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पहाड़ों में आवास आदि निर्माण के लिए फिलहाल कोई मानक निर्धारित नहीं हैं। धड़ल्ले से मनमाने तरीके से निर्माण किए जा रहे हैं। न आमजन इसकी प्रति सचेत हैं और न सरकार इसके प्रति चिंतित है।
आने वाले समय में यह लापरवाही खतरे का सबब बन सकती है। इसी को देखते हुए आईआईटी वैज्ञानिक अध्ययन कर पहाड़ों में निर्माण के लिए आइएस-कोड निर्धारण को जरूरी बता रहे हैं। इनका दावा है कि मानक निर्धारण से आपदा के समय 90 फीसदी बचाव संभव है।
सिक्किम में 18 सितंबर 2011 को आए भूकंप में भवनों को भारी क्षति पहुंची थी। इसे देखते हुए आईआईटी रुड़की ने पहाड़ों में आईएस कोड निर्धारण की कवायद शुरू की है। इससे पहले भवनों के लिए आईएस-1893-2016 कोड का निर्धारण किया है, लेकिन यह सिर्फ मैदानी क्षेत्रों के लिए है। आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण के लिए कोई मानक निर्धारित नहीं किए गए हैं। जिसकी वजह से पहाड़ों में लगातार मनमाने तरीके निर्माण लगातार चल रहे हैं। जबकि पहाड़ों में मैदानों की अपेक्षा भूकंप का खतरा अधिक रहता है।
यही नहीं पहाड़ों में जैसे-जैसे भवनों की ऊंचाई बढ़ती जाती है उसकी संवेदनशीलता कई गुना बढ़ जाती है। आईआईटी वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ों में गुणवत्तापरक मैटेरियल का अभाव होता है। साथ ही नींव भी एक समान न होकर एक ही भवन में अलग-अलग ऊंचाई पर होती है। वहीं बढ़ती जनसंख्या और सीमित भूमि के कारण पहाड़ों में लगातार मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बनाई जा रही हैं। ऐसे में आने वाले समय में यह खतरे का सबब बन सकती है।
आईआईटी रुड़की में अर्थक्वेक डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष प्रो. योगेंद्र सिंह का कहना है कि पहाड़ों के लिए आइएस-कोड जरूरी है, जो फिलहाल पूरे देश में कहीं नहीं है। हाल ही में निर्माण के लिए रिवाइज्ड आइएस कोड निर्धारित किया गया, लेकिन इसमें भी पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया। बढ़ते खतरे को देखते हुए आईआईटी रुड़की उत्तराखंड में मसूरी-नैनीताल सहित हिमाचल, जम्मू आदि कई पहाड़ी राज्यों में बने भवनों का सर्वे कर रहा है। इसकी रिपोर्ट आने पर से भविष्य में पहाड़ों के लिए आइएस कोड का निर्धारण किया जा सकता है।
दो रिसर्च स्कालर कर रहे कार्य
आईआईटी रुड़की के अर्थक्वेक डिपार्टमेंट में रिसर्च स्कॉलर मितेश और धीरज को आइएस कोड के लिए सर्वे का काम सौंपा गया है। उन्होंने बताया कि मसूरी और नैनीताल सहित पहाड़ों के विभिन्न भवनों का सर्वे किया है। इसके तहत कुछ भवन एक हजार साल से भी पुराने हैं, उनकी तकनीक का भी अध्ययन किया जा रहा है। साथ ही ईंट और कंक्रीट से बन रहे भवनों की स्थिति भी देखी जा रही है, ताकि पहाड़ों के लिए एक सही मानक निर्धारित किया जा सके। उन्होंने उम्मीद जताई कि कोड निर्धारण से पहाड़ों में भूकंप और आपदा के दौरान क्षति को 90 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
क्या है आइएस कोड
गर्वनमेंट आफ इंडिया की आर्गेनाइजेशन ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड की ओर से हर चीज के लिए मानक निर्धारित किए जाते हैं, ताकि उसकी गुणवत्ता और क्षमता पर असर न पड़े। इसके तहत अलग-अलग चीजों के लिए अलग-अलग कोड निर्धारित किए जाते हैं। मैदानी क्षेत्रों में भवन निर्माण के मानक निर्धारित किए गए हैं, लेकिन पहाड़ों की संवेदनशीलता और खतरे को देखते हुए वैज्ञानिकों की ओर से अलग से आइएस कोड की आवश्यकता जताई जा रही है। लेकिन अभी तक इसके लिए कुछ निर्धारित नहीं किया गया है।
