उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से अति संवेदनशील राज्य है। राज्य गठन के 21 वर्षों में आपदाओं ने भी राजनीति को धार दी। जब-जब राज्य पर आपदाओं ने कहर बरपाया, राजनीतिक दलों ने इसे एक-दूसरे पर निशाना साधने के लिए हथियार बनाया। लेकिन, राज्य के लिए नासूर बन चुकी इन आपदाओं के जख्मों का मरहम तलाशने के लिए कभी भी किसी राजनीतिक दल ने चुनावी मुद्दा नहीं बनाया।
प्राकृतिक आपदाएं हमें हर साल नए जख्म देती हैं
प्रकृति के प्रकोप से जुड़ीं यह सब बातें राजनीतिक दलों के जेहन में हैं, लेकिन वह इनसे निपटने की नीतियों को अपने घोषणापत्र में शामिल नहीं करती हैं। प्राकृतिक आपदाएं हमें हर साल नए जख्म देती हैं। हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान होता है। हजारों लोग प्रभावित होते हैं और सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। आज भी सैकड़ों गांव संवेदनशील और अति संवेदनशील श्रेणी में हैं। चार सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जाना है। हर साल सड़कें, पुल, बिजली की लाइनें, पानी की लाइनें बह जाती हैं या मलबे में दब जाती हैं। सैकड़ों गांवों का जिला मुख्यालय से कई-कई दिनों तक संपर्क कट जाता है। एक आपदा आती है, अभी हम उससे हुए नुकसान की भरपाई तो दूर उसका ठीक से आकलन भी नहीं कर पाते, तब तक दूसरी आपदा आ जाती है। यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है।
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राज्य गठन के बाद से इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हुई। कई बार आपदाएं सियासत में वार-पलटवार का हथियार बनीं। सड़क से लेकर विधानसभा के पटल पर इसे लेकर बहस भी होती रही। राजनीतिक दल सवाल तो उठाते रहे, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। राजनीतिक दलों के स्तर पर इन आपदाओं से निपटने, इनकी मारकता को कम करने, इनके न्यूनीकरण के संबंध में आज तक कोई ठोस रणनीति नहीं बनी।
वर्ष 2013 की आपदा में बह गई बहुगुणा की कुर्सी
वर्ष 2013 की प्राकृतिक आपदा ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया। केदारनाथ सहित पूरी घाटी में भयानक तबाही हुई। उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार पर आपदा से निपटने में नाकाम रहने के आरोप लगे। सरकार की खूब फजीहत हुई। इसके बाद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। सरकार की कमान नए मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने संभाली। इसके बाद उनका पूरा फोकस केदारनाथ पुनर्निर्माण पर रहा।
वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन से जुड़े विभाग का गठन
उत्तराखंड को देश में ऐसे राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसने पहली बार अपने राज्य में वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया है। इस विभाग के गठन के बाद आपदाओं के न्यूनीकरण और उससे निपटने के इंतजामों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन हालात अभी भी बहुत अच्छे नहीं हैं।
नियम 310 के तहत विधानसभा में चर्चा
वर्ष 2013 की आपदा के बाद राज्य की विधानसभा में मानसून सत्र के दौरान पहली बार इस मुद्दे पर नियम 310 के तहत विशेष चर्चा की गई। आमतौर पर सत्ता में बैठी सरकारें सत्र के दौरान इस मुद्दे पर चर्चा करने से बचती हैं, लेकिन पूरे दिन आपदा के मुद्दे पर चर्चा की गई थी।
