कोरोना वायरस के संक्रमण को हराने के लिए अभी तक टीका नहीं खोजा जा सका है। इसी वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहले ही कह दिया था कि जब तक टीका नहीं बन जाता, तब तक सोशल डिस्टेंसिंग या सामाजिक दूरी का पालन धर्म की तरह करें। डब्ल्यूएचओ की अपील के बाद ज्यादातर देशों ने लॉकडाउन और सामाजिक दूरी को अनिवार्य रूप से लागू कर दिया है।
दूसरी तरफ वैज्ञानिकों का एक समूह झुंड उन्मुक्ति (हर्ड इम्यूनिटी) के जरिये इस वायरस को काबू करने की ओर इशारा कर रहा है। कुछ लोग इस विचार का समर्थन नहीं कर रहे हैं, उनका कहना है कि हर्ड इम्यूनिटी के जरिये ज्यादा लोगों की जान को खतरा हो सकता है। आइए समझते हैं कि हर्ड इम्यूनिटी क्या होती है...
अमेरिकी हार्ट एसोसिएशन के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर एडुआर्डो सांचेज ने हर्ड इम्यूनिटी को समझाते हुए कहा कि इंसानों के किसी झुंड (अंग्रेजी में हर्ड) के ज्यादातर लोग अगर वायरस से इम्यून हो जाएं तो झुंड के बीच मौजूद अन्य लोगों तक वायरस का पहुंचना बहुत मुश्किल होता है।
एक सीमा के बाद दूसरे लोगों में वायरस के फैलने की गति भी रुक जाती है लेकिन इस प्रक्रिया में समय लगता है। एक अनुमान के मुताबिक किसी समुदाय में कोरोना के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी तभी विकसित हो सकती है जब 60 फीसद आबादी को कोरोना संक्रमण हो चुका हो और वे उससे इम्यून भी हो गए हो।
इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है कि अगर जनसंख्या का 80 फीसद हिस्सा वायरस से इम्यून हो जाता है तो हर पांच में से चार लोग संक्रमण के बावजूद भी बीमार नहीं पड़ेंगे। जिससे असुरक्षित लोगों तक वायरस के फैलने का डर कम हो जाएगा।
हर्ड इम्यूनिटी की प्रक्रिया तब अपनाई जाती है जब कुल जनसंख्या का 80-90 फीसद हिस्सा वायरस की चपेट में आ जाता है। ये लोग प्राकृतिक तरीके से बीमारी के खिलाफ इम्यूनिटी विकसित करते हैं और इसी इम्यूनिटी के जरिए ही खुद को वैक्सीन कर लेते हैं।
क्या पहले हर्ड इम्यूनिटी से संक्रमण कम हुआ है?
व्यापक टीकाकरण से दुनिया से स्मॉलपॉक्स जैसी बीमारी खत्म करने में मदद मिली, वहीं भारत समेत कई देशों से पोलियो को खत्म करने में भी टीकाकरण का बड़ा हाथ रहा है। पिछले कई दशकों से खसरा, कंठरोग और चिकनपॉक्स जैसी बीमारी से लड़ने में टीकाकरण काफी मददगार रहा है।
हर्ड इम्यूनिटी के इस्तेमाल पर कई अलग अलग विचार हैं। कुछ लोग इसके पक्ष में है तो कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं। वैज्ञानिकों की माने तो हर्ड इम्यूनिटी तब इस्तेमाल की जा सकती है जब बीमारी से लड़ने के लिए हमारे पास पहले से ही वैक्सीन हो।
वैक्सीन के ना होने की वजह से हर्ड इम्यूनिटी का इस्तेमाल करना खतरनाक हो सकता है। हर्ड इम्यूनिटी कैसे काम करती है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है...
