तीन कृषि कानूनों पर राजनीति का पहिया उल्टी दिशा में घूम गया है। पहले अडिग दिखने वाली सरकार न सिर्फ कानून वापस लेने के बाद भी सियासी मैदान में बैकफुट पर है, जबकि किसान संगठन फ्रंट फुट पर हैं। सरकार की उम्मीदों के विपरीत कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद किसान आंदोलन खत्म होने के बदले पहले से ज्यादा संगठित और मजबूत हुआ है।
कानून वापसी की घोषणा के बाद भी सरकार नाराज किसानों को मनाने के लिए जद्दोजहद में जुटी है, जबकि किसान संगठन सरकार को और अधिक झुका कर दूसरी मांगों पर भी मुहर लगवा लेना चाहता है। सरकार को उम्मीद थी कि कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा किसान आंदोलन को खत्म करने में जादू की छड़ी की भूमिका निभाएगी।
हालांकि किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी, लखीमपुर खीरी की घटना में गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा की गिरफ्तारी और आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों को मुआवजे के साथ उनके नाम पर स्मारक बनाने की मांग पर अड़े हुए हैं। जाहिर तौर पर कानून वापसी की घोषणा ने किसान आंदोलन को नई मजबूती दी है।
कृषि कानूनों के बाद सरकार बैकफुट पर है तो किसान संगठन फ्रंट फुट पर हैं। पहली बार दबाव में आई सरकार को किसान संगठन और दबाव में लाना चाहते हैं। सरकार को शीतकालीन सत्र में विपक्ष के मुश्किल सवालों से जूझना है।
इसके अलावा उसके सामने विधानसभा चुनावों से पूर्व किसानों की नाराजगी दूर करने की चुनौती है। सरकार में किसान सम्मान निधि की राशि बढ़ाने, एमएसपी पर तर्कसंगत निर्णय करने, गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के राजनीतिक भविष्य का फैसला करने को ले कर लगातार मंथन हो रहा है।
कहां चूकी सरकार?
शुरुआती लापरवाही के कारण पंजाब से शुरू आंदोलन का दायरा फैलता चला गया और इसकी तपिश हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तक महसूस की जाने लगी। इनमें पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान मुख्य रूप से गन्ना उत्पादक हैं। गन्ना की कीमतों के मुद्दे पर किसान पहले से नाराज थे। किसानों की यह नाराजगी आंदोलन के समर्थन में तब्दील हो गई।
क्यों पीछे हटी सरकार?
कृषि कानून को वापस लेने का फैसला सारे दांव के असफल रहने के बाद लिया गया। सरकार को उम्मीद थी कि लंबा खिंचने के कारण यह आंदोलन ‘शाहीनबाग’ की तर्ज पर खत्म हो जाएगा। उम्मीद थी कि आगे चल कर यह लड़ाई छोटा किसान बनाम बड़ा किसान हो जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
सवाल...जो कर रहे परेशान
- कानून पर इतनी जल्दबाजी क्यों दिखाई?
- सभी पक्षों से बात क्यों नहीं की?
- कानून वापस ही लेना था तो इतनी देरी क्यों?
- आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों का क्या?
- लखीमपुर खीरी मामले में गृह राज्यमंत्री के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं?
