पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी ने एक भावानात्मक खुलासा करते हुए कहा कि 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान उनका घर जलाया जाने वाला था, लेकिन तभी एक घटना हुई जिससे उनका घर जलते-जलते बच गया। उग्र भीड़ अशोक विहार स्थित उनके घर पहुंची और उनके घर को जलाने की कोशिश करे लगी थी।
दमन ने कहा कि ऐसी भयानक घटना को सहने के बाद भी मेरे पिता को 2005 में संसद में इन दंगों के लिए माफी मांगनी पड़ी। ये क्षण्ा उनके लिए बहुत ही मुश्किल था। दमन के मुताबिक मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए भाषणों में यह सबसे प्रभावी भाषण था।
दमन ने यह बात करन थापर से एक टीवी शो के दौरान कही। दमन ने माना कि उनके पिता को अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए। उन्होंने आगे बताया कि कैसे उनका घर सिख दंगों के दौरान जलते-जलते बचा।
दमन ने अपनी किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल: मनमोहन एंड गुरुशरण' में सिख दंगों पर भी चर्चा की है। उन्होंने बताया कि जब उनके घर हमला हुआ तो उनके पिता आरबीआई के गवर्नर थे और उस वक्त मुंबई में थे। जब अशोक विहार स्थित उनके घर पर हमला हुआ तो उनकी बहन और उनके पति भी वहां मौजू थे। जिनकी जल्द ही शादी हुई थी।
जब दंगे शुरू हुए तो अशोक विहार प्रभावित इलाकों में से एक था। दंगाइयों की भीड़ हमारे घर के दरवाजे पर पहुंची और गेट से अंदर घुसने की कोशिश करने लगी।
तभी मेरी बहन के पति बाहर गए। यह महज इत्तेफाक है कि वो सिख नहीं हैं। वो भीड़ से बात करने लगे और समझाया कि न तो वह सिख हैं और न ही ये किसी सिख का घर है। उनके समझाने के बाद ही भीड़ वहां से गई।
दमने ने कहा कि दुख की बात ये थी कि भीड़ में कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें हम जानते थे। भले ही वो हमारे दोस्त नहीं थे लेकिन उन्हें हम जानते थे।
रविवार को बुक रिलीज के एक दिन पहले उन्होंने मीडिया से बात करते हुए कहा कि उन्हें दुख है कि उनके पिता के दस साल के शासन के बाद उनकी सरकार को ऐसा जनमत मिला।
दमन ने माना कि इस जनमत से उन्हें दुख तो हुआ लेकिन जनमत का सम्मान किया जाना ही लोकतंत्र की परंपरा है।
दमन ने करन थापर के शो 'नथिंग बट द ट्रूथ' में इस बात का खुलासा करते हुए कहा कि उनके परिवार को इस लोकसभा परिणाम से दुख हुआ क्योंकि उनके पिता ने कड़ी मेहनत की थी।
आगे पढ़िए दमन सिंह द्वारा किताब पर किए गए खुलासे की पूरी कहानी
उस समय अर्थव्यवस्था बहुत ही बुरे हाल में थी। आर्थिक नीति में जो भी आमूल बदलाव किए गए उनके आइडिया भले ही मेरे पिता ने दिए थे, लेकिन वो सब नरसिंहाराव जी की वजह से अमल में लाए जा सके। मेरे पिता हमेशा कहते थे कि वो एक अल्पमत सरकार थी जिसने देश के अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा हमेशा के लिए बदल दिया।
मेरे पिता को लगता है कि अगर उनके पास पांच साल और होते तो वो और भी बहुत कुछ कर सकते थे। उनका कहना है कि भारत में तब तक कोई बदलाव लाना मुश्किल है जब तक व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त न हो जाए। लोकतंत्र में व्यवस्था ऐसे ही चलती है।
लोगों पर ऊपर से कोई क्रांतिकारी फैसला थोपा नहीं जा सकता। जब उन्होंने बदलावों की शुरूआत की तो कांग्रेस पार्टी में ही उनको विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें लगातार लोगों को यह समझाना पड़ता था कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं। नरसिंहाराव लगातार पार्टी को इस बारे में सूचित करते रहते थे।
