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opinion polls in election 2022 what is the opinion poll on which samajwadi party has demanded to stop, why some parties opposes to ban opinion polls in india, sometime opinion polls make wrong predictions
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Opinion Polls: क्या होता है ओपिनियन पोल जिस पर रोक लगाने की सपा ने की है मांग, क्या ये गलत भी साबित होते हैं?
एक्सपर्टस का कहना है कि अक्सर देखा गया है कि जब जनमत सर्वेक्षण पार्टियों के पक्ष में नहीं होते तो वे इसे भ्रमित करने वाला बता देते हैं और जब सर्वेक्षण उनके पक्ष में होता है तो वे इसे जनता की राय बताते हैं।
Prayagraj News : समाजवादी पार्टी।
- फोटो : प्रयागराज
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चुनावी मौसम आते ही सर्वे की भरमार लग जाती है। जिसमें जनता के बीच सर्वे करके उनकी राय जानी जाती है। समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग से कुछ समाचार चैनलों पर प्रसारित होने वाले ऐसे ही ओपिनियन पोल यानी जनमत सर्वेक्षणों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की मांग की है। चुनाव आयोग को लिखे पत्र में सपा ने कहा है कि ओपिनियन पोल्स के प्रसारण से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होता है और वे मतदाताओं को गुमराह भी करते हैं। पार्टी ने मांग की है कि स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्भीक चुनाव सम्पन्न कराने के लिए न्यूज चैनलों पर दिखाए जा रहे ओपिनियन पोल पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने सपा के इस कदम को उसकी हताशा करार दिया है।
सपा से पहले बहुजन समाज पार्टी ने भी अक्तूबर 2021 में ही चुनाव आयोग को चिट्ठी लिख कर चुनाव से छह महीने पहले पोल सर्वे पर बैन लगाने की मांग की थी। पार्टी के महासचिव और राज्य सभा सांसद सतीश चंद्र मिश्र ने बीएसपी की तरफ से आयोग से ये अपील की थी। बसपा का कहना था कि यूपी में करीब 15 करोड़ वोटर हैं, लेकिन सर्वे एजेंसियां चंद सौ लोगों की राय के आधार पर अपने आंकड़े पेश कर देती है।
ओपिनियन पोल पर लगे ये आरोप
इसी महीने जब आठ जनवरी को चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के तारीखों की घोषणा की उसके बाद अधिवक्ता एलीन सारस्वत ने भी मुख्य चुनाव आयुक्त को ओपिनियन पोल पर रोक लगाने के लिए पत्र लिखा था। ईमेल से भेजे गए इस पत्र में कहा गया कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। पत्र में कहा गया है कि आजकल ओपिनियन पोल की जगह एग्जिट पोल ने ले ली है और यह स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान के सिद्धांत के खिलाफ है, इसलिए इसे सख्ती से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा कि इसकी कोई जवाबदेही नहीं होती और सर्वे के खर्च का कोई हिसाब नहीं है।
क्या होता है ओपिनियन पोल?
चुनाव की घोषणा के बाद होने वाले वो सर्वे जिसमें वोटरों से पूछा जाता है कि आप कौन सी पार्टी को वोट देंगे, वैसे सर्वे को ओपिनियल पोल कहते हैं। इस सर्वे में मुख्य रूप से सैंपल साइज पर जोर होता है। जिसका जितना बड़ा सैंपल साइज होता है, उसके नतीजे उतने सही होने के करीब होते हैं। वोटिंग के 48 घंटे पहले से ओपिनियन पोल पर पाबंदी है।
1990 के दशक में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तेजी से प्रसार के बाद मतदान एजेंसियों में ओपिनियन पोलिंग करने का रुझान बढ़ा और धीरे-धीरे यह चुनाव की भविष्यवाणी करने लगा। हालंकि इसके अंकुर 1950 में ही फूट पड़े थे। 2005 और 2013 के बीच ओपिनियन पोल पर कई बार सवाल उठे और लोगों का इस पर विश्वास कम हुआ। लेकिन 2014 और 2019 के बीच कई राज्य के सही चुनावी पूर्वानुमान जनमत सर्वेक्षणों ने लोगों के विश्वास को फिर से बनाया।
क्या पहली बार हुई है ऐसी मांग
नहीं, ऐसा पहली बार नहीं है जब चुनाव में ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने भी नवंबर 2013 में इसी तरह के प्रतिबंध की मांग की थी। उस समय इस मुद्दे पर जबरदस्त विवाद हुआ था।
दरअसल इसी साल चार अक्टूबर को चुनाव आयोग ने तमाम सियासी पार्टियों से पूछा था कि क्या ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए?
