ये वाकया 112 साल पुराना है। रूस के साइबेरिया इलाके में एक बहुत ही भयानक विस्फोट हुआ था। ये धमाका पोडकामेन्नया तुंगुस्का नदी के पास हुआ था। इस ब्लास्ट से आग का जो गोला उठा उसके बारे में कहा जाता है कि ये 50 से 100 मीटर चौड़ा था। इसने इलाके के टैगा जंगलों के करीब 2 हजार वर्ग मीटर इलाके को पल भर में राख कर दिया था। धमाके की वजह से 8 करोड़ पेड़ जल गए थे।
साइबेरिया में 112 साल पहले हुए इस धमाके में इतनी ताकत थी कि धरती कांप उठी थी। जहां धमाका हुआ वहां से करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित कस्बे के घरों की खिड़कियां टूट गई थीं। वहां के लोगों तक को इस धमाके से निकली गर्मी महसूस हुई थी। कुछ लोग तो उछलकर दूर जा गिरे थे।
सैकड़ों रेंडियर कंकाल में तब्दील
किस्मत से जिस इलाके में ये भयंकर धमाका हुआ, वहां पर आबादी बेहद कम या न के बराबर थी। आधिकारिक रूप से इस धमाके में सिर्फ एक गड़ेरिए के मारे जाने की तस्दीक की गई थी। वो धमाके की वजह से एक पेड़ से जा टकराया था और उसी में फंसकर रह गया था। इस ब्लास्ट की वजह से सैकड़ों रेंडियर कंकाल में तब्दील हो गए थे। उस धमाके के गवाह रहे एक शख्स ने बताया था कि, 'जंगल के ऊपर का आसमान मानो दो हिस्सों में बंट गया था। ऐसा लग रहा था कि आकाश में आग लग गई है। ऐसा लगा कि जमीन से कोई चीज टकराई है। इसके बाद पत्थरों की बारिश और गोलियां चलने की आवाजें आई थीं'।
धमाके के राज से पर्दा नहीं हटा
दुनिया इसे 'तुंगुस्का विस्फोट' के नाम से जानती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस धमाके से इतनी ऊर्जा पैदा हुई थी कि ये हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से 185 गुना ज्यादा थी। कई वैज्ञानिक तो ये मानते हैं कि धमाका इससे भी ज्यादा ताकतवर था। इस धमाके से जमीन के अंदर जो हलचल मची थी, उसे हजारों किलोमीटर दूर ब्रिटेन तक में दर्ज किया गया था।
आज 112 साल बाद भी इस धमाके के राज से पूरी तरह से पर्दा नहीं हट सका है। आज भी वैज्ञानिक अपने-अपने हिसाब से इस धमाके की वजह पर अटकलें ही लगा रहे हैं। बहुत से लोगों को लगता है कि उस दिन तुंगुस्का में कोई उल्कापिंड या धूमकेतु धरती से टकराया था। ये धमाका उसी का नतीजा था। हालांकि इस टक्कर के कोई बड़े सबूत इलाके में नहीं मिलते हैं। बाहरी चट्टान के सुराग भी वहां नहीं मिले। असल में साइबेरिया का तुंगुस्का इलाका बेहद दुर्गम है। वहां की आबो-हवा भी भी अजीबो-गरीब है। यहां सर्दियां बेहद भयानक और लंबी होती हैं। गर्मी का मौसम बहुत कम वक्त तके लिए आता है। इस दौरान जमीन दलदली हो जाती है। इसी वजह से वहां पहुंचना बहुत मुश्किल होता है।
20 साल बाद भी धमाके के निशान मिले
धमाका होने के कई साल बाद तक वहां इसकी पड़ताल के लिए कोई नहीं गया। उस दौर में रूस में सियासी उथल-पुथल चल रही थी। इसलिए धमाके को किसी ने गंभीरता से लिया भी नहीं। अमेरिका के एरिजोना स्थित प्लेनेटरी साइंस इंस्टीट्यूट की नतालिया आर्तेमिएवा कहती हैं कि धमाके के दो दशक बाद 1927 में लियोनिद कुलिक नाम के वैज्ञानिक की अगुवाई में एक रूसी टीम ने तुंगुस्का इलाके का दौरा किया। लियोनिद को धमाके के 6 साल बाद एक अखबार में इसकी खबर पढ़ने को मिली थी। जिसके बाद लियोनिद ने उस इलाके में जाने का फैसला किया।
20 साल बाद भी वहां पहुंचने पर लियोनिद को धमाके के निशान बिखरे हुए मिले। करीब पचास वर्ग किलोमीटर के दायरे मे जले हुए पेड़ पड़े हुए थे। लियोनिद ने कहा कि धरती से कोई चीज आसमान से आकर टकराई थी। ये ब्लास्ट उसी का नतीजा था।
टक्कर ने धरती पर निशान नहीं छोड़े
लेकिन, लियोनिद इस बात से हैरान था कि इस टक्कर की वजह से धरती पर कोई गड्ढा नहीं बना था। इस सवाल के जवाब मे लियोनिद ने ही कहा कि चूंकि इलाके की जमीन दलदली थी। इसलिए जो झटका टक्कर से लगा, उससे कोई निशान नहीं बना। 1938 में तुंगुस्का विस्फोट के बारे में लियोनिद कुलिक ने लिखा कि, 'हमें उम्मीद है कि धरती से 25 मीटर की गहराई में निकेल-युक्त लोहे के टुकड़े मिलेंगे। इनका वजन एक या दो सौ मीट्रिक टन हो सकता है'।
बाद में कुछ रूसी रिसर्चर्स ने कहा कि उस दिन तुंगुस्का में धरती से कोई उल्कापिंड नहीं बल्कि एक धूमकेतु टकराया था। असल में धूमकेतु चट्टानों के बजाय बर्फ से बने होते हैं। इसी वजह से इस टक्कर के बाद किसी बाहरी चट्टान के टुकड़े वहां पर नहीं मिले। धूमकेतु जब धरती के वायुमंडल में आया होगा तो बर्फ पिघलने लगी होगी। मगर इस थ्योरी से भी तुंगुस्का धमाके को लेकर अटकलों का दौर खत्म नहीं हुआ। क्योंकि धमाके की असल ठोस वजह अब तक पता नहीं चल सकी है।