आपदा से निपटने को दो महत्वपूर्ण समझौते
बीते माह 10 नवंबर को भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (आईआईआरएस) और उत्तराखंड राज्य आपदा प्राधिकरण (यूएसडीएमए) के मध्य दो महत्वपूर्ण एमओयू हुए। जिसके तहत भारतीय सुदूर संस्थान अंतरिक्ष और भौगोलिक सूचना प्रणाली के तहत होने वाली सतत विकास से संबंधी गतिविधियों को लेकर आपदा प्रबंधन के अधिकारियों एवं कार्मिकों को प्रशिक्षित करेगा और हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित ग्लेशियरों, हिमस्खलन, भू-स्खलन इत्यादि के खतरों की सैटेलाइट के माध्यम से सतत निगरानी कर खतरों से पूर्व राज्य को सूचना उपलब्ध कराएगा। जानकारों का कहना है कि इन दो महत्वपूर्ण समझौतों के बाद राज्य में विभिन्न आपदाओं से निपटने में काफी मदद मिलेगी।
अक्तूबर की आपदा बनेगी चुनाव में मुद्दा
बीते अक्तूबर में कुमाऊं क्षेत्र में आई आपदा ने प्रदेश के सियासी माहौल को अब तक गरमा रखा है। आपदा के बाद पीड़ित लोगों का दर्द जानने और उनकी पीड़ा को कम करने को लेकर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच होड़ मची है। दोनों दलों के नेता आपदा पीड़ितों के साथ खड़े होने का दावा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर उनके मंत्रिमंडल के तमाम सदस्यों सहित विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने ताबड़तोड़ दौरे भी किए। लेकिन आपदा पीड़ितों को कितनी राहत मिल पाई, यह किसी से छिपी नहीं है। साफ की आने वाले चुनाव में अक्तूबर की आपदा बड़ा मुद्दा बनेगी।
400 से अधिक गांव खतरे की जद में
उत्तराखंड में आपदा के कारण 400 से अधिक गांव चिह्नित किए गए हैं। आने वाली सरकार के लिए इन गांवों को पुन: बसाना बड़ी चुनौती है। सरकार पहले चरण में अत्यधिक संवेदनशील गांवों का पुनर्वास कर रही है। वर्ष 2011 में आपदा के बाद प्रभावित गांवों व परिवारों की पुनर्वास नीति के तहत वर्ष 2017 से पहले दो गांवों के 11 परिवारों का पुनर्वास हुआ था। वर्ष 2017 के बाद से 81 गांवों के 1436 परिवारों को पुनर्वासित किया गया। गढ़वाल मंडल के चमोली के 15 गांवों के 279 परिवार, उत्तरकाशी के पांच गावों के 205 परिवार, टिहरी के 10 गांवों के 429 परिवार और रुद्रप्रयाग के 10 गांवों के 136 परिवार पुनर्वासित किए गए। कुमाऊं मंडल में पिथौरागढ़ के 31 गांवों के 321 परिवार, बागेश्वर के नौ गांवों के 68 परिवार, नैनीताल के एक गांव का एक परिवार और अल्मोड़ा जिले के दो गांवों के आठ परिवार विस्थापित किए गए।
दबाव बनाना चाहिए कि क्या काम करेंगे
हम जिस प्रदेश में रहते हैं, उसकी प्रकृति अलग तरह की है। हम आपदाओं के साथ जीते हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियां पर्यावरण के महत्व को नहीं समझ पा रही हैं। लोग भी संजीदा नहीं हैं। आपदा से पीड़ित लोग ही चुनाव के समय ऐसे मुद्दों से मुंह फेर लेते हैं। जबकि उनके लिए वही सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए। दूसरा यह भी देखने को मिलता है कि जिस क्षेत्र में आपदा आती है, वहां के लोग तो इस मुद्दे को उठाते हैं, लेकिन दूसरे क्षेत्रों के लोगों के लिए यह मुद्दा नहीं रहता। जबकि सभी लोगों को इस मुद्दे पर राजनीतिक पार्टियों को साधने का काम करना चाहिए। दबाव बनाना चाहिए कि वह अपने घोषणापत्र में क्षेत्र विशेष ही सही, आपदा से पीड़ित लोगों, पुनर्वास और इसके न्यूनीकरण के लिए क्या काम करेंगे।
- पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, पर्यावरणविद
आमतौर पर राजनीतिक दल मानते हैं कि चुनाव धर्म, जाति, भाषा, प्रांत जैसे मुद्दों पर जीत जाते हैं। पैसे बांटने और तमाम तरह के प्रलोभन भी दिए जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में तस्वीर बदली है। जनता मतदान के समय अब मुद्दों पर बात करना पसंद करती है। उत्तराखंड में महंगाई, सुरक्षा व्यवस्था, सुशासन, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के साथ प्राकृतिक आपदाएं भी एक बड़ा मुद्दा है। इसलिए राजनीतिक पार्टियां चाहकर भी इससे भाग नहीं सकती हैं। जनता मूक भले ही हो, पर बुद्धिहीन नहीं होती। केदारनाथ आपदा के समय विजय बहुगुणा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे तो भाजपा वाले उनके आपदा नियंत्रण की असफलता और आपदा राहत में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर टूट पड़ी थी। अब बहुगुणा भाजपा में हैं तो सब चुप हैं। लेकिन क्या जनता की स्मृति से ऐसी बातें निकल जाती होंगी? मुझे नहीं लगता।
- डॉ. मुकुंद चंद जोशी, शिक्षक एवं सामाजिक विचारक
यह एक सामान्य सी बात है कि आपदा से प्रभावित लोगों की अपेक्षा सरकार से सर्वाधिक होती है। लोगों की निगाह में सरकार एक साधन संपन्न तंत्र है, जो हर किसी की मुसीबत के अवसर पर मदद कर सकती है। यह अपेक्षा गलत भी नहीं है, क्योंकि हमेशा सरकार इस तरह का वातावरण बनाती है कि वह लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है और उनकी हर तरह की मदद करेगी। लेकिन अकसर ऐसा हो नहीं पाता है। मतलब सर्वाधिक आबादी तक मदद नहीं पहुंच पाती है। आपदाएं अप्रत्याशित होती हैं, लेकिन इनसे निपटने के लिए पूर्व में तैयारियां की जा सकती हैं। पार्टियों को अपने घोषणापत्रों में इसका जिक्र करते हुए स्पष्ट करना चाहिए कि वह आपदाओं से निपटने या इनके न्यूनीकरण के लिए क्या इंतजाम करेंगी।
- डॉ. अजय कुमार बियानी, पूर्व प्राचार्य, डीबीएस पीजी कॉलेज
आपदाओं से निपटने में सरकारों की तैयारियां दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती हैं। राज्य के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के साथ विकास के नाम पर भी खिलवाड़ किया जा रहा है। आपदाओं ने इस हिमालयी क्षेत्र की पर्यावरणीय स्थिरता को और अधिक जर्जर बना दिया है। जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद फरवरी 2021 की ऋषि गंगा त्रासदी इस बात का प्रमाण है। हमारे राजनीतिक वर्ग को आपदाओं से सबक लेते हुए जहां भविष्य की नीति निर्धारण करनी चाहिए, लेकिन इसके विपरीत दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि आपदाओं को अवसर बना निहित स्वार्थ और राजनीतिक रोटियां तक सेंकने से भी परहेज नहीं किया जाता है।
- डॉ. हेमंत ध्यानी, पर्यावरणविद एवं सदस्य हाईपावर कमेटी चारधाम परियोजना
आज जब जलवायु परिवर्तन की तलवार जब पूरी मानव सभ्यता के ऊपर लटकी है, इस खतरे को दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिक कोट रेड फॉर ह्यूमैनिटी घोषित कर चुके हैं। राज्य ने इसी साल ऋषि गंगा और फिर नैनीताल, कुमाऊं में सर्दियों के मौसम में आई बाढ़ के तौर पर जलवायु परिवर्तन का नजारा भी देख लिया। इसके बाद भी किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में जलवायु परिवर्तन को लेकर, राज्य के पर्यावरण संरक्षण को लेकर नीतिगत रूप से कोई बिंदु न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब भी समय है, जब राजनीतिक दलों को इस विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए।