30 अक्टूबर को दिए गए अपने जवाब में कांग्रेस ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव का खुलकर समर्थन किया था।
कांग्रेस के मुताबिक चंद लोगों की राय पर आधारित सर्वे विश्वसनीय नहीं होते और उन्हें तोड़ा मरोड़ा जा सकता है।
उधर भाजपा का कहना था कि कांग्रेस चुनाव परिणामों से डरी हुई है, इसलिए इस प्रतिबंध की मांग कर रही है।
तब पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने कहा था कि चुनाव आयोग को यह देखना चाहिए कि जनमत सर्वेक्षणों पर राजनीतिक दलों के अनुकूल कवरेज के लिए क्या उन्हें भुगतान किया गया है? उन्होंने पेड न्यूज के संदर्भ में कहा कि संभावना है कि यह मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने वाला साबित हो सकता है।
हालांकि इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी एक्जिट और ओपिनियन पोल पर पाबंदी के लिए एक अध्यादेश लाने की कोशिश की थी। छह अप्रैल 2004 को सभी पार्टियों की एक बैठक में सबने एक सुर में कहा था कि चुनाव की तारीख के एलान के बाद कोई भी ओपिनियन पोल नहीं होना चाहिए।
गैर सांविधानिक माना गया
हालांकि 2004 में तब के अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कहा था कि ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना गैर-संवैधानिक होगा। 2009 में जब कांग्रेसी की अगुवाई वाली यूपीए सरकार दूसरी बार सत्ता में आई तो उसने जनप्रतिनिधि कानून 1951 में धारा 126 (ब) को शामिल किया जिसके तहत एक्जिट पोल पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जा सके। उस समय ओपीनियन पोल को छोड़ दिया गया था लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल ने इस पर अगले चरण में प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया था। क्या कहते हैं एक्सपर्ट
चुनावी सर्वेक्षण कराने वाली मुख्य सीएनएक्स के फाउंडर भवेश झा के मुताबिक चुनाव सर्वेक्षण कराने वाली एजेंसियों का काम ‘थैंक्सलेस’ है, लेकिन हम सटीकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि ओपिनियन पोल भ्रमित करने वाले होते हैं कि इस बात को जांचने का कोई पैमाना नहीं होता है। मैं मानता हूं कि हमारे मतदाता इतने जागरूक हैं वे टीवी देखकर अपनी राय नहीं बनाते हैं, बल्कि मुद्दों पर वोट करते हैं। उनके मुताबिक विपक्षी पार्टियां अक्सर इस तरह की बातें करती हैं। 2004 में कांग्रेस ने यह बात उठाई थी और 2009 में भाजपा ने इस पर सवाल किए थे।
क्या ओपिनियन पोल गलत भी साबित होते हैं?
वोटर अपने विवेक पर अंतिम फैसला करता है और कई बार ऐसे सर्वे के उलट जागरूक वोटर सर्वे करने वालों को आश्चर्यचकित कर देता है। एक वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार का कहना है यह सच है कि ओपीनियन पोल अक्सर गलत होते हैं, लेकिन कई बार वो सही भी हो जाते हैं। साल 2009 में किसी भी सर्वेक्षण में यूपीए की वापसी की संभावना नहीं जताई गई थी। इसी तरह साल 2004 में भी यही उम्मीद जताई गई थी भाजपा अपने इंडिया शाइनिंग अभियान की बदौलत सत्ता में वापसी करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
हवा का अनुमान लगा लेते हैं
भवेश झा मानते हैं कि ओपिनियन पोल जरूर नहीं कि हर बार सच ही हों, लेकिन हवा किस तरफ बह रही है इसका अनुमान जरूर बता देते हैं। हालांकि चुनाव पूर्वानुमान लगाने वाली एजेंसियों को 2014 के चुनाव में एक चुनौती का सामना करना पड़ा। एजेंसियों ने 2014 के जनादेश की दिशा को सही ढंग से समझा, लेकिन वे अंदाजा नहीं लगा पाए कि भाजपा पहली बार बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी एजेंसियां ‘मोदी लहर’ का सटीक अनुमान नहीं लगा सकीं।
क्या अन्य देशों में ऐसा हुआ है
