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The second name of freedom of expression was Kuldeep Nayyar
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दूसरा नाम था कुलदीप नैयर
आलोक मेहता, पूर्व अध्यक्ष एडीटर्स गिल्ड
Updated Thu, 23 Aug 2018 12:10 PM IST
कुलदीप नैयर जी नहीं रहे। यह खबर सुबह मिलते ही उनकी तमाम यादें ताजा हो गईं और भारतीय पत्रकारिता में उनके लंबे योगदान के तमाम आयाम याद आने लगे। स्वर्गीय राजेंद्र माथुर और मनोहर श्याम जोशी के बाद अब कुलदीप नैय्यर के निधन से पत्रकारिता के एक और युग का अंत हो गया। वह कड़ी जो उनके रूप में स्वतंत्रता के पहले से शुरु हुई थी आज टूट गई।
कुलदीप नैयर जी से मेरा रिश्ता कई दशकों का है। एक पत्रकार के रूप में मैंने सबसे पहले उन्हें पढ़कर जाना। फिर जब करीब 45 साल पहले एक युवा पत्रकार के तौर पर दिल्ली आया तब उन्हें धीरे-धीरे करीब से जानने का मौका मिला।
एडीटर्स गिल्ड की स्थापना से लेकर मीडिया की आजादी के हर सवाल पर उनका हम सबके साथ खड़ा होना हमें ताकत देता रहा है। 1987 में जब मैं नवभारत टाईम्स पटना का संपादक बना, तब से जितने भी पत्र पत्रिकाओं का संपादन मैंने किया कुलदीप नैयर के लेख और टिप्पणियां प्रकाशित करता रहा। वह भले ही पहले उर्दू और फिर अंग्रेजी के पत्रकार थे, लेकिन भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के प्रति उनके मन में बेहद सम्मान था और भाषा विभेद की सीमाओं से ऊपर उठकर वह संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता और मीडिया के लिए सोचते और लिखते थे। शुरुआती दिनों में उन्होंने कुछ दिन अखबार भी बेचे थे। महात्मा गांधी की हत्या की रिपोर्टिंग भी उन्होंने की थी।
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मुझे सबसे ज्यादा संतोष तब मिलता था जब मैं रिपोर्टिंग करता था, क्योंकि मैं जो लिखता था उसका असर होता था। इसे खुद इंदिरा गांधी ने स्वीकार किया था कि यह आदमी जो लिखता है उसका असर मेरे और सरकार के कामकाज पर पड़ता है। कुलदीप नैयर जी ने एक सरकारी अधिकारी से लेकर उच्चायुक्त तक के पद को भी सुशोभित किया। वह राज्यसभा के सांसद भी रहे। वह गोविंद वल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री के साथ भी जुड़े रहे। लेकिन पत्रकारिता उनकी पहली और आखिरी पसंद थी। लंबे समय तक सक्रिय पत्रकारिता में रहने के बाद उन्होंने जब स्वतंत्र लेखन शुरू किया जो उनके आखिरी समय तक जारी रहा।
अपने कॉलम को वह अंग्रेजी के अलावा लगभग सभी भारतीय भाषाओं में भेजते थे, जिसे लाखों लोग पढ़ते और पसंद करते थे। पत्रकारिता के साथ ही सार्वजनिक जीवन में भी उनकी बेहद सक्रियता थी। अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र की मजबूती उनके जीवन का मिशन था। आपातकाल में वह पत्रकारिता की आजादी के सवाल पर जेल भी गए। मानहानि विधेयक हो या बिहार प्रेस बिल या पत्रकारिता की आजादी पर कोई और हमला, कुलदीन नैयर ने हमेशा उसका जमकर विरोध किया। मानवाधिकारों के मुद्दे और भारत पाकिस्तान के बीच अच्छे रिश्तों को लेकर वह बेहद मुखर थे। इस पर उनकी कलम भी चलती थी और खुद भी सक्रिय रहते थे। कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दूसरा नाम था कुलदीप नैयर।
कुलदीप नैयर की विशेषता थी कि उनका निजी तौर पर किसी भी नेता से विरोध नहीं था। एक पत्रकार के नाते उन्होंने जिसके खिलाफ भी लिखा हो, लेकिन निजी तौर पर उनके रिश्ते नहीं बिगड़े क्योंकि उनके लेखन में कोई पूर्वाग्रह नहीं होता था। आपातकाल के विरोध में जेल जाने के बावजूद उनके इंदिरा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं से निजी तौर पर अच्छे रिश्ते थे। देश के सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से उनके निजी रिश्ते अच्छे थे और पत्रकारों व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रति तो वह बेहद सहज और सुलभ थे।
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आज जब कुलदीप नैयर जी हमारे बीच नहीं रहे तो यह सवाल भी स्वाभाविक है कि अब उनके खाली स्थान को कौन भरेगा। क्या कोई दूसरा कुलदीप नैयर फिर हमारे बीच आएगा। इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मेरी पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी के पत्रकारों के लिये कुलदीप नैयर के जीवन और उनकी पत्रकारिता से सीखने के लिये बहुत कुछ है। अगर हम उनसे यह सीख सके कि किस तरह हर परिस्थिति में लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए हमारी कलम चलती रहनी चाहिए तो शायद यही भारतीय पत्रकारिता के भीष्म पितामह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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