- डॉ.अशोक कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजकीय महाविद्यालय, चिन्यालीसौड़, उत्तरकाशी
...तो आने वाली पीढ़ियां भुगतेंगी नुकसान
आपदा के किसी मुद्दे पर सरकार अगर खुद को घिरता देखती है तो बचने के लिए आनन फानन में घोषणा कर इतिश्री कर दी जाती है। इसके बाद मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। बीते वर्ष विधानसभा सत्र के दौरान सौंग नदी की बाढ़ से सुरक्षा के लिए अलग से बजट की घोषणा की गई थी, लेकिन सौंग नदी से वर्षा में होने वाली बाढ़ की स्थिति पहले से भी अधिक बिगड़ गई है। सुरक्षा तटबंधों की फाइल आज भी इधर से उधर घूम रही है। पर्यावरण से जुड़े इन मुद्दों का अगर राजनीतिक दल अपने घोषणापत्रों में शामिल नहीं करते हैं, तो इसका नुकसान आनी वाली पीढ़ियां भी भुगतेंगी।
- विनोद जुगलान, पर्यावरणविद
प्राकृतिक आपदाएं राज्य में बड़ा विषय हैं। निश्चित तौर पर इन पर बात होनी चाहिए। लेकिन चूंकि यह अकल्पनीय होती हैं, इसलिए इन पर पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता है। जहां तक मेनिफेस्टों में आपदा से जुड़े मुद्दों को शामिल करने की बात है तो राहत राशि इत्यादि को लेकर बातें तो शामिल की गईं हैं, लेकिन आपदा से जुड़े दूसरे विषय गौण ही रहे हैं। हम इस बार के घोषणापत्र को तैयार कर रहे हैं। इस विषय में भी कुछ सुझाव आए हैं। देखते हैं उनका क्या अंतिम प्रारूप निकलकर आता है। वैसे एनडीआरएफ और एसडीआरएफ का गठन ही आपदाओं की दृष्टि को ध्यान में रखकर किया गया है।
- नव प्रभात, पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस मेनिफेस्टों कमेटी के अध्यक्ष
यह उत्तराखंड की बदकिस्मती रही कि आपदा के मामले में संवेदनशील राज्य होने के बावजूद भाजपा और कांग्रेस ने कभी आपदा को लेकर ठोस नीति नहीं बनाई। मैंने 2013 के दंश को करीब से महसूस किया है। हमारी सरकार आते ही संवेदनशील व अति संवेदनशील पहाड़ों को चिन्हित करते हुए आपदा को कम करने के लिए ठोस और बेहतर काम किया जाएगा। इसके लिए होमवर्क किया जा रहा है।
- कर्नल (सेनि.) अजय कोठियाल, नेता आम आदमी पार्टी
उत्तराखंड में आपदाएं बहुत बड़ी चुनौती है। हर साल प्राकृतिक आपदाओं में अरबों की संपत्ति को नुकसान होता है। जनहानि भी होती है। भाजपा इस बेहद संवेदनशील मुद्दे को लेकर गंभीर है। पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में इस विषय को सबसे प्रमुख मुद्दों में शामिल करेंगे।
- मदन कौशिक, प्रदेश अध्यक्ष, भाजपा
आपदा में अब तक हुए नुकसान का जायजा
- वर्ष 2001 : फाटा और ब्यूंग गाड़ भूस्खलन में 21 लोग मारे गए।
- वर्ष 2002 : बूढ़ाकेदार भू-स्खलन में 28 व्यक्तियों की मौत हुई।
- वर्ष 2003 : 18 अगस्त को भारत-नेपाल सीमा पर काली घाटी में भू-स्खलन के कारण 250 से अधिक की मौत। कैलाश मानसरोवर यात्रा के 12वें दल के अधिकांश सदस्यों की मृत्यु हुई, प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी मरने वालों में शामिल थीं।
- वर्ष 2005 : गोविंदघाट भू-स्खलन में 11 लोग मारे गए थे।
- वर्ष 2008: 17 जुलाई को पिथौरागढ़ में थल से दिल्ली जा रही बस में चंपावत जनपद में सूखीढांग के निकट आमरू बैंड (राष्ट्रीय राजमार्ग 125) पर भू-स्खलन से 17 लोगों की मौत हुई थी।