1936 में, अमेरिकी चुनाव में प्रतिष्ठित पत्रिका लिटरेरी डाइजेस्ट ने 2.4 मिलियन के नमूने के आकार के साथ एक सर्वेक्षण किया, जो की एक बड़ी संख्या थी। लिटरेरी डाइजेस्ट ने भविष्यवाणी की थी कि रिपब्लिकन उम्मीदवार अल्फ्रेड लैंडन को 57 फीसदी वोट शेयर मिलेगा और मौजूदा राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट जो डेमोक्रेट थे, उन्हें 43 प्रतिशत मिलेगा। वास्तविक परिणाम इसके विपरीत निकला। रूजवेल्ट को लैंडन के 38 फीसदी वोटों की तुलना में 62 फीसदी समर्थन हासिल हुआ।
इसी तरह नवंबर 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में, देश भर के चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के लिए आसान स्वीप की भविष्यवाणी की गई थी। मीडिया आउटलेट्स और पोलस्टार्स डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का अनुमान लगाने में विफल रहे।
इसी तरह 2019 में ऑस्ट्रेलियाई में मई में हुए आम चुनाव से पहले लगभग सभी ओपिनियन पोल में प्रधान मंत्री स्कॉट मॉरिसन के लिबरल-नेशनल गठबंधन को जीत से दूर दिखाया गया। लेकिन सभी भविष्यवाणियों को धता बताते हुए ऑस्ट्रेलिया का सत्तारूढ़ गठबंधन सत्ता में लौटा।
विस्तार
चुनावी मौसम आते ही सर्वे की भरमार लग जाती है। जिसमें जनता के बीच सर्वे करके उनकी राय जानी जाती है। समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग से कुछ समाचार चैनलों पर प्रसारित होने वाले ऐसे ही ओपिनियन पोल यानी जनमत सर्वेक्षणों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की मांग की है। चुनाव आयोग को लिखे पत्र में सपा ने कहा है कि ओपिनियन पोल्स के प्रसारण से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होता है और वे मतदाताओं को गुमराह भी करते हैं। पार्टी ने मांग की है कि स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्भीक चुनाव सम्पन्न कराने के लिए न्यूज चैनलों पर दिखाए जा रहे ओपिनियन पोल पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने सपा के इस कदम को उसकी हताशा करार दिया है।
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चुनावी मौसम आते ही सर्वे की भरमार लग जाती है। जिसमें जनता के बीच सर्वे करके उनकी राय जानी जाती है। समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग से कुछ समाचार चैनलों पर प्रसारित होने वाले ऐसे ही ओपिनियन पोल यानी जनमत सर्वेक्षणों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की मांग की है। चुनाव आयोग को लिखे पत्र में सपा ने कहा है कि ओपिनियन पोल्स के प्रसारण से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होता है और वे मतदाताओं को गुमराह भी करते हैं। पार्टी ने मांग की है कि स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्भीक चुनाव सम्पन्न कराने के लिए न्यूज चैनलों पर दिखाए जा रहे ओपिनियन पोल पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने सपा के इस कदम को उसकी हताशा करार दिया है।
सपा से पहले बहुजन समाज पार्टी ने भी अक्तूबर 2021 में ही चुनाव आयोग को चिट्ठी लिख कर चुनाव से छह महीने पहले पोल सर्वे पर बैन लगाने की मांग की थी। पार्टी के महासचिव और राज्य सभा सांसद सतीश चंद्र मिश्र ने बीएसपी की तरफ से आयोग से ये अपील की थी। बसपा का कहना था कि यूपी में करीब 15 करोड़ वोटर हैं, लेकिन सर्वे एजेंसियां चंद सौ लोगों की राय के आधार पर अपने आंकड़े पेश कर देती है।
चुनावी सर्वे
- फोटो : amarujala
कांग्रेस
- फोटो : Twitter/@INCIndia
क्या पहली बार हुई है ऐसी मांग
नहीं, ऐसा पहली बार नहीं है जब चुनाव में ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने भी नवंबर 2013 में इसी तरह के प्रतिबंध की मांग की थी। उस समय इस मुद्दे पर जबरदस्त विवाद हुआ था।
दरअसल इसी साल चार अक्टूबर को चुनाव आयोग ने तमाम सियासी पार्टियों से पूछा था कि क्या ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए?
