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शोले की वो बारीकियां, जिसने इसे बनाया 'कल्ट क्लासिक'
'शोले' मसाला फिल्म थी, पश्चिम की 'स्पैगेटी वैस्टर्न' जैसी। वैश्विक सिनेमा मे 'कल्ट क्लासिक' का दर्जा पा चुकी यह फिल्म कथानक के स्तर पर पश्चिमी सिनेमा से जितनी प्रभावित थी, उतनी ही भारतीय महाकाव्यों, किंवदंतियों और कथा-रुढ़ियों से। बाल्मिकी रामायण में ऋषि विश्वामित्र ने राक्षसों के दमन के लिए राम और लक्ष्मण का सहयोग लिया था, सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी की 'शोले' में ठाकुर बलदेव सिंह ने डाकू गब्बर सिंह को मारने के लिए जय और वीरू का।
40 वर्षों तक 'शोले' ने अपनी रोचकता बरकरार रखी है तो इसका बड़ा कारण मुहावरों का रूप ले चुके इसके संवाद और लोककथाओं में तब्दील हो गए उपकथानक हैं। 'शोले' एक्शन, कॉमेडी, रोमांस, ड्रामा और मेलोड्रामा का मिश्रण है। यह दावा करना कठिन है कि यह भारत की पहली मसाला फिल्म है, लेकिन यह सोलह आना सच है कि यह भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय मसाला फिल्म है। थियेटरों में चलने और कमाई, दोनों ही स्तर पर भारत में बनी कोई भी फिल्म 'शोले' के आसपास नहीं ठहरती।
'शोले' ने इंडियन न्यू वेव के बरअक्स मुख्य धारा के हिंदी सिनेमा में नए युग की शुरुआत की। शेखर कपूर ने एक साक्षात्कार में कहा था कि भारतीय सिनेमा के इतिहास को 'बिफोर शोले' और 'आफ्टर शोले' दो युगों में बांटा जा सकता है।
संवाद, संगीत, तकनीक और विधा के मायनों में शोले ने मील के पत्थर बना दिए। अमेरिका और यूरोपीय सिनेमा के मशहूर जॉनर 'स्पैगेटी वेस्टर्न' की तर्ज पर शोले ने भारत में 'करी वेस्टर्न' फिल्मों का चलन शुरु किया। मल्टी स्टारर फिल्मों का नया दौर शुरु हुआ। शोले ने हिंदी सिनेमा को नया व्याकरण दिया।
हिंदी सिनेमा का 'नया विलेन'
मदर इंडिया का बिरजू (1957), जिस देश में गंगा बहती है का राका (1960), मेरा गांव मेरा देश का जब्बर सिंह (1971) या कच्चे धागे का ठाकुर लक्ष्मण सिंह (1973), हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए डकैत नए नहीं थे। 1975 में आई 'शोले' का डाकू गब्बर सिंह इन डकैतों से बिलकुल अलग था।
मैनरिज्म और कॉस्ट्यूम में हिंदी सिनेमा के पिछले सभी डकैतों से गब्बर अलग था, उसके चरित्र का फलसफा भी हिंदी सिनेमा के विलेन जैसा नहीं था। मदर इंडिया, जिस देश में गंगा बहती है और मेरा गांव मेरा देश की धारणा थी कि डकैत हालात की उपज होते हैं। गब्बर का फलसफा ही क्रूरता थी।
सलीम-जावेद ने एक ऐसा चरित्र गढ़ा था, जिसने किसी मकसद के लिए डकैती को नहीं चुना, बल्कि उसका मकसद ही डकैती थी। बिरजू का रोमांटिक शेड, राका का नर्म दिल और जब्बर की खूबसूरती गब्बर में नहीं थी। वह हिंदी सिनेमा का 'नया विलेन' था।
पथरीले भरकों में गंदी कमीज, बढ़ी हुई दाढ़ी, खैनी चबाकर पिच्च से थूकता गब्बर सौंदर्यशास्त्र के उस खांचे में नहीं ढाला गया था, जिस खांचे में हिंदी सिनेमा के उस समय तक के विलेन गढे़ गए थे। वह फूहड़ और सैडिस्टिक था। गब्बर ने हिंदी सिनेमा की खल-चरित्र को नया आयाम दिया।
लो-एंगल कैमरा, लेमोटिफ और लालटेन
'कितने आदमी थे?', 'अब तेरा क्या होगा कालिया?', 'जो डर गया, समझो मर गया।' जैसे संवादों को अमजद खान की अदायगी, आवाज में घुला सेडिज्म और आरडी बर्मन के ध्वनि प्रभावों ने दर्शकों के जहन में पैबस्त कर दिया।
