भारत-नेपाल के रिश्तों में अचानक आई तल्खी और नेपाल के प्रधानमंत्री के तीखे तेवरों के पीछे आखिर क्या वजहें है.. क्यों नेपाल के प्रधानमंत्री भारत के खिलाफ विवादास्पद और नफरत भरे बयान दे रहे हैं और क्यों चीन को लेकर उनके भीतर इतनी नरमी आई है?
नेपाली प्रधानमंत्री का संसद में भारत को लेकर दिया गया खतरनाक वायरस वाला बयान हो या फिर सीमा विवाद (खासकर लिपुलेख और कालापानी) पर भारत पर तंज कसने वाला उनका बयान, ये सीधे तौर पर साबित करता है कि अब ये विवाद इतनी आसानी से सुलझने वाला नहीं। खासकर तब जब नेपाल ने अपना नया राजनीतिक और प्रशासनिक नक्शा जारी कर दिया है।
नेपाल में राजशाही खत्म होने और लोकतंत्र की बहाली के बाद से राजनीति अनिश्तिताओं का एक लंबा दौर चला। एक नए नेपाल के निर्माण के साथ ही वहां की पूरी व्यवस्था और सोच के साथ कई नीतिगत बदलाव भी हुए। बेशक नेपाल को राजशाही से मुक्ति दिलाने और वहां एक लोकतांत्रिक सरकार बनवाने में कम्युनिस्टों का बड़ा योगदान रहा।
लंबा संघर्ष चला, माओवादियों के हिंसक प्रदर्शनों से नेपाल लंबे समय तक दहलता रहा और आखिरकार पिछले कुछ वर्षों से नेपाल को पूरी तरह नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ही चला रही है। तमाम आपसी अंतरविरोधों को भुलाकर वहां की कम्युनिस्ट पार्टियां एक हो गईं और पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ और के पी शर्मा ओली इस वक्त नेपाल की सत्ता के सर्वेसर्वा हैं।
लेकिन नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकी और भारत से बढ़ती दूरी के पीछे कौन सी ऐतिहासिक वजहें हैं जो बीच-बीच में भारत-नेपाल रिश्तों के बीच तनाव बढ़ाती हैं?
दरअसल, नेपाल का वह दर्द बार बार उभरता है कि आखिर उसके पूर्वजों ने अंग्रेजों के साथ 1816 में जो सुगौली संधि की, उसके तहत उसके कई अहम हिस्से भारत में चले गए हालांकि भारत के भी मिथिला क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा नेपाल के पास चला गया।
नेपाल के मूल निवासियों की नजर में मिथिला का ये हिस्सा और यहां रहने वाले लोग (मधेसी) आज भी एक सामाजिक और सांस्कृतिक अलगाववाद के शिकार हैं।
उन्हें आज भी नेपाल पूरी तरह अपना नहीं मानता, लेकिन ये समस्या अंग्रेजों के जमाने से यानी करीब दो शताब्दियों से चली आ रही है। सुगौली संधि के तहत इधर नेपाल को उत्तराखंड के कुमाऊं से लेकर सिक्किम तक के पर्वतीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के हवाले करना पड़ा।
बहरहाल, साम्राज्यवाद की इस लड़ाई के तमाम किस्सों और समझौतों के बीच दोनों ही देशों के बीच अपने-अपने क्षेत्रों को लेकर आज भी ये दर्द बना हुआ है जो बीच बीच में आपसी टकरावों और तनावों के जरिये उभरता रहता है।
भारत ने हमेशा नेपाल को हर संभव मदद की है और अपना पड़ोसी धर्म निभाने की कोशिश की है। दोनों ही देशों की संस्कृति और धार्मिक मान्यताएं एक जैसी हैं, लेकिन हिन्दू राष्ट्र होने के बावजूद आज नेपाल में कम्युनिस्टों की सरकार है। खास बात ये है कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टियां वक्त और स्थानीय जरूरतों के मुताबिक अपनी नीतियां बदलती रही हैं और जो हालत भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों की रही है, उससे सीखते हुए नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ने खुद को अलग से खड़ा किया है।
जाहिर है चीन भी शुरू से कम्युनिस्ट देश रहा है तथा तमाम माओवादियों या कम्युनिस्टों के लिए एक मिसाल भी रहा है, ऐसे में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार का चीन के करीब होना बेहद स्वाभाविक है। साथ ही, चीन ने नेपाल में सड़क निर्माण से लेकर औद्योगिक विकास में जितनी बड़ी भूमिका निभाई है, उससे वहां के स्थानीय लोगों के मन में भी चीन पर खासी निर्भरता नजर आती है।
दूसरी तरफ भारत के साथ जरूरी व्यापारिक रिश्तों के अलावा हिन्दू धार्मिक मान्यताओं और पर्यटन स्थलों से जुड़े भावनात्मक रिश्ते भी हैं। इसलिए वह न तो चीन से अलग रह सकता है और न ही भारत से। लेकिन नेपाल साफ तौर पर मानता है कि चीन वहां इम्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश करता आया है और आगे भी करता रहेगा, साथ ही अब नेपाल के स्कूलों में चीनी भाषा मंदारिन को पढ़ाना भी अनिवार्य कर दिया है जिसका खर्चा चीन उठा रहा है। इससे साफ है कि नेपाल धीरे धीरे भारत पर से अपनी निर्भरता कम करना चाहता है और चीन को अपना मजबूत दोस्त और सहयोगी मानता है।
इसलिए प्रधानमंत्री ओली के बयान पर अगर गौर करें तो साफ है कि उन्हें कोरोना वायरस के लिए भी अब चीन से ज्यादा खतरनाक भारत नजर आता है। उनका यह कहना कि भारत का वायरस चीन और इटली से भी ज्यादा खतरनाक है, और यह बयान कि भारत सिर्फ सत्यमेव जयते की बात करता है, लेकिन उसका पालन नहीं करता, अपने आप में बेहद गंभीर है।