मान लीजिए एक समुदाय के 50 लोगों में से कुछ लोग इम्यून नहीं है और बीमार हैं लेकिन दूसरी तरफ इसी समुदाय के कुछ लोग इम्यून नहीं है पर स्वस्थ हैं। अब अगर लॉकडाउन की स्थिति ना हो तो बीमार लोग धीर-धीरे स्वस्थ लोगों में संक्रमण का खतरा पैदा कर देंगे।
एक समय के बाद उस समुदाय के ज्यादातर लोग वायरस से संक्रमित हो जाएंगे और दो या चार लोग ही स्वस्थ रहेंगे। जो लोग संक्रमण से इम्यून हो जाएंगे वो दूसरे लोगों तक वायरस को फैलने से रोकेंगे। अब जैसे जैसे जनसंख्या इम्यून होती जाएगी वैसे ही संक्रमण पर काबू पा लिया जाएगा।
भारत के संदर्भ में अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के सीनियर रिसर्च स्कॉलर डॉ रामानन लक्ष्मीनारायण का कहना है कि अगर भारत की 65 फीसद आबादी कोरोना वायरस से संक्रमित होकर ठीक हो जाए तो बाकी की 35 फीसद आबादी को कोविड-19 से सुरक्षा मिल जाएगी।
रामानन लक्ष्मीनारायण ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के बुजुर्ग, दिल की बीमारी या पहले से डायबिटीज झेल रहे मरीजों की जिंदगी को खतरे में रखकर क्या हर्ड इम्यूनिटी की प्रक्रिया को अपनाया जा सकता है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो हम अभी हर्ड इम्यूनिटी के इस्तेमाल से काफी दूर हैं। चीन, फ्रांस और जर्मनी समेत कई देशों में कोरोना से अभी तक कुल आबादी की 2-14 प्रतिशत आबादी ही संक्रमित हुई है।
अगर कोरोना वायरस से लड़ने के लिए हर्ड इम्यूनिटी का इस्तेमाल करना है तो ज्यादा से ज्यादा लोगों में कोरोना के संक्रमण को फैलाना होगा जिससे उनका शरीर वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बना विकसित कर सके।
जब तक वैक्सीन का निर्माण ना हो जाए तब तक सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़भाड़ वाले इलाकों पर सख्ती जैसे कदमों को अपनाकर ही कोरोना से लड़ा जा सकता है। कम से कम एक से दो साल के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को अपनाना होगा ताकि वायरस की दूसरी लहर से बचा जा सके।
कोरोना वायरस के संक्रमण को हराने के लिए अभी तक टीका नहीं खोजा जा सका है। इसी वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहले ही कह दिया था कि जब तक टीका नहीं बन जाता, तब तक सोशल डिस्टेंसिंग या सामाजिक दूरी का पालन धर्म की तरह करें। डब्ल्यूएचओ की अपील के बाद ज्यादातर देशों ने लॉकडाउन और सामाजिक दूरी को अनिवार्य रूप से लागू कर दिया है।
दूसरी तरफ वैज्ञानिकों का एक समूह झुंड उन्मुक्ति (हर्ड इम्यूनिटी) के जरिये इस वायरस को काबू करने की ओर इशारा कर रहा है। कुछ लोग इस विचार का समर्थन नहीं कर रहे हैं, उनका कहना है कि हर्ड इम्यूनिटी के जरिये ज्यादा लोगों की जान को खतरा हो सकता है। आइए समझते हैं कि हर्ड इम्यूनिटी क्या होती है...
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क्या है हर्ड इम्यूनिटी (झुंड उन्मुक्ति)
अमेरिकी हार्ट एसोसिएशन के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर एडुआर्डो सांचेज ने हर्ड इम्यूनिटी को समझाते हुए कहा कि इंसानों के किसी झुंड (अंग्रेजी में हर्ड) के ज्यादातर लोग अगर वायरस से इम्यून हो जाएं तो झुंड के बीच मौजूद अन्य लोगों तक वायरस का पहुंचना बहुत मुश्किल होता है।
एक सीमा के बाद दूसरे लोगों में वायरस के फैलने की गति भी रुक जाती है लेकिन इस प्रक्रिया में समय लगता है। एक अनुमान के मुताबिक किसी समुदाय में कोरोना के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी तभी विकसित हो सकती है जब 60 फीसद आबादी को कोरोना संक्रमण हो चुका हो और वे उससे इम्यून भी हो गए हो।
इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है कि अगर जनसंख्या का 80 फीसद हिस्सा वायरस से इम्यून हो जाता है तो हर पांच में से चार लोग संक्रमण के बावजूद भी बीमार नहीं पड़ेंगे। जिससे असुरक्षित लोगों तक वायरस के फैलने का डर कम हो जाएगा।
हर्ड इम्यूनिटी की स्थिति कब पैदा होती है?
