फिल्म 'उपकार' में काम किया, तो उससे नाम पड़ गया भारत कुमार। इसके बाद का एक किस्सा कमाल का है। मैं अपने परिवार के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गया था। वहीं, बाहर खड़े होकर मैं सिगरेट पीने लगा। तभी एक लड़की आई और मुझे बहुत जोर से डांट दिया कि आपको शर्म नहीं आती, आप भारत कुमार होकर सिगरेट पीते हैं? ये कहना है एक्टर मनोज कुमार का। अमर उजाला मनोरंजन डेस्क से बातचीत में मनोज कुमार ने ये किस्सा शेयर किया।
बकौल, मनोज कुमार, 'मेरा बचपन बहुत रोता हुआ गुजरा। आज भी याद करूं, तो जी भर आता है। आंखों के पानी को रोक लेता हूं, लेकिन दिल का रोना नहीं रोक पाता और सबसे ज्यादा खतरनाक होता है दिल का रोना। मुझे दुख था लाहौर छूटने का, ऐब्टाबाद छूटने का। फिर हम दिल्ली आ गए। यहां के हडसेन लेन में रिफ्यूजी कैंप में रहने लगे। हम तीन भाई-बहन थे। छोटा भाई दो महीने का था, जब वह और मां बीमार हुए, तो हम उन्हें दिल्ली के अस्पताल में ले गए। यहां डॉक्टरों की लापरवाही से उसका देहांत हो गया।
मैं दस साल का था। अपने भाई की मौत के बारे में सुनकर एक धक्का लगा। मैंने एक लाठी उठाई और उस समय वहां जितने डॉक्टर और नर्सें थीं, उन्हें खूब पीटा। तब तक पिता जी भी काम से लौट आए थे, उन्होंने मुझे संभाला। उसी रात उन्होंने मुझसे अपने सिर पर हाथ रखवा कर कसम दिलाई कि मैं आगे कभी नहीं लडूंगा या कोई मार-पिटाई नहीं करूंगा। धीरे-धारे वक्त बीतता चला गया। कोई पूछे कि हीरो बनने की यह कहानी कब शुरू हुई, तो राज कपूर साहब की एक फिल्म का यह डायलॉग कह देता हूं- ‘आज से सौ बरस पहले, जब मैं दस बरस का था।’ तब थोड़ा बहुत सिनेमा देखा करता था।
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राज कपूर साहब की फिल्म 'जुगनू' देखी थी। उसमें किरदार मर जाता है। फिर दिलीप कुमार साहब की फिल्म 'शहीद' देखी, उसमें भी किरदार मर जाता है। मैंने अपनी मां से पूछा-'बीजी, आदमी कितनी बार मरता है?', उन्होंने कहा, ‘एक बार।’ मैंने पूछा, ‘जो दो-तीन बार मरे वो?’ उन्होंने कहा, ‘वह फरिश्ता होता है।’ मैंने सोचा मैं फरिश्ता बनूंगा। उस समय एक फिल्म देखी थी 'शबनम', उसमें हीरो का नाम मनोज कुमार था। सोचा, जब फरिश्ता बनूंगा, तो यही नाम रखूंगा। बस, ये एक चिंगारी ही काफी थी। मैंने अपने माता-पिता से आज्ञा ली और वर्ष 1956 में मैं मुंबई आ गया।
मैं खुद को भाग्यवान मानता हूं कि मुझे अच्छी फिल्में मिलीं, लोगों ने प्यार दिया, इज्जत दी। वरना यह इंडस्ट्री तो वह इंडस्ट्री है, जहां एक समय था, जब दादा साहेब फाल्के ने एक स्टूडियो के बाहर खड़ा होकर केदार शर्मा से कहा था, 'मेरे पास काम नहीं, मुझे काम दिला दो।' मैं खुशकिस्मत हूं, लेकिन ऐसा शुरू से नहीं था। पहले बचपन में क्लास में टीचर्स ने खड़ा रखा, फिर फिल्में देखते थे, तो लाइन में खड़े रहते थे, फिर स्टूडियो जाते थे, तो गेटकीपर लाइन में खड़ा रखता था। उन दिनों निर्देशकों की बड़ी इज्जत होती थी, तो जब निर्देशक बैठे रहते थे, तो हम खड़े रहते थे। बैठने का मौका मिला, तो बहुत बाद में।