30 अक्टूबर को दिए गए अपने जवाब में कांग्रेस ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव का खुलकर समर्थन किया था।
कांग्रेस के मुताबिक चंद लोगों की राय पर आधारित सर्वे विश्वसनीय नहीं होते और उन्हें तोड़ा मरोड़ा जा सकता है।
उधर भाजपा का कहना था कि कांग्रेस चुनाव परिणामों से डरी हुई है, इसलिए इस प्रतिबंध की मांग कर रही है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी
- फोटो : pti
तब पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने कहा था कि चुनाव आयोग को यह देखना चाहिए कि जनमत सर्वेक्षणों पर राजनीतिक दलों के अनुकूल कवरेज के लिए क्या उन्हें भुगतान किया गया है? उन्होंने पेड न्यूज के संदर्भ में कहा कि संभावना है कि यह मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने वाला साबित हो सकता है।
हालांकि इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी एक्जिट और ओपिनियन पोल पर पाबंदी के लिए एक अध्यादेश लाने की कोशिश की थी। छह अप्रैल 2004 को सभी पार्टियों की एक बैठक में सबने एक सुर में कहा था कि चुनाव की तारीख के एलान के बाद कोई भी ओपिनियन पोल नहीं होना चाहिए।
गैर सांविधानिक माना गया
हालांकि 2004 में तब के अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कहा था कि ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना गैर-संवैधानिक होगा। 2009 में जब कांग्रेसी की अगुवाई वाली यूपीए सरकार दूसरी बार सत्ता में आई तो उसने जनप्रतिनिधि कानून 1951 में धारा 126 (ब) को शामिल किया जिसके तहत एक्जिट पोल पर कानूनी प्रतिबंध लगाया जा सके। उस समय ओपीनियन पोल को छोड़ दिया गया था लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल ने इस पर अगले चरण में प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया था।
भाजपा, कांग्रेस और सपा के चुनाव चिन्ह
- फोटो : अमर उजाला
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
चुनावी सर्वेक्षण कराने वाली मुख्य सीएनएक्स के फाउंडर भवेश झा के मुताबिक चुनाव सर्वेक्षण कराने वाली एजेंसियों का काम ‘थैंक्सलेस’ है, लेकिन हम सटीकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि ओपिनियन पोल भ्रमित करने वाले होते हैं कि इस बात को जांचने का कोई पैमाना नहीं होता है। मैं मानता हूं कि हमारे मतदाता इतने जागरूक हैं वे टीवी देखकर अपनी राय नहीं बनाते हैं, बल्कि मुद्दों पर वोट करते हैं। उनके मुताबिक विपक्षी पार्टियां अक्सर इस तरह की बातें करती हैं। 2004 में कांग्रेस ने यह बात उठाई थी और 2009 में भाजपा ने इस पर सवाल किए थे।
क्या ओपिनियन पोल गलत भी साबित होते हैं?
वोटर अपने विवेक पर अंतिम फैसला करता है और कई बार ऐसे सर्वे के उलट जागरूक वोटर सर्वे करने वालों को आश्चर्यचकित कर देता है। एक वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार का कहना है यह सच है कि ओपीनियन पोल अक्सर गलत होते हैं, लेकिन कई बार वो सही भी हो जाते हैं। साल 2009 में किसी भी सर्वेक्षण में यूपीए की वापसी की संभावना नहीं जताई गई थी। इसी तरह साल 2004 में भी यही उम्मीद जताई गई थी भाजपा अपने इंडिया शाइनिंग अभियान की बदौलत सत्ता में वापसी करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
हवा का अनुमान लगा लेते हैं
भवेश झा मानते हैं कि ओपिनियन पोल जरूर नहीं कि हर बार सच ही हों, लेकिन हवा किस तरफ बह रही है इसका अनुमान जरूर बता देते हैं। हालांकि चुनाव पूर्वानुमान लगाने वाली एजेंसियों को 2014 के चुनाव में एक चुनौती का सामना करना पड़ा। एजेंसियों ने 2014 के जनादेश की दिशा को सही ढंग से समझा, लेकिन वे अंदाजा नहीं लगा पाए कि भाजपा पहली बार बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी एजेंसियां ‘मोदी लहर’ का सटीक अनुमान नहीं लगा सकीं।
हिलेरी क्लिंटन
क्या अन्य देशों में ऐसा हुआ है
1936 में, अमेरिकी चुनाव में प्रतिष्ठित पत्रिका लिटरेरी डाइजेस्ट ने 2.4 मिलियन के नमूने के आकार के साथ एक सर्वेक्षण किया, जो की एक बड़ी संख्या थी। लिटरेरी डाइजेस्ट ने भविष्यवाणी की थी कि रिपब्लिकन उम्मीदवार अल्फ्रेड लैंडन को 57 फीसदी वोट शेयर मिलेगा और मौजूदा राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट जो डेमोक्रेट थे, उन्हें 43 प्रतिशत मिलेगा। वास्तविक परिणाम इसके विपरीत निकला। रूजवेल्ट को लैंडन के 38 फीसदी वोटों की तुलना में 62 फीसदी समर्थन हासिल हुआ।
इसी तरह नवंबर 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में, देश भर के चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के लिए आसान स्वीप की भविष्यवाणी की गई थी। मीडिया आउटलेट्स और पोलस्टार्स डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का अनुमान लगाने में विफल रहे।
इसी तरह 2019 में ऑस्ट्रेलियाई में मई में हुए आम चुनाव से पहले लगभग सभी ओपिनियन पोल में प्रधान मंत्री स्कॉट मॉरिसन के लिबरल-नेशनल गठबंधन को जीत से दूर दिखाया गया। लेकिन सभी भविष्यवाणियों को धता बताते हुए ऑस्ट्रेलिया का सत्तारूढ़ गठबंधन सत्ता में लौटा।
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