संजय मिश्रा, एक ऐसा नाम है जिन्हें देखकर ही दर्शकों के चेहरों पर मुस्कान आ जाती है। लेकिन, वह अपने प्रशंसकों को चौंकाते भी रहते हैं। फिल्म ‘वध’ में संजय ने ऐसा ही कुछ किया है और फिर इसी महीने वह अपने चिर परिचित अंदाज में दिखेंगे फिल्म ‘सर्कस’ में। संजय मिश्रा ने सिनेमा के सबक बचपन में अपने परिवार के साथ सीखे, नाटकों से उन्होंने अभिनय की बारीकियां समझीं और मुंबई आकर उन्होंने इस दुनिया को समझा। संजय मिश्रा हिंदी सिनेमा के उन गिनती के कलाकारों में हैं, जिनके लिए लेखक और निर्देशक खास तरह का सिनेमा अब भी रचने का जतन करते हैं। ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने संजय मिश्रा से खास बातचीत की।
‘वध’ में आपने जो किरदार किया है, उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता कि संजय मिश्रा को ऐसे चरित्र में भी देखा जा सकता है? इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
एक कलाकार के तौर पर जब मेरे पास कोई लेखक या निर्देशक ‘वध’ जैसी फिल्म लेकर आता है तो अच्छा लगता है। एक कलाकार का हौसला भी बढ़ जाता है कि कम से कम मेरे बारे में ऐसा कुछ सोचा तो जा रहा है। ये एक बहुत सुकून वाली बात है। मुझे अपने अंदर से महसूस होता है कि हां, मैं सही दिशा में जा रहा हूं। एक ही तरह के रोल करना मुझे भी अच्छा नहीं लगता। दिसंबर के महीने में मेरी दो फिल्में हैं, ‘वध’ और ‘सर्कस’ और दोनों बिल्कुल अलग अलग श्रेणियों की फिल्में हैं।
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और, नया करने की ललक आप में शुरू से रही है। आपके पिता सरकारी नौकरी में थे, तो कभी दबाव नहीं रहा घर में सरकारी नौकरी करने का?
मैं पहले ‘वध’ की बात बताता हूं। इस फिल्म में मेरा नाम शम्भू नाथ मिश्रा है और ये किरदार करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है क्योंकि ये मेरे पिता का नाम है तो ये फिल्म उनको ही समर्पित है। पिताजी की नौकरी में तबादले होते रहने का हमें बहुत फायदा हुआ। उनके सथ हम इधर उधर घूमते रहते थे। कभी मुझे भोपाल की संस्कृति समझने का मौका मिलता था तो कभी बनारस देखा। पटना आए तो यहां के बारे में बहुत कुछ जानने को मौका मिला। मेरे भीतर के अभिनेता को विकसित करने में इन शहरों का बहुत योगदान रहा। अलग अलग शहरों को घूमते समय हमें भी अपनी आखें खुली रखनी होती हैं कि ये शहर हमसे क्या कहना चाह रहा है। सरकारी नौकरी थी पिताजी की तो बहुत पैसा तो नहीं था लेकिन बस यही था जो करना है कर लो इसी में, सिनेमा भी देखने जाना है, परिवार को भी इसी में पालना है।
अच्छा, तो माता पिता के साथ सिनेमा देखना होता था बचपन में?
अरे बाप रे! सिनेमा वो तो ऐसा देखना होता था कि पूछो मत। एक किस्सा सुनाता हूं आपको। हम पटना में थे और फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ रिलीज हुई थी। उन्हीं दिनों बुआ की शादी होने वाली थी, तो बुआ ने मम्मी से कहा, ‘भाभी, ससुराल में पता नहीं फिर कब फिल्म देखने को मिले, ये पिक्चर दिखा लाओ हमको।’ मम्मी ने दादी से बहाना बनाया कि हम अपने मायके जा रहे हैं और रिक्शे पर मुझे, मेरे भाई औऱ बुआ को लेकर चल पड़ीं सिनेमा देखने। सिनेमाहॉल पहुंचे तो पता चला कि ये तो बच्चों के देखने के लिए है ही नहीं। हम दोनों भाई छह, सात साल के थे। इसके बाद मम्मी ने अपनी और बुआ की डेढ़ डेढ़ रुपये की टिकट खरीदी और दो रुपये रिक्शे वाले को दिए कि जब तक फिल्म खत्म न हो, इन दोनों बच्चों को शहर में घुमाते रहो। तो फिल्म देखना तो हमारे यहां उत्सव जैसा होता रहा है, ऐसा लगता था जैसे मंदिर जा रहे हैं। दो ही तो चीजें हैं इस देश में जो बाकी सबसे ध्यान बटाए रहती हैं, क्रिकेट और सिनेमा।
मतलब शहरों की गलियों का मजा आप बचपन से लेते रहे हैं और सिनेमा का भी असली आनंद तभी आता है जब कहानी जिस माहौल की है, वह माहौल परदे पर ठीक से रचा जा सके..
हां, जैसे ‘वध’ की बात करें तो करने को तो हमने इसे बनारस में ही शूट कर लिया होता लेकिन ग्वालियर की जो हमारी लोकेशन है, वहां तक कोई गाड़ी नहीं जाती थी। कोई आधा किलोमीटर पैदल चलकर लोकेशन पर पहुंचने में ही गलियां सब कुछ बता देती थीं। अब ये गलियां कुछ बोलती तो नहीं लेकिन वहां की बोली, वहां का माहौल, ऐसे ही आने जाने से समझ आता है। जैसे कभी हमने नीना गुप्ता जी से कह दिया कि चलिए गोल गप्पे खाकर आते हैं। तो शहर ऐसे ही सिनेमा में आता है, फिल्म ‘मसान’ को ही ले लीजिए, हम लोगों से ज्यादा अभिनय तो उसमें शहर ने किया है।