नेपाल ने लिंपियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को शामिल करते हुए जो नया नक्शा जारी करने को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उसके लिए नेपाल पहले से ही तैयार है।
इधर भारत ने भी देर रात नेपाल के इस कदम की कड़ी आलोचना की है और सीमा विवाद को बातचीत के जरिए हल करने को कहा है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने अपने बयान में नेपाल सरकार से कहा है कि वह बातचीत का माहौल बनाए और लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को मिलबैठ कर सुलझाने की पहल करे।
भारत ने नेपाल के नए राजनीतिक नक्शे पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि भारत अपने क्षेत्र पर ऐसे किसी भी कब्जे और ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा।
दरअसल करीब 40 किलोमीटर का यह हिस्सा जिसमें कालापानी और लिपुलेख दर्रा शामिल है, सामरिक दृष्टि से खासा अहम है। यहां भारत, नेपाल और चीन तीनों की सरहदें मिलती हैं और यहीं लिंपियाधुरा से सीमा सुरक्षा बल की मदद से चीनी सेना की गतिविधियों पर नजर रखी जाती रही है।
उधर नेपाल मामलों के जानकार आनंद स्वरूप वर्मा मानते हैं कि नेपाल के नक्शे में बदलाव करने का फैसला उसका खुद का फैसला है, इसमें चीन की कोई भूमिका नहीं है। उनका कहना है कि 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान नेपाल ने ही लिंपियाधुरा और कालापानी के इस क्षेत्र में भारतीय सैनिकों को चीन के खिलाफ मोर्चेबंदी करने की अस्थाई इजाजत दी थी।
जबकि भारत इस विवाद को बैठकर बातचीत के जरिए सुलझाने के पक्ष में हमेशा से रहा है। लेकिन अब नेपाल के इस कदम से यह विवाद और उलझ गया है। साफ है कि नेपाल के लिए अपने फैसले पर टिके रहना और भारत का उसपर अपना फैसला या नक्शा वापस लेने का दबाव बनाने को लेकर ये विवाद अभी लंबा चलेगा जिससे आने वाले वक्त में दोनों देशों के बीच के रिश्तों में और खटास आने की आशंका बढ़ गई है।
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भारत-नेपाल के रिश्तों में अचानक आई तल्खी और नेपाल के प्रधानमंत्री के तीखे तेवरों के पीछे आखिर क्या वजहें है.. क्यों नेपाल के प्रधानमंत्री भारत के खिलाफ विवादास्पद और नफरत भरे बयान दे रहे हैं और क्यों चीन को लेकर उनके भीतर इतनी नरमी आई है?
नेपाली प्रधानमंत्री का संसद में भारत को लेकर दिया गया खतरनाक वायरस वाला बयान हो या फिर सीमा विवाद (खासकर लिपुलेख और कालापानी) पर भारत पर तंज कसने वाला उनका बयान, ये सीधे तौर पर साबित करता है कि अब ये विवाद इतनी आसानी से सुलझने वाला नहीं। खासकर तब जब नेपाल ने अपना नया राजनीतिक और प्रशासनिक नक्शा जारी कर दिया है।
नेपाल में राजशाही खत्म होने और लोकतंत्र की बहाली के बाद से राजनीति अनिश्तिताओं का एक लंबा दौर चला। एक नए नेपाल के निर्माण के साथ ही वहां की पूरी व्यवस्था और सोच के साथ कई नीतिगत बदलाव भी हुए। बेशक नेपाल को राजशाही से मुक्ति दिलाने और वहां एक लोकतांत्रिक सरकार बनवाने में कम्युनिस्टों का बड़ा योगदान रहा।
लंबा संघर्ष चला, माओवादियों के हिंसक प्रदर्शनों से नेपाल लंबे समय तक दहलता रहा और आखिरकार पिछले कुछ वर्षों से नेपाल को पूरी तरह नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ही चला रही है। तमाम आपसी अंतरविरोधों को भुलाकर वहां की कम्युनिस्ट पार्टियां एक हो गईं और पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ और के पी शर्मा ओली इस वक्त नेपाल की सत्ता के सर्वेसर्वा हैं।
लेकिन नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकी और भारत से बढ़ती दूरी के पीछे कौन सी ऐतिहासिक वजहें हैं जो बीच-बीच में भारत-नेपाल रिश्तों के बीच तनाव बढ़ाती हैं?
दरअसल, नेपाल का वह दर्द बार बार उभरता है कि आखिर उसके पूर्वजों ने अंग्रेजों के साथ 1816 में जो सुगौली संधि की, उसके तहत उसके कई अहम हिस्से भारत में चले गए हालांकि भारत के भी मिथिला क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा नेपाल के पास चला गया।
नेपाल के मूल निवासियों की नजर में मिथिला का ये हिस्सा और यहां रहने वाले लोग (मधेसी) आज भी एक सामाजिक और सांस्कृतिक अलगाववाद के शिकार हैं।
उन्हें आज भी नेपाल पूरी तरह अपना नहीं मानता, लेकिन ये समस्या अंग्रेजों के जमाने से यानी करीब दो शताब्दियों से चली आ रही है। सुगौली संधि के तहत इधर नेपाल को उत्तराखंड के कुमाऊं से लेकर सिक्किम तक के पर्वतीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के हवाले करना पड़ा।