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Prahlad Kakar Birthday EXCLUSIVE: शुक्र है कि मुंहफट होने का कोई खामियाजा अब तक मुझे नहीं भुगतना पड़ा है...

अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई Published by: पलक शुक्ला Updated Fri, 24 Mar 2023 06:32 PM IST
सार

नौकरी मांगने आने वालों में से अपनी तारीफ करने वालों को वह सबसे पहले बाहर कर देते हैं। 72 साल की उम्र में भी चुस्त चौकस दिखने वाले प्रह्लाद कक्कड़ से उनके जन्मदिन के मौके पर एक खास बातचीत।

Prahlad Kakar exclusive interview on his birthday eve about his struggle filmmaking lacadives shyam benegal
प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

विस्तार
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खुद को देहरादून का बच्चा मानने वाले फिल्मकार प्रह्लाद कक्कड़ का पूरा जीवन फकीरी की ऐसी मिसाल है जो कामयाबी पाने का मंत्र भी बन जाती है। नौकरी मांगने आने वालों में से अपनी तारीफ करने वालों को वह सबसे पहले बाहर कर देते हैं। 72 साल की उम्र में भी चुस्त चौकस दिखने वाले प्रह्लाद कक्कड़ से उनके जन्मदिन के मौके पर एक खास बातचीत।

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
73 साल का आपका जीवन और इसमें से 50 साल से ज्यादा आपने लोगों को रिझाने में बिताए हैं, किस तरह देखते हैं अपनी इस यात्रा को? मैं अब भी मेले में घूमता एक छोटा बच्चा हूं। मुझे जिंदगी के हर रंग में खिंचाव नजर आता है। मेले में वो बड़ा वाला झूला देखा है ना, जायंट व्हील! वही मेरा जीवन आदर्श है। अगर  जिन्दगी में उतार चढ़ाव न हों तो जीवन का कोई मतलब नहीं है। काम को कभी बोझ नहीं बनने देना चाहिए। जिस काम में आप लगे हुए हैं, उसमें मन नहीं लग रहा तो उसे छोड़िए, नया काम पकड़िए। सपनों से समझौता कभी मत करिए, यही जीवन का असली उद्देश्य होना चाहिए।

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
और, आपको कब लगा कि आपका मन काम में नहीं लग रहा? पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक में बढ़िया नौकरी मिल गई थी। घर में सब बहुत खुश। सबको लगा कि बेटा जिंदगी में ‘सेटल’ हो गया। मैं दफ्तर गया तो यूं लगा कि सब एक दायरे में बंधे हुए हैं, एक जैसी ही दिक्कतों से जूझते हुए। मेरा तो थोड़े दिन में ही मन ऊबने लगा। मैं देहरादून में पला हुआ बच्चा हूं। जंगलों की फकीरी मुझे भाती है। दीवारों में बंधना मेरे बस का नहीं। बस, नौकरी छोड़ दी।

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
फिर विज्ञापनों की दुनिया में आने की कोई कहानी.. नौकरी छोड़ने के बाद मैं दिल्ली में घूम रहा था तो एक बगीचे में कुछ लोग खाना खाते दिखे। सबके चेहरों पर एक अलग ही खुशी, एक अलग ही संतोष झलक रहा था। मुझे बहुत अच्छा लगा। बात चली तो पता चला कि ये विज्ञापन की दुनिया के लोग हैं। मैं उनके साथ ही उनके कार्यालय चला गया। देखा सुना, एडवरटाइजिंग में क्या काम होता है, ये भी जाना। इसके बाद उन लोगों ने मुझसे बात की और उसी दिन मुझे 350 रुपये महीने की नौकरी भी दे दी। वहां के दफ्तर के चपरासी का वेतन तब मुझसे ज्यादा था, लेकिन काम मेरे मन का लगा तो मैंने हां कर दी।

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के सबसे काबिल शागिर्दों में आपका नाम लिया जाता है, उनके बारे में कुछ कहना चाहेंगे? मैं आज जहां हूं। जो कुछ भी मैंने जीवन में पाया है। वह सिर्फ और सिर्फ श्याम बेनेगल की वजह से ही है। सच पूछें तो मैं खुद को इस लायक भी नहीं समझता कि उनके साथ मेरा नाम लिया जाए। मैंने उनके साथ आंख मूंदकर काम किया है। उन्होंने मुझे ठोंक ठोंककर घड़ा बनाया है। जब तक उनके साथ काम किया। कभी कोई सवाल नहीं किया। वह बोलते थे और मैं उसे कर देता था। अब मेरी टीम में भी जो लोग होते हैं, उनके साथ भी मेरी ट्यूनिंग यही रहती है।  