पहाड़ों में आवास आदि निर्माण के लिए फिलहाल कोई मानक निर्धारित नहीं हैं। धड़ल्ले से मनमाने तरीके से निर्माण किए जा रहे हैं। न आमजन इसकी प्रति सचेत हैं और न सरकार इसके प्रति चिंतित है।
आने वाले समय में यह लापरवाही खतरे का सबब बन सकती है। इसी को देखते हुए आईआईटी वैज्ञानिक अध्ययन कर पहाड़ों में निर्माण के लिए आइएस-कोड निर्धारण को जरूरी बता रहे हैं। इनका दावा है कि मानक निर्धारण से आपदा के समय 90 फीसदी बचाव संभव है।
सिक्किम में 18 सितंबर 2011 को आए भूकंप में भवनों को भारी क्षति पहुंची थी। इसे देखते हुए आईआईटी रुड़की ने पहाड़ों में आईएस कोड निर्धारण की कवायद शुरू की है। इससे पहले भवनों के लिए आईएस-1893-2016 कोड का निर्धारण किया है, लेकिन यह सिर्फ मैदानी क्षेत्रों के लिए है। आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण के लिए कोई मानक निर्धारित नहीं किए गए हैं। जिसकी वजह से पहाड़ों में लगातार मनमाने तरीके निर्माण लगातार चल रहे हैं। जबकि पहाड़ों में मैदानों की अपेक्षा भूकंप का खतरा अधिक रहता है।
यही नहीं पहाड़ों में जैसे-जैसे भवनों की ऊंचाई बढ़ती जाती है उसकी संवेदनशीलता कई गुना बढ़ जाती है। आईआईटी वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ों में गुणवत्तापरक मैटेरियल का अभाव होता है। साथ ही नींव भी एक समान न होकर एक ही भवन में अलग-अलग ऊंचाई पर होती है। वहीं बढ़ती जनसंख्या और सीमित भूमि के कारण पहाड़ों में लगातार मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बनाई जा रही हैं। ऐसे में आने वाले समय में यह खतरे का सबब बन सकती है।
बढ़ते खतरे को देखते हुए पहाड़ी राज्यों में बने भवनों का सर्वे
आईआईटी रुड़की में अर्थक्वेक डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष प्रो. योगेंद्र सिंह का कहना है कि पहाड़ों के लिए आइएस-कोड जरूरी है, जो फिलहाल पूरे देश में कहीं नहीं है। हाल ही में निर्माण के लिए रिवाइज्ड आइएस कोड निर्धारित किया गया, लेकिन इसमें भी पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया। बढ़ते खतरे को देखते हुए आईआईटी रुड़की उत्तराखंड में मसूरी-नैनीताल सहित हिमाचल, जम्मू आदि कई पहाड़ी राज्यों में बने भवनों का सर्वे कर रहा है। इसकी रिपोर्ट आने पर से भविष्य में पहाड़ों के लिए आइएस कोड का निर्धारण किया जा सकता है।
दो रिसर्च स्कालर कर रहे कार्य
आईआईटी रुड़की के अर्थक्वेक डिपार्टमेंट में रिसर्च स्कॉलर मितेश और धीरज को आइएस कोड के लिए सर्वे का काम सौंपा गया है। उन्होंने बताया कि मसूरी और नैनीताल सहित पहाड़ों के विभिन्न भवनों का सर्वे किया है। इसके तहत कुछ भवन एक हजार साल से भी पुराने हैं, उनकी तकनीक का भी अध्ययन किया जा रहा है। साथ ही ईंट और कंक्रीट से बन रहे भवनों की स्थिति भी देखी जा रही है, ताकि पहाड़ों के लिए एक सही मानक निर्धारित किया जा सके। उन्होंने उम्मीद जताई कि कोड निर्धारण से पहाड़ों में भूकंप और आपदा के दौरान क्षति को 90 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
क्या है आइएस कोड
गर्वनमेंट आफ इंडिया की आर्गेनाइजेशन ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड की ओर से हर चीज के लिए मानक निर्धारित किए जाते हैं, ताकि उसकी गुणवत्ता और क्षमता पर असर न पड़े। इसके तहत अलग-अलग चीजों के लिए अलग-अलग कोड निर्धारित किए जाते हैं। मैदानी क्षेत्रों में भवन निर्माण के मानक निर्धारित किए गए हैं, लेकिन पहाड़ों की संवेदनशीलता और खतरे को देखते हुए वैज्ञानिकों की ओर से अलग से आइएस कोड की आवश्यकता जताई जा रही है। लेकिन अभी तक इसके लिए कुछ निर्धारित नहीं किया गया है।