वेब सीरीज रिव्यू: रनअवे लुगाई
लेखक: अबीर सेनगुप्ता
निर्देशक: अविनाश दास
कलाकार: नवीन कस्तूरिया, रूही सिंह, संजय मिश्रा, पंकज झा आदि।
ओटीटी प्लेयर: एमएक्स प्लेयर
रेटिंग: *
‘मस्तराम’ से ‘राम युग’ होते हुए एमएक्स प्लेयर लौटकर ‘रनअवे लुगाई’ पर आ गया है। कमाल की फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ बनाने वाले निर्देशक अविनाश दास को भी अब मुंबई समझ आने लगा है। दिखता यही है कि वह भी नाम कमाने के बाद अब दाम कमाने के फेर में हैं। ‘इंदु की जवानी’ जैसी फिल्म लिखने और निर्देशित करने वाले अबीर सेनगुप्ता ने बिहार की पृष्ठभूमि पर एक कहानी जमाने की कोशिश की है और जिस सधे अंदाज से अविनाश दास ने सीरीज का ओपनिंग मोंटाज काटा है, उतनी ही आजादी अगर उन्हें पूरी सीरीज बनाने में मिली होती तो इस देखी सुनी सी कहानी में कुछ तो अलहदा रंग वह भर ही सकते थे। लेकिन, जैसा कि एमएक्स प्लेयर की क्रिएटिव टीम ने इस सीरीज की बिहार में शूटिंग के दौरान अपना ‘ज्ञान’ उड़ेला था, सीरीज भी वैसी ही ओवरफ्लो में बहकर रह गई है।
देश में नवीन कस्तूरिया की उम्र का कोई आदमी सीधा जज बन जाए। अभी होना मुश्किल है। सीधी भर्ती में भी कम से कम वकालत पास इंसान को सात साल का कचहरी का अनुभव चाहिए होता है। अबीर सेनगुप्ता को बिहार में होने वाली पीसीएस (जे) की परीक्षा और जिला एवं सत्र न्यायालय में बैठने वाले जज की कुर्सी यात्रा समझनी चाहिए। जज की कुर्सी तक पहुंचना आसान नहीं है और उसके किरदार का ऐसा ‘कैरीकेचर’ बनाना भी अच्छी बात नहीं है। सीरीज का हीरो ऐसी अदालत का जज है जिसमें वकील अपनी ही महिला मुवक्किल के लिए कहता है, ‘आप तो जानते ही हैं, जैसे एम्पटी वेसेल मेक्स मोर साउंड वैसे ही लोनली वाइव्स अट्रेक्ट मोर क्राउड!’ ऐसी स्क्रिप्ट पास करने वाली क्रिएटिव टीम एमएक्स प्लेयर के अलावा और किसी ओटीटी की हो भी नहीं सकती।
पूरी सीरीज के 10 एपीसोड ओवरएक्टिंग की दुकान हो गए हैं। ऐसे लगता है कि जैसे ‘अनारकली ऑफ आरा’ वाले अविनाश दास के चेलों से एमएक्स प्लेयर ने पूरी सीरीज शूट करवा ली है और नाम उनका दे दिया है। संजय मिश्रा तो खैर इन दिनों हर फिल्म में वही करते हैं जिसके लिए वह मशहूर हो चले हैं, ओवरएक्टिंग। लोग भी उनको उसी में पसंद कर रहे हैं लेकिन रजनीकांत बने नवीन कस्तूरिया को तो स्वाभाविक रहना चाहिए था। बाप नंबरी, बेटा सौ नंबरी। पिता-पुत्र के ऐसे संवाद बिहार में शायद ही किसी सिन्हा परिवार में होते हैं। मुंबई में लेखकों से इन दिनों ‘हिंदी हार्टलैंड’ की कहानियां खूब मांगी जा रही है और जिन लेखकों का ओटीटी के अफसरों से कनेक्शन है, वे ‘हिंदी हार्टलैंड’ के नाम पर कुछ भी चिपका दे रहे हैं। खामियाजा दर्शकों को भुगताना पड़ रहा है। इस सीरीज की मार्केटिंग से सीरीज के लेखक और निर्देशक का नाम क्यूं गायब है, सीरीज देखने के बाद ही समझ आता है।
वेब सीरीज ‘रनअवे लुगाई’ में जज साहब की लुगाई दूसरे एपीसोड में ही भाग जाती है। ये लुगाई यानी बीवी ऐसी है जो भागलपुर के स्टूडियो में मुंबई के आरामनगर स्टूडियो जैसी तस्वीरें खिंचवाती है और अपने पति को भेजती है। जज साब के पिताजी बेटे से आधी रात में बहू के फोन से व्हाट्सऐप चैट करते हैं। बेटे की पढ़ाई पर लगी उनकी कमाई इन्वेस्टमेंट है जिसका रिटर्न वह बेटे की अदालत में अपने हिसाब से फैसले करवा कर कमा रहे हैं। नवीन कस्तूरिया से ये रोल हो नहीं पाया। उन्होंने कोशिश तो राहुल बग्गा बनने की है लेकिन मामला जमा नहीं। रूही सिंह सीरीज की अलग ही आकाशगंगा हैं। बिहारी बोलने की कोशिश में अपनी असली ज़ुबान भी कहीं कहीं भूल जाती हैं। ओवरएक्टिंग में उनका भी संजय मिश्रा और नवीन से कंपटीशन है। सीरीज में काम पंकज झा ने अच्छा किया है। और, उसके बाद सीरीज के तमाम छोटे बड़े सहायक कलाकारों ने भी जितना बन पड़ा करने की कोशिश की है। पुराने ब्वॉयफ्रेंड का क्षेपक और क्लाइमेक्स में स्टार एंट्री का छौंका भी सीरीज को बचा नहीं पाता है।
तकनीकी तौर पर भी वेब सीरीज ‘रनअवे लुगाई’ बहुत कमजोर है। ‘राम युग’ दिखाने वाले एमएक्स प्लेयर ने इतनी कंजूसी वेब सीरीज ‘रनअवे लुगाई’ के बजट में क्यों की, इसके प्रोड्यूसर ही बता सकते हैं। धीरेंद्र शुक्ला को लोकेशन वगैरह बढ़िया मिली है लेकिन शायद दिन भर में फुटेज के मिनट का कोटा फिक्स होने के चलते ही वह ज्यादा प्रयोग कैमरे की प्लेसिंग में कर नहीं पाए हैं। संदीप कुरुप ने भी जैसा जो मिला वैसा एडिट कर दिया है। कहीं से संपादन का असली कौशल सीरीज में नहीं दिखता। क्षितिज तारे का बैकग्राउंड म्यूजिक अलग से चिपकाया हुआ सा लगता है और रूपा चौरसिया सीरीज के किसी भी किरदार को कॉस्ट्यूम के लिहाज से बिहारी टच देने में सफल नहीं हो पाईं। वेब सीरीज ‘रनअवे लुगाई’ बस कहने भर को भागलपुर की कहानी है, न इसमें बिहार का रस है और न ही भागलपुर का भौकाल।