हर्ड इम्यूनिटी की प्रक्रिया तब अपनाई जाती है जब कुल जनसंख्या का 80-90 फीसद हिस्सा वायरस की चपेट में आ जाता है। ये लोग प्राकृतिक तरीके से बीमारी के खिलाफ इम्यूनिटी विकसित करते हैं और इसी इम्यूनिटी के जरिए ही खुद को वैक्सीन कर लेते हैं।
क्या पहले हर्ड इम्यूनिटी से संक्रमण कम हुआ है?
व्यापक टीकाकरण से दुनिया से स्मॉलपॉक्स जैसी बीमारी खत्म करने में मदद मिली, वहीं भारत समेत कई देशों से पोलियो को खत्म करने में भी टीकाकरण का बड़ा हाथ रहा है। पिछले कई दशकों से खसरा, कंठरोग और चिकनपॉक्स जैसी बीमारी से लड़ने में टीकाकरण काफी मददगार रहा है।
हर्ड इम्यूनिटी कैसे काम करती है?
हर्ड इम्यूनिटी के इस्तेमाल पर कई अलग अलग विचार हैं। कुछ लोग इसके पक्ष में है तो कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं। वैज्ञानिकों की माने तो हर्ड इम्यूनिटी तब इस्तेमाल की जा सकती है जब बीमारी से लड़ने के लिए हमारे पास पहले से ही वैक्सीन हो।
वैक्सीन के ना होने की वजह से हर्ड इम्यूनिटी का इस्तेमाल करना खतरनाक हो सकता है। हर्ड इम्यूनिटी कैसे काम करती है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है...
मान लीजिए एक समुदाय के 50 लोगों में से कुछ लोग इम्यून नहीं है और बीमार हैं लेकिन दूसरी तरफ इसी समुदाय के कुछ लोग इम्यून नहीं है पर स्वस्थ हैं। अब अगर लॉकडाउन की स्थिति ना हो तो बीमार लोग धीर-धीरे स्वस्थ लोगों में संक्रमण का खतरा पैदा कर देंगे।
एक समय के बाद उस समुदाय के ज्यादातर लोग वायरस से संक्रमित हो जाएंगे और दो या चार लोग ही स्वस्थ रहेंगे। जो लोग संक्रमण से इम्यून हो जाएंगे वो दूसरे लोगों तक वायरस को फैलने से रोकेंगे। अब जैसे जैसे जनसंख्या इम्यून होती जाएगी वैसे ही संक्रमण पर काबू पा लिया जाएगा।
भारत के संदर्भ में अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के सीनियर रिसर्च स्कॉलर डॉ रामानन लक्ष्मीनारायण का कहना है कि अगर भारत की 65 फीसद आबादी कोरोना वायरस से संक्रमित होकर ठीक हो जाए तो बाकी की 35 फीसद आबादी को कोविड-19 से सुरक्षा मिल जाएगी।
रामानन लक्ष्मीनारायण ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के बुजुर्ग, दिल की बीमारी या पहले से डायबिटीज झेल रहे मरीजों की जिंदगी को खतरे में रखकर क्या हर्ड इम्यूनिटी की प्रक्रिया को अपनाया जा सकता है?
कोरोना के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी कब विकसित कर सकते हैं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो हम अभी हर्ड इम्यूनिटी के इस्तेमाल से काफी दूर हैं। चीन, फ्रांस और जर्मनी समेत कई देशों में कोरोना से अभी तक कुल आबादी की 2-14 प्रतिशत आबादी ही संक्रमित हुई है।
अगर कोरोना वायरस से लड़ने के लिए हर्ड इम्यूनिटी का इस्तेमाल करना है तो ज्यादा से ज्यादा लोगों में कोरोना के संक्रमण को फैलाना होगा जिससे उनका शरीर वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बना विकसित कर सके।
जब तक वैक्सीन का निर्माण ना हो जाए तब तक सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़भाड़ वाले इलाकों पर सख्ती जैसे कदमों को अपनाकर ही कोरोना से लड़ा जा सकता है। कम से कम एक से दो साल के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को अपनाना होगा ताकि वायरस की दूसरी लहर से बचा जा सके।