पश्चिम यूपी की 100 सीटों पर नजर
उत्तर प्रदेश के चुनाव भाजपा और सरकार के लिए अहम है। आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र वही पश्चिम यूपी है, जहां पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त सफलता मिली थी। विधानसभा चुनाव में पार्टी को इस क्षेत्र की 110 सीटों में से 88 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। लोकसभा चुनाव में अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे।
मगर इस आंदोलन ने मुजफ्फरनगर दंगे से उपजी जाट-मुसलमान बिरादरी की दूरी को पाटना शुरू कर दिया। किसान पंचायतों में इन बिरादरी के नेताओं ने गिले शिकवे दूर करने की कसमें खाई। फिर सपा ने रालोद से गठबंधन का पुख्ता संदेश दिया। भाजपा को डर था कि अजित सिंह की मौत से उपजी सहानुभूति और किसान आंदोलन इस क्षेत्र में जाट-मुस्लिम एकता को पुराना और मजबूत जीवन दे सकता है।
अखिलेश की रणनीति
सपा की ओर से रालोद को तीस से अधिक सीटें देने की चर्चा है। दरअसल सपा को पता है कि अलग-अलग लड़ने पर जाट बिरादरी उसके पक्ष में वोट नहीं करेगी। इसके अलावा इस बार पश्चिम उत्तर प्रदेश का मुसलमान उसी पार्टी के साथ जाएगा जिसका असर जाट बिरादरी में ज्यादा होगा। यही कारण है कि अखिलेश ने इस क्षेत्र में जयंत पर दांव लगाने का फैसला किया। दरअसल इस क्षेत्र की पांच दर्जन ऐसी सीटें हैं, जहां मुस्लिम-जाट एकता से भाजपा के सियासी समीकरण गड़बड़ा सकते हैं।
उत्तराखंड का भी टेंशन
भाजपा नेतृत्व तब सतर्क हुआ जब उसे उत्तराखंड में नकारात्मक प्रभाव की रिपोर्ट मिली। राज्य के देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर की 30 सीटों में से 19 पर किसानों का व्यापक प्रभाव है।
पंजाब में भाजपा अलग-थलग
भाजपा पंजाब में अलग-थलग पड़ गई। अकाली दल ने राजग से नाता तोड़ लिया। किसानों के विरोध के कारण पार्टी के नेताओं का क्षेत्रों में निकलना मुश्किल हो गया। कानून वापसी के बाद अब अकाली दल के फिर से साथ आने या अमरिंदर सिंह के रूप में नया साथी मिलने की संभावना है।
विस्तार
तीन कृषि कानूनों पर राजनीति का पहिया उल्टी दिशा में घूम गया है। पहले अडिग दिखने वाली सरकार न सिर्फ कानून वापस लेने के बाद भी सियासी मैदान में बैकफुट पर है, जबकि किसान संगठन फ्रंट फुट पर हैं। सरकार की उम्मीदों के विपरीत कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद किसान आंदोलन खत्म होने के बदले पहले से ज्यादा संगठित और मजबूत हुआ है।
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कानून वापसी की घोषणा के बाद भी सरकार नाराज किसानों को मनाने के लिए जद्दोजहद में जुटी है, जबकि किसान संगठन सरकार को और अधिक झुका कर दूसरी मांगों पर भी मुहर लगवा लेना चाहता है। सरकार को उम्मीद थी कि कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा किसान आंदोलन को खत्म करने में जादू की छड़ी की भूमिका निभाएगी।
हालांकि किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी, लखीमपुर खीरी की घटना में गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा की गिरफ्तारी और आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों को मुआवजे के साथ उनके नाम पर स्मारक बनाने की मांग पर अड़े हुए हैं। जाहिर तौर पर कानून वापसी की घोषणा ने किसान आंदोलन को नई मजबूती दी है।
कृषि कानूनों के बाद सरकार बैकफुट पर है तो किसान संगठन फ्रंट फुट पर हैं। पहली बार दबाव में आई सरकार को किसान संगठन और दबाव में लाना चाहते हैं। सरकार को शीतकालीन सत्र में विपक्ष के मुश्किल सवालों से जूझना है।
इसके अलावा उसके सामने विधानसभा चुनावों से पूर्व किसानों की नाराजगी दूर करने की चुनौती है। सरकार में किसान सम्मान निधि की राशि बढ़ाने, एमएसपी पर तर्कसंगत निर्णय करने, गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के राजनीतिक भविष्य का फैसला करने को ले कर लगातार मंथन हो रहा है।
कहां चूकी सरकार?