जब उनसे ये पूछा गया कि बदलाव लाने के दौरान उनके पिता पर पार्टी के लोगों
ने हमला भी किया तो उन्होंने कहा कि सी सुब्रमनयम मेरे पिता के प्रशंसक थे।
किताब लिखने के दौरान मुझे पता चला कि उन्होंने हरित क्रांति को आगे
बढ़ाना चाहा था, लेकिन उन्हें अमेरिका का एजेंट कहा गया।
सुब्रमनयम
अपनी सीट हार गए। पथ प्रदर्शकों को कभी भी उनका उचित सम्मान नहीं मिलता और
न ही कभी उनको याद किया जाता है। दमन से जब ये पूछा गया कि क्या उन्हें
लगता है कि उनके पिता राजनीति के लिए सही आदमी नहीं हैं तो उन्होंने कहा कि
मुझे नहीं लगता कि वो राजनीति के लिए सही व्यक्ति नहीं हैं,
लेकिन राजनीतिक जोड़-तोड़ करना उन्हें नहीं आता।
वो अवसरवादी नहीं हैं।
लेकिन फिर भी वो राजनीति कर सके, क्या इसे उनकी सफलता नहीं कहा जाना चाहिए।
उन्हें अनिच्छुक राजनीतिज्ञ कहना भी गलत है क्योंकि उन्हें चुनौतियों से
खेलना अच्छा लगता है और वो खतरों से खेलते हैं।
1991 में जब वो वित्त मंत्री बने तो एक बड़ा खतरा मोल लिया। देश में
आर्थिक बदलाव लाने के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी भर कमाई हुई प्रतिष्ठा दांव
पर लगा दी। दरअसल वो एक युद्घ जैसी स्थिती थी जिसमें उन्होंने एक बड़ा
दांव खेला।
संजय बारू और नटवर सिंह की किताब पर कमेंट करते हुए
उन्होंने जवाब दिया कि मैंने दोनों ही किताबें पढ़ी नहीं हैं। दरअसल
राजनीति पर लिखी किताबें पढ़ने में मुझे कोई रूचि नहीं है। मैंने ये किताब
लिखी है क्योंकि मैं अपने मां-बाप को एक व्यक्तित्व के तौर पर जानना चाहती
थी। मुझे लगता है कि अपने जीवन के अनुभवों के बारे में अपनी बेटी से बात
करते हुए उन्हें अच्छा लगा होगा।
मेरी मां उनके साथ-साथ चलने वाली शक्ति हैं न कि उनके पीछे खड़ी शक्ति।
मेरी मां को लोगों के बीच रहना अच्छा लगता है और उन्होंने पूरे जीवन मेरे
पिता का खयाल रखा। जबकि मेरे पिता जुनूनी हैं। उन्होंने अपने हर दायित्व को
पूरी ईमानदारी से निभाया, चाहे वो वित्त मंत्री रहे हों या आबीआई के
गवर्नर। उन्हें अपने किसी भी काम पर पछतावा नहीं है।
दमन ने अपनी किताब में लिखा है कि 2005 से 2009 के बीच उनके परिवार को हंसने का मौका नहीं मिला, क्योंकि जिस परिस्थिती में उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया वो बेहद असाधारण थी। असल में वो ऐसी किसी परिस्थिती के लिए तैयार भी नहीं थे।
बहुत जल्द ही उन्हें एक सक्षम टीम बनाकर काम शुरू करना था। गठबंधन के सरकार की अपनी ही मजबूरियां होती हैं। एक सिविल सर्वेंट होने और प्रधानमंत्री होने में बहुत फर्क होता है। ऐसे में परिवार के लिए समय निकाल पाना मुश्किल था।
जब सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे और वह विवादों में आए तो क्या परिवार ने उन्हें पीएम पद छोड़ने के लिए कहा। इस सवाल के जवाब में दमन ने कहा कि हां इस बारे में परिवार में लोगों की जुदा राय थी, लेकिन व्यक्तिगत चीजें और राजनीति दो अलग बातें होती हैं। लेकिन हां हम इन बातों को लेकर चिंतित थे।
कहा जाता है कि जब अपराधी एमपी पर सरकार के फैसले पर राहुल गांधी ने विरोध किया तो परिवार चाहता था कि मनमोहन सिंह इस्तीफा दे दें। इस पर दमन ने कहा कि उस वक्त मेरे पिता विदेश में थे। ऐसा नहीं है कि घटनाएं उन्हें प्रभावित नहीं करतीं। वो भी हमारी आपकी तरह ही एक इंसान हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर बात पर प्रतिक्रिया दी जाए।
