ी भव्यता
संतोष कुमार, नई दिल्ली
Published by: दुष्यंत शर्मा
Updated Mon, 24 Oct 2022 06:31 AM IST
सार
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Delhi : इतिहासकार मानते हैं कि त्योहार बेशक बहुत पुराना है, पौराणिक कथाओं में यह भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक से जुड़ता है, लेकिन भव्यता मुगलकाल में परवान चढ़ी है।
40 फीट ऊंचा आकाशदीप, खेत-खलिहान व नदी-तालाब पर दीपदान, मिट्टी के छोटे-छोटे घरौंदे, भव्य सजावट... मुगल शहंशाह मुहम्मद शाह रंगीला की दीपावली दिल्ली के लिए यादगार है। इतिहासकार मानते हैं कि त्योहार बेशक बहुत पुराना है, पौराणिक कथाओं में यह भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक से जुड़ता है, लेकिन भव्यता मुगलकाल में परवान चढ़ी है। औरंगजेब के काल में आए अवरोध के बाद मुगल दरबार में जब दोबारा यह त्योहार शुरू हुआ तो पहले से कहीं ज्यादा भव्य दीपावली मनाई गई। यहां से जो रवायतें पड़ीं, कमोवेश वह आज भी जारी हैं।
इतिहासकार रजनीश राय बताते हैं कि दिल्ली में दीपावली मनाने का पहला जिक्र महाभारत में आया है। पांडव जब 12 वर्ष के वनवास व एक वर्ष के अज्ञातवास से वापस लौटे थे, तब इंद्रप्रस्थ वालों ने दीपों से पूरे नगर को सजाया है। पुराणों में भी इसका जिक्र है। ऐतिहासिक तौर पर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के दौरान दीपावली मनाने की बात आई है। 7वीं सदी में हर्षवर्धन के नाटकों व 12वीं सदी में राजशेखर की काव्य मीमांसा में इसकी तस्दीक करती है।
वहीं, इतिहासकार मणिकांत का मानना है कि यह परंपरा आगे भी जारी रही। समन्वय करने की अपनी ताकत से भारतीय संस्कृति में दिल्ली के सुल्तानों व मुगलों पर भी असर डाला। लेकिन इस बार तक ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि मुगलकाल में भव्य तरीके से दीपावली मनाई जाती थी। इसका जिक्र दरबारी व स्वतंत्र इतिहासकारों और यूरोपीय यात्रियों ने खूब किया है।
मुगलकाल की शोधार्थी राणा सफवी बताती हैं कि मिर्जा फैजुद्दीन बहादुर शाह जफर के दरबारी थे। उन्होंने 1885 में बज्म-ए-आखिर नाम की पुस्त लिखी। इससे पता चलता है कि रंगीला के वक्त 1719 से 1748 के बीच बड़े भव्य तरीके से दीपावली मनाई जाती थी। पूरे तीन दिन उत्सव चलता था। इस दौरान शाही महल में अंदर व बाहर जाना पूरी तरह प्रतिबंधित होता था। शहजादे और शहजादियां महल में अंदर मिट्टी के अंदर छोटे-छोटे घरौंदे बनाते। उसकी सजावट करते। महल के मध्य में 40 फीट ऊंचा विशाल दीपक लगता था, जो पूरी रात जलता। इसकी रोशनी लालकिले से चांदनी चौक तक जाती थी। बादशाह को सोने और चांदी से तौला जाता, जिसे गरीबों में बांटा जाता था।
अकबर से ज्यादा भव्य दीपावली शाहजहां के काल की थी। अवरोध औरंगजेब के काल में आया, उन्होंने दरबार में दीपावली नहीं मनाई। बाद में रंगीला ने इसे और भी ज्यादा भव्यता दी। आगे आलम-ए-इंतहाब में महेश्वर दयाल बहादुर शाह जफर के वक्त की दिवाली का जिक्र किया है। इंग्लैंड के यात्री एन्ड्रयू 1904 में दिल्ली आए और मुंशी जकाउल्लाह से मिले। जकाउल्लाह ने लाल किले के अंदर का रहन-सहन, अदब-ओ-अहतराम देखा था. जिसे एन्ड्रयू ने किताब जकातउल्लाह ऑफ दिल्ली में तफसील से लिखा है। एन्ड्रयू लिखते हैं, उन दिनों हिंदू-मुसलमान धार्मिक त्योहारों को साथ मिलकर मनाते थे।
आतिशबाजी... कब शुरू हुई सबके दावे अलग-अलग
दिल्ली-एनसीआर की दमघोंटू होती जा रही हवा के बीच सोमवार को दीपावली का पर्व है। दिल्ली में इस वक्त पटाखों पर पाबंदी है। वजह इसमें मौजूद मैग्नीशियम व एल्युमीनियम जैसे रासायनिक तत्व और चारकोल व सल्फर से बना गन पाउडर है। इससे प्रदूषण का स्तर और बढ़ जाएगा। पटाखों पर बंदिश का विरोध भी हो रहा है।
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आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच अमर उजाला ने इसकी तह में जाने की कोशिश की। इसके लिए साहित्यकार रामदरश मिश्र, दार्शनिक जेएम दवे, इतिहासकार मणिकांत व रजनीश राज और शोधार्थी सोहेल हाशमी और राणा सफवी से बातचीत की गई। सभी का मानना है कि दीपावली का आतिशबाजी से कोई सीधा संबंध नहीं है।
दीपावली...
दीपावली संस्कृत शब्द दीपावलि का हिंदी रूपांतरण है। इसका संधि विच्छेद दीप आवलि। यानी दीपों की पंक्ति।
वैज्ञानिक व धार्मिक दृष्टि से दीपक का स्रोत सूर्य है। तेल, रूई, मिट्टी सब सूर्य से ही मिलती है। दीपक अंदर व बाहर से ज्ञानवान बनाता है। यह आंतरिक भी है और बाहरी भी। प्रकाश बाहर की चीजों का साक्षात कराता है। पंचभूतों की अनेकता को कैसे जोड़ा जाए, उसका ज्ञान हमें प्रकाश ही देता है।
दीपावली का पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णन है। सीधे तौर पर भगवान राम के राज्याभिषेक सेे जुड़ा है। इसमें इसका सौंदर्य बोध और मूल्य चेतना शामिल है। उत्साह व उत्सवधर्मिता भी। यह जन-जन में यह मूल्य मौजूद रहें, इसलिए दीपावली पर घर के हर कोने, खेत-खलिहान में दीपक जलाने की परंपरा रही है।
पौराणिक ग्रंथों में भगवान कृष्ण और पांडवों की दीपावली का भी जिक्र है। पांडवों के 12 साल के वनवास और एक साल के अज्ञातवास से लौटने के बाद भी दीपावली मनाई गई थी। स्कन्द पुराण, 7वीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के नाटक और 10वीं शताब्दी में राजशेखर के काव्य मीमांसा से भी इसके मनाने का पता चलता है।
पटाखे से मिलते-जुलते ज्वलनशील पदार्थ का जिक्र तो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी है और बाद में इसकी बात पूर्व मध्य काल व मध्य काल में भी आती रही है, लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक तौर पर कभी भी पटाखे का सीधा ताल्लुक दीपावली से नहीं रहा है। इसकी जगह यह प्रकाश का उत्सव है।
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