शुरुआती लापरवाही के कारण पंजाब से शुरू आंदोलन का दायरा फैलता चला गया और इसकी तपिश हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तक महसूस की जाने लगी। इनमें पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान मुख्य रूप से गन्ना उत्पादक हैं। गन्ना की कीमतों के मुद्दे पर किसान पहले से नाराज थे। किसानों की यह नाराजगी आंदोलन के समर्थन में तब्दील हो गई।
क्यों पीछे हटी सरकार?
कृषि कानून को वापस लेने का फैसला सारे दांव के असफल रहने के बाद लिया गया। सरकार को उम्मीद थी कि लंबा खिंचने के कारण यह आंदोलन ‘शाहीनबाग’ की तर्ज पर खत्म हो जाएगा। उम्मीद थी कि आगे चल कर यह लड़ाई छोटा किसान बनाम बड़ा किसान हो जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
सवाल...जो कर रहे परेशान
- कानून पर इतनी जल्दबाजी क्यों दिखाई?
- सभी पक्षों से बात क्यों नहीं की?
- कानून वापस ही लेना था तो इतनी देरी क्यों?
- आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों का क्या?
- लखीमपुर खीरी मामले में गृह राज्यमंत्री के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं?
पश्चिम यूपी की 100 सीटों पर नजर
उत्तर प्रदेश के चुनाव भाजपा और सरकार के लिए अहम है। आंदोलन का प्रभाव क्षेत्र वही पश्चिम यूपी है, जहां पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबर्दस्त सफलता मिली थी। विधानसभा चुनाव में पार्टी को इस क्षेत्र की 110 सीटों में से 88 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। लोकसभा चुनाव में अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे।
मगर इस आंदोलन ने मुजफ्फरनगर दंगे से उपजी जाट-मुसलमान बिरादरी की दूरी को पाटना शुरू कर दिया। किसान पंचायतों में इन बिरादरी के नेताओं ने गिले शिकवे दूर करने की कसमें खाई। फिर सपा ने रालोद से गठबंधन का पुख्ता संदेश दिया। भाजपा को डर था कि अजित सिंह की मौत से उपजी सहानुभूति और किसान आंदोलन इस क्षेत्र में जाट-मुस्लिम एकता को पुराना और मजबूत जीवन दे सकता है।
अखिलेश की रणनीति
सपा की ओर से रालोद को तीस से अधिक सीटें देने की चर्चा है। दरअसल सपा को पता है कि अलग-अलग लड़ने पर जाट बिरादरी उसके पक्ष में वोट नहीं करेगी। इसके अलावा इस बार पश्चिम उत्तर प्रदेश का मुसलमान उसी पार्टी के साथ जाएगा जिसका असर जाट बिरादरी में ज्यादा होगा। यही कारण है कि अखिलेश ने इस क्षेत्र में जयंत पर दांव लगाने का फैसला किया। दरअसल इस क्षेत्र की पांच दर्जन ऐसी सीटें हैं, जहां मुस्लिम-जाट एकता से भाजपा के सियासी समीकरण गड़बड़ा सकते हैं।
उत्तराखंड का भी टेंशन
भाजपा नेतृत्व तब सतर्क हुआ जब उसे उत्तराखंड में नकारात्मक प्रभाव की रिपोर्ट मिली। राज्य के देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर की 30 सीटों में से 19 पर किसानों का व्यापक प्रभाव है।
पंजाब में भाजपा अलग-थलग
भाजपा पंजाब में अलग-थलग पड़ गई। अकाली दल ने राजग से नाता तोड़ लिया। किसानों के विरोध के कारण पार्टी के नेताओं का क्षेत्रों में निकलना मुश्किल हो गया। कानून वापसी के बाद अब अकाली दल के फिर से साथ आने या अमरिंदर सिंह के रूप में नया साथी मिलने की संभावना है।