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‘कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता-एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।’ दुष्यंत कुमार का यह शेर किसान हरविंदर सिंह, रंजीत सिंह वर्मा और रघुवरदत्त मुरारी की संघर्ष की कहानी में हकीकत नजर आया।
हर कहानी एक मिसाल है। सिर्फ एक शख्स की कोशिश ने पूरे क्षेत्र को खुशहाल कर दिया। सीख भी दी कि पूंजी नहीं भी है तो भी एक छोटी शुरुआत बड़ी कामयाबी हो सकती है।
इंस्टीट्यूट आफ इंजीनियर्स के सभागार में शनिवार शाम मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र के कार्यक्रम के नजारे को किसानों की दास्तान ने दिलचस्प बना दिया। पेश है इन तीन किसानों की सक्सेस स्टोरी।
किसान-हरविंदर सिंह, ग्राम-जोड़ापुर। शिक्षा-पढ़े-लिखे नहीं हैं। सात बीघा जमीन का चक, बेकार पड़ा रहता था। घास भी ढंग से न उगती। दूसरी जमीन बारिश पर निर्भर थी।
बारिश हुई तो गेहूं हो जाता था। क्षेत्र में पानी के लिए एक पोखर था। परिवार पर गरीबी फन फैलाए खड़ी थी। बताते हैं कि कृषक गोष्ठियों में जाकर हल खोजा करते थे। एक दिन कुछ करने की ठानी।
जमीन पर 20-20 फुट की दूरी पर आम के पेड़ लगाए। बीच की जगह में पपीता लगाया। लेकिन पैसे की फौरी जरूरत थी। इसके बीच जो जमीन बची उसमें टमाटर लगा दिया। एक इंच जमीन खाली न छोड़ी।
खेत की मेड़ पर हाथी घास लगा दी, जो बिना पानी होती है। जानवरों को बहुत पसंद है। घास में पानी बहुत होता है। छह महीने में 10 हजार रुपए सब्जी से कमाए तो हौसला बढ़ गया। फिर ट्यूबवेल लगाया।
गांव के सारे लोगों ने यही फार्मूला अपनाया है। इस वक्त घर में गाय-भैंस, ट्रैक्टर, कार है। दो बेटे डिप्लोमा कर रहे हैं।
किसान-रंजीत सिंह वर्मा, ग्राम तटोल, जिला सोलन। शिक्षा- इंटरमीडिएट, आईटीआई। रंजीत ने क्वालिटी वाली सब्जियों के लिए अपना जीवन वक्फ किया है।
सब्जी के कारोबार से एक तो उन्होंने खुद अपने को खुशहाल किया और प्राकृतिक संसाधनों से ऐसी सब्जी उगाई जिसमें नुकसानदेह रसायन न हों। इसके लिए रंजीत खुद खाद बनाते हैं। वे कंपनियों की खाद नहीं खरीदते।
गोबर इकट्ठा करके उसमें केंचुए छोड़ देते हैं जो खाद बनाते हैं। इसके साथ ही गोबर, गौमूत्र और गुड़ डालकर भी खाद बनाते हैं।
कहते हैं कि इस खाद से तैयार किया गया गोभी, मटर, गेहूं में पूरे पौष्टिक तत्व होते हैं। दूसरी रसायन की खाद से तैयार सब्जियों की तरह इसमें नुकसानदेह तत्व नहीं होते। सब्जियों की प्राकृतिक खुशबू रहती है।
गोभी एक हफ्ते तक फ्रेश रहता है। शुरु आत में लोगों ने भले ही मेरे कार्य को सनक कहा था लेकिन अब दूसरे भी इसे अपना रहे हैं।
एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पालमपुर के कृषि विज्ञानियों ने जब उनकी सब्जियों की जांच की तो भरपूर पौष्टिक तत्व निकले। बताते हैं कि अब उनका तरीका एक मॉडल के तौर पर यूनिवर्सिटी पेश करती है।
किसान-रघुवरदत्त मुरारी, ग्राम-लोहा घाट गांव (चंपावत)। शिक्षा-एमए (इतिहास)। घर के हालत खराब थे। एम तो कर लिया लेकिन कंप्टीशन की तैयारी न कर सके। जो स्थिति थी उसी को सुधारने में जुटे।
थोड़ी सी जमीन पर खेती शुरू की। पहाड़ की ढलवां जमीन पर पानी न रुकता। पहली बार पॉली मल्च का प्रयोग किया। क्यारीनुमां खेत में मल्च बिछाते। जहां से पेड़ निकलता उतनी पॉलीथिन काट देते।
बताते हैं कि इससे फायदा यह हुआ कि खर-पतवार नहीं उगते। जमीन में नमी बनी रहती। निराई-गुड़ाई की भी जरूरत नहीं। अधिक बारिश होने पर पौधे और मिट्टी नहीं बहती।
पहली बार 1080 पौधे लगाकर 15 कुंतल शिमला मिर्च पैदा की। मल्च से पौधा अधिक देर तक टिका रहता है। पैदावार पांच से छह गुना अधिक होती है।
इसके साथ ही मुर्गी पालन, मत्स्य पालन को खेती से जोड़ा। ग्रास कार्प मछली पालते हैं जो गोभी का पत्ता खाती हैं। मुर्गियों का बचा फीड तालाब में डालते हैं कुछ मछली खाती हैं और कुछ पानी में घुल जाता है।
इस पानी से सिंचाई करते हैं जिससे फसल उपजाऊ हो जाती है। अपनी तकनीक दूसरों को सिखाने के लिए फार्म स्कूल का संचालन कर रहे हैं।