लगभग 204 मिनट की फिल्म में 66 मिनट बाद गब्बर सिंह की एंट्री हिंदी सिनेमा में विलेन का अतिप्रभावशाली इंट्रोडक्शन सीन माना जाता है। कल्पनाशीलता, कैमरा वर्क, संगीत प्रभाव और अभिनय के पैमाने पर वह दृश्य कालातीत है। कैमरे को पैन कर गब्बर की मांद का भूगोल दिखाना और उसके बाद कालिया और रामगढ़ गए उसके आदमियों के चेहरे का खौफ, रमेश सिप्पी ने पहले शॉट में ही ये स्थापित कर दिया था कि हिंदी सिनेमा का सबसे क्रूर चरित्र जन्म ले चुका है।
लो-एंगल कैमरे के जरिए गब्बर की ताकतवर शख्सियत को स्थापित किया गया। सिनेमाहाल के अंधेरे में बैठा दर्शक गब्बर का खौफ महसूस कर सके, इसके लिए आरडी बर्मन ने लेमोटिफ का इस्तेमाल किया है। हिंदी सिनेमा में लेमोटिफ का प्रयोग नया था। एक ऐसा लेमोटिफ, जो विलेन की एंट्री का संकेत था। बाद में ये प्रयोग कई हिंदी फिल्मों में दोहराया गया। अनिरुद्घ भट्टाचारजी और बालाजी विट्ठल ने अपनी किताब 'आरडी बर्मनः द मैन, द म्यूजिक' में लिखा है कि गब्बर के लेमोटिफ के लिए आरडी बर्मन ने सेलो और हाइड्रोफोन म्यूजिक का प्रयोग किया।
रामगढ़ के बियावानों में गब्बर की पृष्ठभूमि में गूंजती वह स्वरलहरियां खून को जमा देने जैसा आभास देती हैं। अमिताभ बच्चन के मनोभावों को पर्दे पर उकेरने के लिए भी लेमोटिफ का प्रयोग किया गया है। ठाकुर की हवेली में ढलती शाम, लालटेन की रोशनी को मद्घम करती राधा यानी जया भादुड़ी और जय के माउथ आर्गन की स्वर लहरियां।
लालटेन के मद्घम होती रोशनी और माउथ आर्गन की स्वरलहरियों, राधा और जय के मनोभावों का प्रतीक हैं। रमेश सिप्पी ने संगीत और रोशनी के जरिए जय और राधा के प्रेम का रूपक तैयार किया है। वीरू और बसंती के 'वाचाल प्रेम' के समानांतर ही स्वरविहीन प्रेम। लेमोटिफ से मनोभावों का प्रदर्शित करने का जैसा प्रयोग शोले में किया गया है, वैसा प्रयोग क्वांतिन तारंतिनों ने किल बिल-2 में बिल की फ्लूट के जरिए किया है।
दो घोड़े, गिटार और बकरी का मिमियाना
शोले का ओपनिंग सीन लगभग चार मिनट का है और आश्चर्यजनक ढंग से कैमरे का पहला टेक ही एक मिनट का है। पहले लंबे टेक के बाद शॉट दर शॅाट रामगढ़ का भूगोल, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का वर्णन क्रेडिट सीन में ही दिया गया है।
'वेस्टर्न' फिल्मों में बस्तियों की बसाहट, मकानों की बनावट और बाजारों के जरिए किसी शहर के वर्गीय चरित्र को दिखाने की परंपरा थी, रमेश सिप्पी ने दो घुड़सवारों की यात्रा के जरिए रामगढ़ के उस पथरीले उच्चावच, जहां डकैतों का ठिकाना है, और ग्रामीण परिवेश का बारीक ब्योरा दिया। रामगढ़ का वर्गीय चरित्र भी वही है। उन पथरीले भरकों का एक ऐसा हिस्सा जहां मेहनतकश ग्रामीण हैं और दूसरा ऐसा हिस्सा जहां उनकी मेहनते के लुटेरे डकैत।
क्रेडिट सीन में दिया आरडी बर्मन का टाइटल म्यूजिक भी उतना ही मशहूर है, जितना की शोले और उसके पात्र। गिटार और मृदंग की आवृत्तियों का बकरी के मिमियाने से अंत कर आरडी बर्मन ने शोले के उस परिवेश को भी तय किया, जिसमें गब्बर का आतंक है। रामगढ़, पठारों के बीच एक गांव जहां ठाकुर है, बसंती है, रहीम चाचा, मौसी, राधा, अहमद, काशीराम, धौलिया और राम लाल है। और गब्बर है, जिसका पचास-पचास कोस तक खौफ है।
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