दक्षिण चीन सागर पर अपना दावा जताने के लिए चीन की बढ़ती गतिविधियों से अमेरिका में चिंता बढ़ी हैं। अमेरिका को अंदेशा है कि चीन उस इलाके में दूसरे देशों के जहाजों की आवाजाही रोकने की तैयारी कर रहा है। अमेरिकी विश्लेषकों के मुताबिक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चीन अपनी दादागिरी दिखाने लगा है। तीन दशक पहले सोवियत संघ के बिखराव के बाद से अमेरिका को इस तरह की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन अब सूरत बदल रही है।
दादागिरी चीनी सभ्यता का हिस्सा नहीं
चीन अभी भी ऐसी आशंकाओं का खंडन करता है। बल्कि बीते 25 दिसंबर को सोवियत संघ के विखंडन की 30वीं बरसी के मौके पर चीनी मीडिया में ऐसी चर्चाओं की भरमार रही, जिनमें कहा गया कि सोवियत संघ का वह हाल उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं की वजह से हुआ। इस मौके पर चीन की फुदान यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर वेन यांग की एक किताब की खास चर्चा हुई। उस किताब में उन्होंने कहा है कि वैश्विक दादा बनने की महत्त्वाकांक्षा की वजह से ही सोवियत संघ खत्म हुआ। इस किताब में उन्होंने दावा किया है कि दादागिरी चीनी सभ्यता का हिस्सा नहीं है।
लेकिन पश्चिमी विश्लेषकों के मुताबिक चीन का व्यवहार उसके ऐसे दावों के उलट है। उसने न सिर्फ अपने पड़ोसी देशों को धमकाने और उनके क्षेत्रों पर कब्जा जमाने की नीति अपना रखी है, बल्कि अमेरिका सहित उसके सहयोगी देशों के साथ संबंध में उसके सुर लगातार कड़वे होते चले गए हैं। इसी वजह से पश्चिमी राजधानियों में ये राय बनी है कि चीन दुनिया पर अपना शिकंजा कसना चाहता है।
अमेरिका के राजनीति-शास्त्री ग्राहम टी एलिसन पहले ही ये चेतावनी दे चुके हैं कि चीनी महत्त्वाकांक्षा को रोकने के लिए अमेरिका युद्ध तक का सहारा ले सकता है। उन्होंने अपनी किताब डेस्टाइंड फॉर वॉर में लिखा है कि अभी चीन का दुनिया पर वर्चस्व है या नहीं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। लेकिन वह ऐसे तेवर दिखा रहा है।
लेकिन प्रोफेसर एलिसन भी वेन यांग की इस टिप्पणी से सहमत हैं कि वर्चस्व कायम करने की कोशिशें महाशक्तियों के लिए हानिकारक साबित होती हैँ। उन्होंने लिखा है- ‘सोवियत साम्राज्य की विफलता की जड़ मार्क्सवादी सिद्धांत या सोशलिस्ट सिस्टम में नहीं थी। बल्कि यह दादागिरी कायम करने की उसकी गुमराह नीति का परिणाम था।’
खामोश दर्शक बना हुआ था चीन
सोवियत बिखराव की तीसवीं बरसी पर चल रही चर्चाओं के दौरान जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि जब शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तीखी प्रतिस्पर्धा चल रही थी, तब चीन एक खामोश दर्शक की भूमिका में था। सोवियत संघ के खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक उसने ऐसे संकेत नहीं दिए कि वह अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देना चाहता है। लेकिन हाल के वर्षों में पास-पड़ोस से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक जिस तरह अपने अपने पांव फैलाने की कोशिश की है, उससे पश्चिमी देशों के कान खड़े हुए हैं।
लेकिन विशेषज्ञों ने चीन को चेतावनी दी है कि इस रास्ते पर चलना उसके लिए नुकसान का सौदा साबित होगा। उन्होंने अतीत के अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा है कि वर्चस्व कायम करने की कोशिश में बड़े देश राजकोषीय घाटे और दूसरी आर्थिक समस्याओं का शिकार हो जाते हैं। यह उनके विनाश की वजह बनता है।