‘कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता-एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।’ दुष्यंत कुमार का यह शेर किसान हरविंदर सिंह, रंजीत सिंह वर्मा और रघुवरदत्त मुरारी की संघर्ष की कहानी में हकीकत नजर आया।
हर कहानी एक मिसाल है। सिर्फ एक शख्स की कोशिश ने पूरे क्षेत्र को खुशहाल कर दिया। सीख भी दी कि पूंजी नहीं भी है तो भी एक छोटी शुरुआत बड़ी कामयाबी हो सकती है।
इंस्टीट्यूट आफ इंजीनियर्स के सभागार में शनिवार शाम मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र के कार्यक्रम के नजारे को किसानों की दास्तान ने दिलचस्प बना दिया। पेश है इन तीन किसानों की सक्सेस स्टोरी।
मिट्टी को बनाया सोना
किसान-हरविंदर सिंह, ग्राम-जोड़ापुर। शिक्षा-पढ़े-लिखे नहीं हैं। सात बीघा जमीन का चक, बेकार पड़ा रहता था। घास भी ढंग से न उगती। दूसरी जमीन बारिश पर निर्भर थी।
बारिश हुई तो गेहूं हो जाता था। क्षेत्र में पानी के लिए एक पोखर था। परिवार पर गरीबी फन फैलाए खड़ी थी। बताते हैं कि कृषक गोष्ठियों में जाकर हल खोजा करते थे। एक दिन कुछ करने की ठानी।
जमीन पर 20-20 फुट की दूरी पर आम के पेड़ लगाए। बीच की जगह में पपीता लगाया। लेकिन पैसे की फौरी जरूरत थी। इसके बीच जो जमीन बची उसमें टमाटर लगा दिया। एक इंच जमीन खाली न छोड़ी।
खेत की मेड़ पर हाथी घास लगा दी, जो बिना पानी होती है। जानवरों को बहुत पसंद है। घास में पानी बहुत होता है। छह महीने में 10 हजार रुपए सब्जी से कमाए तो हौसला बढ़ गया। फिर ट्यूबवेल लगाया।
गांव के सारे लोगों ने यही फार्मूला अपनाया है। इस वक्त घर में गाय-भैंस, ट्रैक्टर, कार है। दो बेटे डिप्लोमा कर रहे हैं।
खुद खाद बनाकर उगाई सब्जी
किसान-रंजीत सिंह वर्मा, ग्राम तटोल, जिला सोलन। शिक्षा- इंटरमीडिएट, आईटीआई। रंजीत ने क्वालिटी वाली सब्जियों के लिए अपना जीवन वक्फ किया है।
सब्जी के कारोबार से एक तो उन्होंने खुद अपने को खुशहाल किया और प्राकृतिक संसाधनों से ऐसी सब्जी उगाई जिसमें नुकसानदेह रसायन न हों। इसके लिए रंजीत खुद खाद बनाते हैं। वे कंपनियों की खाद नहीं खरीदते।
गोबर इकट्ठा करके उसमें केंचुए छोड़ देते हैं जो खाद बनाते हैं। इसके साथ ही गोबर, गौमूत्र और गुड़ डालकर भी खाद बनाते हैं।
कहते हैं कि इस खाद से तैयार किया गया गोभी, मटर, गेहूं में पूरे पौष्टिक तत्व होते हैं। दूसरी रसायन की खाद से तैयार सब्जियों की तरह इसमें नुकसानदेह तत्व नहीं होते। सब्जियों की प्राकृतिक खुशबू रहती है।
गोभी एक हफ्ते तक फ्रेश रहता है। शुरु आत में लोगों ने भले ही मेरे कार्य को सनक कहा था लेकिन अब दूसरे भी इसे अपना रहे हैं।
एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पालमपुर के कृषि विज्ञानियों ने जब उनकी सब्जियों की जांच की तो भरपूर पौष्टिक तत्व निकले। बताते हैं कि अब उनका तरीका एक मॉडल के तौर पर यूनिवर्सिटी पेश करती है।
जुगाड़ से जीते हालात
किसान-रघुवरदत्त मुरारी, ग्राम-लोहा घाट गांव (चंपावत)। शिक्षा-एमए (इतिहास)। घर के हालत खराब थे। एम तो कर लिया लेकिन कंप्टीशन की तैयारी न कर सके। जो स्थिति थी उसी को सुधारने में जुटे।
थोड़ी सी जमीन पर खेती शुरू की। पहाड़ की ढलवां जमीन पर पानी न रुकता। पहली बार पॉली मल्च का प्रयोग किया। क्यारीनुमां खेत में मल्च बिछाते। जहां से पेड़ निकलता उतनी पॉलीथिन काट देते।
बताते हैं कि इससे फायदा यह हुआ कि खर-पतवार नहीं उगते। जमीन में नमी बनी रहती। निराई-गुड़ाई की भी जरूरत नहीं। अधिक बारिश होने पर पौधे और मिट्टी नहीं बहती।
पहली बार 1080 पौधे लगाकर 15 कुंतल शिमला मिर्च पैदा की। मल्च से पौधा अधिक देर तक टिका रहता है। पैदावार पांच से छह गुना अधिक होती है।
इसके साथ ही मुर्गी पालन, मत्स्य पालन को खेती से जोड़ा। ग्रास कार्प मछली पालते हैं जो गोभी का पत्ता खाती हैं। मुर्गियों का बचा फीड तालाब में डालते हैं कुछ मछली खाती हैं और कुछ पानी में घुल जाता है।
इस पानी से सिंचाई करते हैं जिससे फसल उपजाऊ हो जाती है। अपनी तकनीक दूसरों को सिखाने के लिए फार्म स्कूल का संचालन कर रहे हैं।