श्रीमद्भगवद्गीता जिसे सम्मान से गीतोपनिषद् भी कहा जाता है, भारतीय धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सार है। जो वेदज्ञान नहीं पा सकते, दर्शन और उपनिषद् का स्वाध्याय नहीं कर सकते; भगवद्गीता उनके लिए अतुल्य सम्बल है। जीवन के उस मोड़ पर जब व्यक्ति स्वयं को द्वन्द्वों तथा चुनौतियों से घिरा हुआ पाता है और कर्तव्य-अकर्तव्य के असमंजस में फंस जाता है; भगवद्गीता उसका हाथ थामती है और मार्गदर्शन करती है।
गीता से गांधी को मिलता था मुश्किलों का हल
गीता नित्य और सनातन सन्देश है, जिसकी महत्ता इतिहास के तमाम झंझावातों से गुजरती हुई आज तक यथावत् है। जब-जब कोई कर्तव्यनिष्ठ साधक व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यावसायिक या ऐसे किसी विचारव्यूह में उलझता है तो महात्मा गांधी की तरह उसे भी रास्ता इसी उपदेश से मिलता है। गांधीजी का कहना था कि ‘जब कभी संदेह मुझे घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है; मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूं। इसमें मुझे अवश्य ही एक छन्द मिल जाता है जो मुझे सान्त्वना देता है। तब मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ।’
श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच कुल 45 मिनट हुई थी बातचीत!
गीता रणभूमि की विकट परिस्थितियों में अध्यात्म और कर्तव्य की प्रेरणा का अनूठा उपदेश है। इतिहास के जानकारों और शोधकर्ताओं के अनुसार 18 फरवरी 5115 ईसापूर्व रविवार को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच कुल 45 मिनट बातचीत हुई थी, जिसे ‘जय’ नामक काव्य में 72 पद्यों के माध्यम से व्यक्त किया गया था। हालांकि आज इसके विस्तृत संस्करण ‘महाभारत’ में यह ज्ञान 18 अध्यायों और 700 श्लोकों में वर्णित हैं। भीष्मपर्व के अध्याय 25 से 42 में वर्णित इस उपदेश को ‘गीता’, ‘भगवद्गीता’ या ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ नामों से जाना जाता है। यद्यपि इस उपदेश का लक्ष्य अर्जुन को कर्तव्य पालन के लिए उत्प्रेरित करना था; लेकिन अपने उद्भव से आज तक यह अपने उपासकों को जीवन के तमाम संशयों से उबरने का रास्ता सुझाती रही है।
गीता को लेकर आइंस्टाइन को इस बात का था अफसोस
कलेवर के मामले में गीता महज 700 श्लोकों में सीमित है, लेकिन अपने कथ्य और प्रभाव में यह किसी महाकाव्य से कम नहीं है। इस प्रभाव का वर्णन अल्बर्ट आइंस्टाइन से बेहतर कौन कर सकता है, जिन्हें अफसोस था कि वे अपने यौवन में इस ग्रन्थ के बारे में नहीं जान सके; नहीं तो उनके जीवन की दिशा कुछ और होती। उनका वक्तव्य है कि ‘जब मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं तो इसके अलावा सबकुछ मुझे काफी उथला लगता है।’
सभी आध्यात्मिक परंपराओं में है स्वीकार्य
भगवद्गीता भारत की सभी धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक परम्पराओं में सहज स्वीकार्य है। सांख्य, योग, वेदान्त के तो अनेक रहस्य इसके श्लोकों में समाहित हैं ही; न्याय, वैशेषिक और मीमांसा के सूत्रों की व्याख्या भी यहाँ उपलब्ध हो जाती है। यह वेद से लेकर दर्शनों के सिद्धान्तों और उपनिषद से पुराणों तक की कथावस्तु को अपने में समेटे हुए है। न इसका किसी मत से विरोध है और न किसी सिद्धान्त से वैमनस्य। अपने तार्किक सिद्धान्तों और व्यावहारिक उपदेशों से गीता भारत से बाहर भी मान्य और सम्मानित है। 1785 में चाल्र्स विल्किंस द्वारा पहले अंग्रेजी अनुवाद के बाद से 1982 तक गीता के 75 भाषाओं में 1982 अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। यही गीता की विश्वव्यापी स्वीकृति का प्रमाण है। विश्व जनमानस को भारतीय दर्शन और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस काव्य का अध्ययन और अध्यापन आज आॅक्सफोर्ड, हार्वर्ड और बर्कले जैसे अग्रणी विश्वविद्यालयों में किया जा रहा है।