विस्तार
दक्षिण चीन सागर पर अपना दावा जताने के लिए चीन की बढ़ती गतिविधियों से अमेरिका में चिंता बढ़ी हैं। अमेरिका को अंदेशा है कि चीन उस इलाके में दूसरे देशों के जहाजों की आवाजाही रोकने की तैयारी कर रहा है। अमेरिकी विश्लेषकों के मुताबिक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चीन अपनी दादागिरी दिखाने लगा है। तीन दशक पहले सोवियत संघ के बिखराव के बाद से अमेरिका को इस तरह की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन अब सूरत बदल रही है।
दादागिरी चीनी सभ्यता का हिस्सा नहीं
चीन अभी भी ऐसी आशंकाओं का खंडन करता है। बल्कि बीते 25 दिसंबर को सोवियत संघ के विखंडन की 30वीं बरसी के मौके पर चीनी मीडिया में ऐसी चर्चाओं की भरमार रही, जिनमें कहा गया कि सोवियत संघ का वह हाल उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं की वजह से हुआ। इस मौके पर चीन की फुदान यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर वेन यांग की एक किताब की खास चर्चा हुई। उस किताब में उन्होंने कहा है कि वैश्विक दादा बनने की महत्त्वाकांक्षा की वजह से ही सोवियत संघ खत्म हुआ। इस किताब में उन्होंने दावा किया है कि दादागिरी चीनी सभ्यता का हिस्सा नहीं है।
लेकिन पश्चिमी विश्लेषकों के मुताबिक चीन का व्यवहार उसके ऐसे दावों के उलट है। उसने न सिर्फ अपने पड़ोसी देशों को धमकाने और उनके क्षेत्रों पर कब्जा जमाने की नीति अपना रखी है, बल्कि अमेरिका सहित उसके सहयोगी देशों के साथ संबंध में उसके सुर लगातार कड़वे होते चले गए हैं। इसी वजह से पश्चिमी राजधानियों में ये राय बनी है कि चीन दुनिया पर अपना शिकंजा कसना चाहता है।
अमेरिका के राजनीति-शास्त्री ग्राहम टी एलिसन पहले ही ये चेतावनी दे चुके हैं कि चीनी महत्त्वाकांक्षा को रोकने के लिए अमेरिका युद्ध तक का सहारा ले सकता है। उन्होंने अपनी किताब डेस्टाइंड फॉर वॉर में लिखा है कि अभी चीन का दुनिया पर वर्चस्व है या नहीं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। लेकिन वह ऐसे तेवर दिखा रहा है।
लेकिन प्रोफेसर एलिसन भी वेन यांग की इस टिप्पणी से सहमत हैं कि वर्चस्व कायम करने की कोशिशें महाशक्तियों के लिए हानिकारक साबित होती हैँ। उन्होंने लिखा है- ‘सोवियत साम्राज्य की विफलता की जड़ मार्क्सवादी सिद्धांत या सोशलिस्ट सिस्टम में नहीं थी। बल्कि यह दादागिरी कायम करने की उसकी गुमराह नीति का परिणाम था।’
खामोश दर्शक बना हुआ था चीन
सोवियत बिखराव की तीसवीं बरसी पर चल रही चर्चाओं के दौरान जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि जब शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तीखी प्रतिस्पर्धा चल रही थी, तब चीन एक खामोश दर्शक की भूमिका में था। सोवियत संघ के खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक उसने ऐसे संकेत नहीं दिए कि वह अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देना चाहता है। लेकिन हाल के वर्षों में पास-पड़ोस से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक जिस तरह अपने अपने पांव फैलाने की कोशिश की है, उससे पश्चिमी देशों के कान खड़े हुए हैं।
लेकिन विशेषज्ञों ने चीन को चेतावनी दी है कि इस रास्ते पर चलना उसके लिए नुकसान का सौदा साबित होगा। उन्होंने अतीत के अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा है कि वर्चस्व कायम करने की कोशिश में बड़े देश राजकोषीय घाटे और दूसरी आर्थिक समस्याओं का शिकार हो जाते हैं। यह उनके विनाश की वजह बनता है।