भारत में कोरोना वैक्सीन के नए मामले रोज नया रिकॉर्ड बना रहे हैं। अब एक दिन में 90 हजार से ज्यादा मामले सामने आए हैं और दुनिया में अमेरिका के बाद कोरोना संक्रमण के सबसे ज्यादा मरीज भारत में ही हैं। ऐसे में लोगों से ज्यादा सरकार को कोरोना के वैक्सीन की चिंता सता रही है। इन सब खबरों के बीच रूस की वैक्सीन स्पुतनिक-वी एक उम्मीद की किरण बन कर सामने आई है, लेकिन वाकई में क्या रूस की वैक्सीन पर उतना भरोसा किया जा सकता है।
रूस के वैज्ञानिकों ने कोरोना की वैक्सीन को लेकर पहली रिपोर्ट प्रकाशित की है। रिपोर्ट में कहा गया है पहले फेज के ट्रायल में इम्यून रेस्पॉन्स अच्छा दिखा है। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद से दुनियाभर से वैज्ञानिकों की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। मेडिकल जर्नल दि लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि इस ट्रायल में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों में कोरोना से लड़ने वाली एंटीबॉडी विकसित हुई और किसी में भी कोई भयानक साइड इफेक्ट देखने को नहीं मिला।
रूस में इस वैक्सीन को अगस्त के महीने में ही बिना डेटा जारी किए लाइसेंस दिया गया था। इसके साथ ही रूस ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया था। वैक्सीन के जानकारों के मुताबिक, रूस के वैक्सीन ट्रायल का डेटा उसकी प्रमाणिकता और सेफ्टी को साबित करने के लिए बहुत ही छोटा है। जारी की गई इस नई रिपोर्ट को रूस के आलोचकों के मुंह बंद करने की कवायद के रूप में भी देखा जा रहा है। पश्चिमी देशों के कई एक्सपर्ट की राय में रूस के वैज्ञानिक ट्रायल के दौरान कुछ जरूरी चरणों को पूरा किए बिना आगे बढ़ जा रहे हैं।
अगस्त के महीने में सिर्फ दो महीने के ट्रायल के बाद रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दावा किया है कि उनके वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस की ऐसी वैक्सीन तैयार कर ली है, जो कोरोना वायरस के खिलाफ कारगर है। गमलेया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी बेटी को भी यह टीका लगा है। रूस ने इस वैक्सीन का नाम 'स्पुतनिक वी' दिया है। रूसी भाषा में 'स्पुतनिक' शब्द का अर्थ होता है सैटेलाइट। रूस ने ही विश्व का पहला सैटेलाइट बनाया था। उसका नाम भी स्पुतनिक ही रखा था।
दि लैंसेट की रिपोर्ट में क्या कहा गया है?
दि लैंसेट की रिपोर्ट के मुताबिक, रूसी वैक्सीन स्पुतनिक-वी के दो ट्रायल जून और जुलाई में किए गए थे। दोनों ही ट्रायल के दौरान 38 स्वस्थ वॉलेंटियर को टीके लगाए गए। फिर तीन हफ्ते बाद उन्हें दोबारा बूस्टर डोज लगाए गए। ये सभी वॉलेंटियर 18 साल से 60 साल की उम्र वाले थे। इनको 42 दिनों तक निगरानी में रखा गया। तीन हफ्तों के अंदर इन वॉलेंटियर्स में एंटीबॉडी विकसित हो गई। इन वॉलेंटियर्स में सिर दर्द और जोड़ों में दर्द के अलावा कोई गंभीर साइड इफेक्ट नहीं देखा गया।
रिपोर्ट के मुताबिक, ये रैंडम ट्रायल नहीं थे। मतलब ये कि जिन वॉलेंटियर को ये टीके लगाए गए उन सबको पता था कि उन्हें टीके लगाए जा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब लंबे समय की स्टडी की जरूरत है ताकि कोरोना के खिलाफ ये वैक्सीन सेफ्टी के साथ साथ कितनी प्रभावशाली है, इसका भी पता लगाया जा सके। तीसरे चरण के ट्रायल के लिए अलग-अलग आयु वर्ग और अलग-अलग रिस्क ग्रुप के साथ 40 हजार लोगों पर इसका परीक्षण किए जाने की बात इस रिपोर्ट में कही गई है। इस वैक्सीन में इम्यून रेस्पॉन्स को जेनरेट करने के लिए अडीनोवायरस (adenovirus) की अडेप्टिव स्ट्रेन का इस्तेमाल किया गया है।
अभी लंबा सफर तय करना बाकी है
बीबीसी की स्वास्थ्य संवाददाता फिलिपा रॉक्स्बी के मुताबिक, ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने रूसी वैक्सीन के लिए 'उत्साहजनक' और 'अब तक एक अच्छी खबर' है, जैसे विशेषणों का इस्तेमाल किया है। उनके मुताबिक अभी इस वैक्सीन को लंबा सफर तय करना है। फेज-2 के ट्रायल में एंटीबॉडी रेस्पॉन्स का मतलब ये नहीं कि वायरस से बचाव में इसकी प्रामाणिकता भी साबित हो गई है। अब तक बस इतना साबित हुआ है कि 18 साल से 60 साल की उम्र वालों में 42 दिन के लिए ये वैक्सीन कोरोना से सुरक्षित रखती है, लेकिन क्या 42 दिन के बाद ये वैक्सीन कारगर साबित होगी?
60 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों में इसका क्या असर होगा? जिन लोगों को पहले से कोई दूसरी बीमारी है उन लोगों में इस वैक्सीन का कितना असर होगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनके बारे में इस रिपोर्ट में कुछ भी नहीं कहा गया है। ऐसी तमाम जानकारी हासिल करने के लिए एक बड़े ग्रुप में 'रैंडमाइज्ड ट्रायल' की जरूरत पड़ेगी, जिसमें किसी को इस बात की जानकारी न हो कि उन्हें कोरोना से बचाव के लिए टीका दिया गया है या फिर कोई डमी टीका दिया गया है। इस तरह के ट्रायल के लिए लंबा वक्त लगता है।