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
बात मन मुताबिक काम की चल रही थी, तो इतने सारे प्रयोग आपने इसी सबके चलते किए? हां, जिस काम में भी मेरा मन नहीं लगा, वह मैंने नहीं किया और जो मन को भा गया उसे जरूर किया। फिल्ममेकिंग में मन नहीं लगा तो रेस्तरां खोल लिया। या मन किया तो लक्षद्वीप चला गया और वहां स्कूबा डाइविंग का स्कूल खोल दिया। ये स्कूल मैंने जब खोला थो देश में अधिकतर लोगों को पता ही नहीं था कि लक्षद्वीप है कहां? दफ्तर में हमारे एक किचन हुआ करता था। जब शूटिंग नहीं होती थी तो हम सब मिलकर खाना बनाते थे और इसमें इतना स्वाद आया कि लगा कि रेस्तरां खोलना चाहिए तो खोल दिया। मेरी जिंदगी ऐसी ही रही है जिस काम में जब तक मजा आए, करो नहीं तो कुछ और करो।

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

एक फीचर फिल्म और एक विज्ञापन फिल्म में आप क्या अंतर देखते हैं?
अगर देखा जाए तो ज्यादा अंतर नहीं है। लेकिन जो अनुशासन एक ऐड फिल्म बनाने में है वह फीचर फिल्म में आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है। हम लोगों को श्याम बेनेगल साहब ने इतना मारपीट कर सिखाया है कि हमको पूरी कहानी 30 सेकंड या एक मिनट में बतानी आ गई। एक ऐड फिल्म मेकर कहानी का सार अच्छे से पकड़ लेता है। मेरा मानना है कि ऐड फिल्म बनाने वालों को ज्यादा से ज्यादा फीचर फिल्में बनानी चाहिए क्योंकि उनको कहानी का कथन और अनुशासन अच्छे से आता है। 

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
और, ये बॉयकॉट ट्रेंड के बारे में आपका क्या मानना है जो फिल्मों के साथ अब विज्ञापनों को भी अपने लपेटे में ले चुका है? लोगों को लगता है कि आम जनता अब असहिष्णु हो गई है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। मेरा मानना है कि असहिष्णु सिर्फ नेता और उनके समर्थक है फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों। ट्रोलिंग मेरे हिसाब से एक सामूहिक दबाव बनाने की गतिविधि है और मुझे नहीं लगता है इसका वास्ता किसी भी धर्म से है। मैं तो मानता हूं कि हिन्दू पूरी दुनिया के सबसे उदारवादी लोग होते हैं।  

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

एक कलाकार के लिए सामाजिक मुद्दों पर बोलना कितना जरूरी है?
बहुत जरूरी है कि एक कलाकार को सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करना। मैं तो खुद को मुंहफट मानता हूं क्योंकि मैं किसी को भी कुछ भी बोल देता हूं। मैं कई बार मजाक मजाक में भी गंभीर बातें कह देता हूं। शुक्र है कि मुंहफट होने का कोई खामियाजा अब तक मुझे नहीं भुगतना पड़ा क्योंकि अभी तक मेरे घर पर ईडी को नहीं भेजा गया है तो अभी तो सब ठीक है। 

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प्रह्लाद कक्कड़ - फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
अच्छा, सोशल मीडिया के उदय का विज्ञापनों की दुनिया पर कितना असर पड़ा है? सोशल मीडिया के आने से जो एक दो फर्क पड़े हैं वे ये हैं कि सोशल मीडिया में बातें दोनों तरफ से होती हैं। जब आप कोई ऐड टीवी पर देखते हैं तो वह भाषण की तरह होता है क्योंकि आप सिर्फ उसे सुन और देख सकते हैं। सोशल मीडिया लोगों को इस पर अपनी प्रतिक्रिया जताने का मौका देता है। यहां आपको या तो तुरंत गाली मिलेगी या तो तुरंत प्यार मिलेगा। सकारात्मक नजरिये से देखा जाए तो सोशल मीडिया दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है जो आज के जमाने के लिए बहुत अच्छा है।
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