जब वो वित्त मंत्री थे तब भी उनकी आलोचना होती रहती थी। उन्हें अमेरिका का एजेंट तक कहा गया। उनके में ये काबिलियत है कि वो इन चीजों से प्रभावित नहीं होते, लेकिन मुझे ये सब बुरा लगता है। मैं अखबार नहीं पढ़ती और टीवी पर भी न्यूज नहीं देखती लेकिन ये सब बातें मेरे बेटे तक पहुंचती हैं जो बहुत दुख देती हैं।
मनमोहन और इंदिरा गांधी के संबंधों पर दमन ने कहा कि इंदिरा गांधी ने उन्हें सम्मान दिया। अपनी सरकार में वो शक्ति का केंद्र होती थीं, लेकिन वो लगातार मेरे पिता से बातचीत करती थीं और उनके विचारों और सलाह को सुनती थीं। हालांकि सोनिया गांधी से मनमोहन सिंह के संबंधों पर दमन ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी।
राजीव गांधी ने प्लानिंग कमीशन को जोकरों का समुह कहा था और माना जाता है कि उनका इशारा मनमोहन सिंह की ओर था। इस पर दमन ने कहा कि मेरे पिता उस वक्त वहां नहीं थे। हालांकि ऐसी बहुत सी खबरें मीडिया में आई थीं।
जब उनसे पूछा गया कि क्या भ्रष्टाचार पर वो खुद को असहाय पाती हैं तो उन्होंने कहा कि जब मैं ये किताब लिख रही थी तो मैंने भ्रष्टाचार पर उनसे लंबी बात की। उन्होंने मुझे बताया कि जब वो दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स से पढ़ कर निकले और विदेश व्यापार विभाग में काम करने गए तो उन्हें पता चला कि उस विभाग के मंत्री पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाया जाता था।
लेकिन मेरे पिता ने कहा कि बिना सबूत के मैं किसी को दोषी नहीं मानता। बाद में एच एम पटेल जिनकी मेरे पिता प्रशंसा करते हैं पर कई झूठे आरोप लगे, उन्हें परेशान किया गया और अंत में उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
मेरे पिता को इस बात का बेहद दुख है कि इतने योग्य सिविल सर्वेंट के साथ ऐसा बर्ताव हुआ। मेरे पिता अक्सर कहते हैं कि राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार को पैदा नहीं करती बल्कि चुनाव के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है।
जब आखिरी में उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है कि इतिहास उनके पिता को कैसे देखेगा तो दमन ने कहा कि मैं अपने पिता को पीड़ित की तरह नहीं देखती। वो शुद्घ अंतरात्मा वाले एक मजबूत और योग्य व्यक्ति हैं।
दस साल का उनका प्रधानमंत्रित्वकाल उनके 40 साल की पब्लिक सर्विस का एक हिस्सा भर है। हो सकता है लोग उनकी विरासत को आज न समझ सकें, लेकिन उन्होंने जो किया है वो अमूल्य है।
जब दमन से ये सवाल पूछा गया कि उनके प्रधानमंत्रित्वकाल पर आपने किताब क्यों नहीं लिखी तो उन्होंने कहा कि ऐसी किताब सिर्फ वो ही लिख सकते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी ने एक भावानात्मक खुलासा करते हुए कहा कि 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान उनका घर जलाया जाने वाला था, लेकिन तभी एक घटना हुई जिससे उनका घर जलते-जलते बच गया। उग्र भीड़ अशोक विहार स्थित उनके घर पहुंची और उनके घर को जलाने की कोशिश करे लगी थी।
दमन ने कहा कि ऐसी भयानक घटना को सहने के बाद भी मेरे पिता को 2005 में संसद में इन दंगों के लिए माफी मांगनी पड़ी। ये क्षण्ा उनके लिए बहुत ही मुश्किल था। दमन के मुताबिक मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए भाषणों में यह सबसे प्रभावी भाषण था।
दमन ने यह बात करन थापर से एक टीवी शो के दौरान कही। दमन ने माना कि उनके पिता को अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए। उन्होंने आगे बताया कि कैसे उनका घर सिख दंगों के दौरान जलते-जलते बचा।