- वर्ष 2009 : पिथौरागढ़ की मुनस्यारी तहसील में ला-झेकला, चाचना व रूमीडाला में हुए भू-स्खलन के कारण 43 व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
- वर्ष 2010 : में अल्मोड़ा शहर के नजदीक स्थित बाल्टा व देवली में भू-स्खलन के कारण 36 व्यक्तियों की मौत।
- वर्ष 2010 : बागेश्वर की कपकोट तहसील के अंतर्गत सुमगढ़ में प्राथमिक के भू-स्खलन के चपेट में आने से 18 विद्यार्थियों की मृत्यु।
- वर्ष 2010 : भूस्खलन के कारण रुद्रप्रयाग जनपद के किमाणा और गिरिया में 69 व्यक्तियों की मृत्यु।
- वर्ष 2012 : उत्तरकाशी जनपद में असीगंगा में भू-स्खलन के कारण रुके पानी के रिसाव से आई बाढ़ में 32 व्यक्तियों की मृत्यु।
- वर्ष 2013 : केदारनाथ सहित मंदाकिनी घाटी के कई शहरों व गांवों में भारी विनाश से आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक चार हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए या लापता हुए थे, 14 व 15 अगस्त को पौड़ी गढ़वाल की यमकेश्वर तहसील के विभिन्न स्थानों पर भारी वर्षा के साथ हुए भूस्खलन में 14 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी।
- वर्ष 2016 : जनपद देहरादून में त्यूनी में हुए भू-स्खलन से 10 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी, पिथौरागढ़ जनपद की मुनस्यारी व बेरीनाग तहसीलों में बस्तड़ी, नौला रिंगोलिया, चर्मा व नाचनी में हुए भू-स्खलन के कारण 25 व्यक्तियों को मृत्यु हुई थी।
- वर्ष 2021 फरवरी में चमोली जिले में ग्लेश्यिर टूटने से धौलीगंगा-ऋषिगंगा में आई बाढ़ में दो सौ से अधिक लोगों की मौत हुई थी, ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को बड़ा नुकसान हुआ था।
- वर्ष 2021 मानसून सीजन के खत्म होने के बाद अक्तूबर माह में तीन दिन भारी बारिश के बाद कुमाऊं में 80 के करीब लोग मारे गए थे।
विस्तार
उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से अति संवेदनशील राज्य है। राज्य गठन के 21 वर्षों में आपदाओं ने भी राजनीति को धार दी। जब-जब राज्य पर आपदाओं ने कहर बरपाया, राजनीतिक दलों ने इसे एक-दूसरे पर निशाना साधने के लिए हथियार बनाया। लेकिन, राज्य के लिए नासूर बन चुकी इन आपदाओं के जख्मों का मरहम तलाशने के लिए कभी भी किसी राजनीतिक दल ने चुनावी मुद्दा नहीं बनाया।
प्राकृतिक आपदाएं हमें हर साल नए जख्म देती हैं
प्रकृति के प्रकोप से जुड़ीं यह सब बातें राजनीतिक दलों के जेहन में हैं, लेकिन वह इनसे निपटने की नीतियों को अपने घोषणापत्र में शामिल नहीं करती हैं। प्राकृतिक आपदाएं हमें हर साल नए जख्म देती हैं। हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान होता है। हजारों लोग प्रभावित होते हैं और सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। आज भी सैकड़ों गांव संवेदनशील और अति संवेदनशील श्रेणी में हैं। चार सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जाना है। हर साल सड़कें, पुल, बिजली की लाइनें, पानी की लाइनें बह जाती हैं या मलबे में दब जाती हैं। सैकड़ों गांवों का जिला मुख्यालय से कई-कई दिनों तक संपर्क कट जाता है। एक आपदा आती है, अभी हम उससे हुए नुकसान की भरपाई तो दूर उसका ठीक से आकलन भी नहीं कर पाते, तब तक दूसरी आपदा आ जाती है। यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है।
उत्तराखंड सत्ता संग्राम 2022: पीएम मोदी के दौरे के जवाब में देहरादून आएंगे राहुल गांधी, इस दिन होगी रैली
