राजस्थान के नागौर जिले से 50 किलो मीटर दूर अजमेर-नागौर मार्ग पर कुचेरा के पास बुटाटी धाम है। इस गांव में करीब 600 साल पहले संत चतुरदास जी महाराज का जन्म हुआ था। चारण कुल में जन्मे वह एक महान सिद्ध योगी थे। वह अपनी सिद्धियों से लकवा के रोगियों को रोगमुक्त कर देते थे। इस मंदिर में आज भी इसका उदाहरण देखने को मिलता है। आज भी यहां पर लोग लकवे से मुक्त होने के लिए संत की समाधी पर सात फेरे लगाते हैं। एकादशी और द्वादशी के दिन बुटाटी धाम में लकवा मरीजों और अन्य श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।
मान्यता है कि इस मंदिर में सात दिन तक आरती-परिक्रमा करने से लकवा की बीमारी से परेशान मरीज ठीक हो जाता है। जनआस्था के इस केंद्र की ख्याति देश ही नहीं विदेशों तक हैं। लकवे से ग्रस्ति मरीजों को उनके परिजन धाम लेकर आते हैं। लोगों का दावा है कि 7 दिन फेरे (परिक्रमा) देने के बाद लकवे का असर खत्म हो जाता है। साथ ही कुछ लोगों को 90 फीसदी तक लाभ मिलता है।
कहां है बुटाटी धाम?
बुटाटी धाम मंदिर नागौर जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर नागौर-अजमेर हाइवे पर डेगाना तहसील में स्थित है। धाम के सबसे निकट रेलवे स्टेशन मेड़ता रोड़ है जो करीब 45 किलोमीटर दूरी पर है। मरीजों और उनके परिजनों को रुकने के लिए धाम में व्यवस्था की गई है। यहां आने वाले हजारों लोग और मरीज धाम परिसर में ही ठहरते हैं।
क्या हैं लकवा ग्रस्त मरीजों के नियम?
बुटाटी धाम में लकवे के मरीजों और उनके परिजनों को केवल सात दिन और रात रुकने की अनुमति होती है। ज्यादा दिन रुकने पर मंदिर प्रबंधक समिति जाने के लिए कह देती है। इसका कारण जानने के लिए अमर उजाला की टीम ने मंदिर प्रबंधक समिति के अध्यक्ष शिव सिंह से बात की तो उन्होंने बताया कि यहां पर नए लोग आते रहते हैं। पुराने लोग अगर समय पर नहीं जाएंगे तो नए मरीजों को जगह मिलने में समस्या होगी। हमारी कोशिश रहती है कि यहां आने वाले मरीजों और उनके परिजनों को किसी तरह की परेशानी न हो। इसलिए सात दिन बाद मरीजों को जाने के लिए कह देते हैं। उन्होंने बताया कि यहां आने वाले मरीजों का सबसे पहले रजिस्ट्रेशन किया जाता है। उसके बाद उसे निशुल्क राशन सामग्री दी जाती है और दर्ज तारीख के अनुसार 7 दिन में जगह खाली करनी होती है। ऐसा नहीं करने वालो से जाने का आग्रह भी करते हैं।
विदेशों से भी आते हैं मरीज
प्रबंधक समिति के अध्यक्ष शिव सिंह ने बताया कि धाम में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया अफगानिस्तान सहित अन्य देशों से भी लकवे की बीमारी से परेशान मरीज आते हैं। मंदिर समिति द्वारा किसी तरह का प्रचार प्रसार नहीं किया जाता है। लोगों के जरिए ही एक दूसरे को पता चलता है। पिछले कई साल से लोग अपनी आस्था के कारण यहां आ रहे हैं।
धाम की धार्मिक कहानी
बुटाटी धाम मंदिर को लेकर एक कहानी प्रचलित है। बताया जाता है कि करीब 600 साल पहले यहां चतुरदास जी नाम के संत थे। उनके पास 500 से अधिक बीघा जमीन थी जो उन्होंने दान कर दी और आरोग्य की तपस्या करने चले गए। सिद्धि प्राप्त करने के बाद वह यहां वापस आए और समाधि ले ली। उस स्थल पर ही यह मंदिर बना हुआ है।
मंदिर कमेटी की ओर से की गईं हैं यह व्यवस्थाएं
- मरीजों को मंदिर की ओर से भोजन और आवास की नि:शुल्क व्यवस्था की जाती है।
- मंदिर में लोग सात दिन रुक सकते हैं। उनसे रहने-खाने का शुल्क नहीं लिया जाता।
- करीब 90 प्रतिशत लोग अपने ठिकाने पर ही गैस या चूल्हे पर भोजन आदि बनाते हैं।
- प्रतिदिन सुबह साढ़े पांच बजे और शाम को साढ़े छह बजे आरती होती है, जिसमें मरीजों-परिजनों का आना अनिवार्य है।
- परिसर में लकवा ग्रस्त मरीजों के 300 व्हील चेयर की व्यवस्था है।
- एकादशी पर यहां सर्वाधिक भीड़ उमड़ती है। इस दिन की आरती का भी विशेष महत्व माना जाता है।
दर्द की कहानी, मरीजों की जुबानी
- राजस्थान के जयपुर जिले के रहने वाले मोनू सिंह ने बताया की उसे 10 साल पहले पैरालिसिस हुआ था। उसके आधे शरीर ने काम करना बंद कर दिया था। परिवार के लोग उसे बुटाटी धाम लेकर गए। चार दिन वहां रहने के बाद वह 95 फीसदी ठीक हो गया था।
- पुणे के रहने वाले फतुफ मास्टर ने बताया की वह अपने घर में बैठे थे। अचानक शरीर ने काम करना बंद कर दिया। बेटे उन्हें अस्पताल लेकर गए जहां डॉक्टरों ने पैरालिसिस होने की जानकारी दी। इस दौरान उनके बेटे ने यह बात अपने दोस्त को बताई तो उसने बुटाटी धाम के बारे में बताया, पहले तो परिवार के लोगों ने विश्वास नहीं किया, लेकिन बाद में हम वहां चले गए। परिक्रमा करने के बाद पांच दिन मे ही काफी आराम मिल गया। जिसके बाद हम वापस आ गए।
- राजस्थान के जोधपुर के रहने वाले ओम प्रकाश ने बताया कि वह लगवा ग्रस्त हो गया था। परिवार के साथ बुटाटी धाम गया। 7 दिन तक सुबह और शाम परिक्रमा लगाने के बाद ठीक हो गया।