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India Lockdown Movie Review in Hindi by Pankaj Shukla Madhur Bhandarkar Prateik Babbar Shweta Basu Prasad
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India Lockdown Movie Review: लॉकडाउन के दिनों के हिला देने वाले किस्से, मधुर ने दोहराया ओल्ड स्कूल सिनेमा
मार्च 2020 में कोरोना की खबरें आम बातचीत में शामिल होने लगी थीं, फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ की कहानी वहीं से शुरू होती है। कुछ अनहोनी की आहट लोगों को सुनाई दे रही है।
प्रतीक बब्बर
,
श्वेता बसु प्रसाद
,
सई ताम्हणकर
,
प्रकाश बेलवाडी
,
ऋषिता भट्ट
और
अहाना कुमरा
लेखक
अमित जोशी
और
आराधना साह
निर्देशक
मधुर भंडारकर
निर्माता
जयंतीलाल गडा
,
प्रणव जैन
और
मधुर भंडारकर
रिलीज डेट
2 दिसंबर 2022
ओटीटी
जी5
रेटिंग
2/5
विस्तार
सिनेमा एक कला है और कला वही है जो शांति में हलचल पैदा करे या हलचल को शांत करे। मधुर भंडारकर का सिनेमा इसी एक लाइन के पैमाने पर लंबे अरसे तक सधी हुई कदमताल करता रहा। उनकी साधना का ही नतीजा रहा कि उन्हें हिंदी सिनेमा की चंद बेहतरीन फिल्मों के रचयिता के रूप में याद रखा जाता है। लेकिन, साधक के लिए जरूरी ये भी है कि वह अपने चिंतन, मनन और अर्चना को दूषित न होने दे और ऐसा करने के लिए उसे अपने आसपास के उन लोगों से उसे दूर रहना होता है जो उसकी सोचने की प्रक्रिया को दूषित कर देते हैं। मधुर भंडारकर अपने करियर के संक्रमण काल से लंबे समय से गुजर रहे हैं। दर्शकों को भीतर से झकझोर देने वाली बस एक कहानी अगर वह कहानी की अंतर्धारा के साथ परदे पर ले आए, तो उनके अच्छे दिन लौट सकते हैं। उसके पहले उनके प्रशंसकों को ‘इंदु सरकार’, ‘बबली बाउंसर’ या फिर अब ‘इंडिया लॉकडाउन’ ही देखना है।
लॉकडाउन मूवी रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
कहानी कोरोना काल की
मार्च 2020 में कोरोना की खबरें आम बातचीत में शामिल होने लगी थीं, फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ की कहानी वहीं से शुरू होती है। कुछ अनहोनी की आहट लोगों को सुनाई दे रही है। जिसको नाना बनना है, वह उत्साहित भी है और संक्रमण के खतरों से आशंकित भी। घर में काम करने वाली के चेहरे पर आई बेबसी को देख वह एक महीने का अग्रिम वेतन भी देता है। मां को नर्स की नौकरी लगने की बात कहकर आई युवती कोठे पर ब्लैकमेलिंग का शिकार हो रही है। एक दृश्य में वह कहती है कि जो काम हम पैसे लेकर करते हैं, दूसरी युवतियां उसे मुफ्त में क्यों करने देती हैं, साथ वाली युवती समझाती है कि नहीं वे भी इसके बदले बहुत कुछ पाती हैं। मधुर भंडारकर जैसे संवेदनशील फिल्म निर्देशक से उनके सिनेमा में स्त्री पुरुषों के संबंधों पर इतनी छिछोरी टिप्पणी डराती है। और, ये भी दर्शाती है कि मधुर भंडारकर शायद अब भी 20 साल पुराने सिनेमा की सोच में ही अटके हैं।
लॉकडाउन मूवी रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
अंतर्धारा को उभारने में नाकाम
फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ में कहने को चार कहानियां समानांतर चलती हैं। लेकिन, मधुर का कथा कथन श्वेता बसु प्रसाद पर खास मेहरबान है। देह व्यापार करने वालों पर टूटे लॉकडाउन के कहर की इस कहानी में इतना कुछ है कहने को इस पर अलग से एक फिल्म बन सकती थी जैसी विनोद कापड़ी ने ‘1232 किमी’ सिर्फ अप्रवासी मजदूरों की यात्रा पर बनाई। मधुर कहानी सही पकड़ते हैं। उसके भीतर पैठने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन न वह इस डुबकी दबाव सहन कर पाते हैं, न ही अब उनमें देर तक सांस रोकने का हुनर बाकी है। वह खुद से उकताए निर्देशक दिखने लगे हैं। एक बात ठीक से जम नहीं पाती और वह कूदकर दूसरी डाल पर चले जाते हैं। फिल्म की एक कहानी उन गरीबों की भी है जिनके लिए सौ रुपये की एक जोड़ी चप्पल खरीदना भी जिगर का काम है। और, चौथी कहानी उस युवा जोड़े की है जिसे कौमार्य भंग करने में मंगल ग्रह की यात्रा कर आने जैसा रोमांच पाना है।
लॉकडाउन मूवी रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
कहानी है, पर एहसास नहीं
सिनेमा लोकमनोरंजन का माध्यम है और लोक तक सिनेमा पहुंचाने के लिए मधुर भंडारकर को इस लोक के अलग अलग रंग देखने जरूरी हैं। वह मुंबई में बसे उन शहरों को तो देख पा रहे हैं जिनका आमतौर पर समझ आने वाली मुंबई से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन इस आबादी में वह पैदल नहीं गुजर रहे हैं। वह मर्सिडीज कार में बैठकर ये दुनिया खिड़की की दूसरी तरफ से देख रहे हैं। फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ बस यही मात खा जाती है। देश की भौगोलिक परिस्थिति का ज्ञान न उनको है और न उनकी फिल्म लिखने वालों को। इस फिल्म की कथा, पटकथा और इसके संवाद फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। अमित जोशी और आराधना साह ने यहां एक ऐसे निर्देशक को लगातार भारत को जानने के भ्रम में बनाए रखा है, जिसने मुंबई को ही इंडिया माना हुआ है।
लॉकडाउन मूवी रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
प्रतीक और श्वेता की मेहनत
बदलते दौर के सिनेमा में कलाकारों की अदाकारी और उनका किरदारों के चोले को कायदे से ओढ़ना बहुत अहम हो चला है। इस मामले में फिल्म के दो कलाकार प्रतीक बब्बर और श्वेता बसु प्रसाद ने बेहतरीन काम किया है। प्रतीक ने अपनी आरामगाह (कंफर्ट जोन) से बाहर आकर जो किरदार किया है, उसमें उनकी मेहनत देखने लायक है। मधुर ने मौका भी प्रतीक को भरपूर दिया है। श्वेता बसु प्रसाद अपने अभिनय से ज्यादा अपने उन संवादों से चौंकाती हैं, जो शायद इस तरह के व्यापार में लगी युवतियों के लिए आम बोलचाल ही होती होगी। इस किरदार में उनका बिंदास और बेलौस अंदाज जमता है। लेकिन मधुर न तो प्रतीक के किरदार को पूरी तरह खुलकर परदे पर सामने आने देते हैं और श्वेता के अभिनय को देखकर भी यही लगता है कि अगर इस किरदार को ही ठीक से निखारा गया होता तो बात कुछ और होती।
लॉकडाउन मूवी रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
थिएटर से गिरी ओटीटी पर अटकी
ओटीटी पर रिलीज होने वाली फिल्मों की अब धीरे धीरे दो श्रेणियां बनती जा रही हैं। एक तो वे फिल्में जो बनती ही हैं सीधे ओटीटी पर रिलीज होने के लिए जैसे ‘मोनिका ओ माई डार्लिंग’ ‘धमाका’ या ‘कला’ और दूसरी वे फिल्में जिन्हें पूरी होने के बाद सिनेमाघर नहीं मिलते, जैसे, ‘कठपुतली’, ‘बॉब बिस्वास’, ‘फ्रेडी’ और ‘इंडिया लॉकडाउन’। कोरोना काल इंसानी इतिहास की एक ऐसी याद है जिसे अब कोई याद भी नहीं करना चाहता। अच्छा हो या बुरा, वक्त बीत ही जाता है और अच्छे वक्त में जाकर उसे फिर से जीना तो शायद कुछ लोग चाहें भी लेकिन बीते हुए बुरे वक्त को फिर से परदे पर देखना भी और इतने हल्केपन से शायद ही कोई पसंद करे। फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ के साथ भी यही दिक्कत है।
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