राज्य गठन के बाद से इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हुई। कई बार आपदाएं सियासत में वार-पलटवार का हथियार बनीं। सड़क से लेकर विधानसभा के पटल पर इसे लेकर बहस भी होती रही। राजनीतिक दल सवाल तो उठाते रहे, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। राजनीतिक दलों के स्तर पर इन आपदाओं से निपटने, इनकी मारकता को कम करने, इनके न्यूनीकरण के संबंध में आज तक कोई ठोस रणनीति नहीं बनी।
वर्ष 2013 की आपदा में बह गई बहुगुणा की कुर्सी
वर्ष 2013 की प्राकृतिक आपदा ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया। केदारनाथ सहित पूरी घाटी में भयानक तबाही हुई। उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार पर आपदा से निपटने में नाकाम रहने के आरोप लगे। सरकार की खूब फजीहत हुई। इसके बाद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। सरकार की कमान नए मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने संभाली। इसके बाद उनका पूरा फोकस केदारनाथ पुनर्निर्माण पर रहा।
वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन से जुड़े विभाग का गठन
उत्तराखंड को देश में ऐसे राज्य का दर्जा प्राप्त है, जिसने पहली बार अपने राज्य में वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया है। इस विभाग के गठन के बाद आपदाओं के न्यूनीकरण और उससे निपटने के इंतजामों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन हालात अभी भी बहुत अच्छे नहीं हैं।
नियम 310 के तहत विधानसभा में चर्चा
वर्ष 2013 की आपदा के बाद राज्य की विधानसभा में मानसून सत्र के दौरान पहली बार इस मुद्दे पर नियम 310 के तहत विशेष चर्चा की गई। आमतौर पर सत्ता में बैठी सरकारें सत्र के दौरान इस मुद्दे पर चर्चा करने से बचती हैं, लेकिन पूरे दिन आपदा के मुद्दे पर चर्चा की गई थी।
आपदा से निपटने को दो महत्वपूर्ण समझौते
बीते माह 10 नवंबर को भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (आईआईआरएस) और उत्तराखंड राज्य आपदा प्राधिकरण (यूएसडीएमए) के मध्य दो महत्वपूर्ण एमओयू हुए। जिसके तहत भारतीय सुदूर संस्थान अंतरिक्ष और भौगोलिक सूचना प्रणाली के तहत होने वाली सतत विकास से संबंधी गतिविधियों को लेकर आपदा प्रबंधन के अधिकारियों एवं कार्मिकों को प्रशिक्षित करेगा और हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित ग्लेशियरों, हिमस्खलन, भू-स्खलन इत्यादि के खतरों की सैटेलाइट के माध्यम से सतत निगरानी कर खतरों से पूर्व राज्य को सूचना उपलब्ध कराएगा। जानकारों का कहना है कि इन दो महत्वपूर्ण समझौतों के बाद राज्य में विभिन्न आपदाओं से निपटने में काफी मदद मिलेगी।
अक्तूबर की आपदा बनेगी चुनाव में मुद्दा
बीते अक्तूबर में कुमाऊं क्षेत्र में आई आपदा ने प्रदेश के सियासी माहौल को अब तक गरमा रखा है। आपदा के बाद पीड़ित लोगों का दर्द जानने और उनकी पीड़ा को कम करने को लेकर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच होड़ मची है। दोनों दलों के नेता आपदा पीड़ितों के साथ खड़े होने का दावा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर उनके मंत्रिमंडल के तमाम सदस्यों सहित विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने ताबड़तोड़ दौरे भी किए। लेकिन आपदा पीड़ितों को कितनी राहत मिल पाई, यह किसी से छिपी नहीं है। साफ की आने वाले चुनाव में अक्तूबर की आपदा बड़ा मुद्दा बनेगी।