कलाकार: सिद्धार्थ मल्होत्रा, रितेश देशमुख, तारा सुतारिया, रकुल प्रीत सिंह और नासर आदि।
निर्देशक: मिलाप झावेरी
निर्माता: भूषण कुमार, निखिल आडवाणी आदि
दर्जन भर फिल्में लिखने के बाद मिलाप झावेरी ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म बनाई, जाने कहां से आई है। रितेश से दोस्ती हुई। एक विलेन में ये और गाढ़ी हुई। मिलाप ने 10 फिल्में और लिखी और फिर सारे किए कराए पर मस्तीजादे फेर दिया। भला हो जॉन अब्राहम का जिन्होंने उन पर भरोसा किया और सत्यमेव जयते से मिलाप की निर्देशन की नई पारी शुरू हो सकी। अब मिलाप लेकर आए है मरजावां। सुपरहिट म्यूजिक, दमदार संवाद और बेजोड़ अभिनय, ये मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की मसाला फिल्मों के फॉर्मूले रहे हैं। लेकिन, के के शुक्ला, प्रयागराज और कादर खान जैसे कलम के बाहुबली तब किरदारों में जान फूंक देते थे, मिलाप अपनी फिल्म मरजावां में इसी संजीवनी बूटी को तलाशते आखिर तक दिखे।
मुंबई की धमनियों की जिसने धड़कन नापी है, उसे पता है कि इस शहर में पानी की कीमत क्या है। सरकारी पानी चुराकर जनता को बेचने का इस काम शहर में एक बड़ा माफिया करता है। मिलाप की कहानी का बीज भी यही से पानी पाता है। रघु, विष्णु, जोया, आरजू सब इसकी खाद बनते हैं। माफिया सरगना का सबसे प्यारा प्यादा है रघु। सरगना का बेटा विष्णु का मन उसके कद से भी छोटा है। कश्मीर से आई एक गूंगी लड़की है जिसे संगीत से प्यार है और संगीत पर थिरकने वाली की आरजू है रघु। कुछ कुछ मुकद्दर का सिकंदर और जीत जैसी पगडंडियों पर संभलती कहानी आगे बढ़ती है। विष्णु षडयंत्रकारी है। माया रचता है। रघु को भरमाता है और वह उसके जाल में फंस भी जाता है। स्वामिभक्ति, प्रेम, बलिदान, ईर्ष्या और डाह की इस कहानी को मिलाप 70 और 80 के दशक का सिनेमा बताते हैं।
पहली बात तो ये कि मरजावां 70 और 80 के दशक के सिनेमा का प्रतिबिम्ब कतई नहीं है। हां, ये उसका वैसा ही रीमिक्स जरूर है जैसे इसके दो गाने हैं। सिर्फ सजावट दिखती है। आत्मा का एहसास नहीं होता। लेखक मिलाप किरदार लिख तो लेते हैं, लेकिन निर्देशक मिलाप इसे परदे पर गढ़ने में चूक जाते हैं। किरदार के पास पानी, खाद, हवा सब है बस मिट्टी नही हैं। मिट्टी जिसके लोंदे को एक लेखक चाक पर चढ़ाकर किरदार गढ़ता है। इसी कमी के चलते फिल्म के संवाद नकली लगते हैं और किरदार हवा हवाई। दक्षिण भारतीय फिल्मों जैसा कैमरा मूवमेंट और वैसा ही एक्शन तो मिलाप चुरा लाए हैं, लेकिन वह डीजे या मरसल जैसी कहानियों की आत्मा नहीं समझ पाए।
अदाकारी में सिद्धार्थ मल्होत्रा फिर एक बार जताते हैं कि वह अभिनेता अच्छे हैं, निर्देशक ही उन्हें ढंग के नहीं मिल रहे तो उनका क्या कसूर। हिंदी सिनेमा में वह मिथुन चक्रवर्ती की खाली जगह भरने के बिल्कुल सही उम्मीदवार हैं। रितेश देशमुख का अपना सिनेमाई करिश्मा है और वह इस तीन फुटिया अवतार में उसे घृणा करने तक के स्तर तक लाने में सफल भी रहे। तारा सुतारिया का किरदार ऐसा क्यों रखा गया, उसका कोई सही तर्क लेखक निर्देशक दर्शकों को समझा नहीं पाते। राकुल प्रीत जरूर अपने अलहदा अवतार में चौंकाती हैं। उनका चेहरा आम हीरोइनों से थोड़ा अलग है। उनकी अदाएं भी इस बार बेहतर नजर आईं। नासर को जितना काम मिला उतना उन्होंने सफाई से कर दिया। फिल्म में जो एक और कलाकार अपनी छाप छोड़ जाता है, वह हैं शाद रंधावा।
फिल्म मरजावां के गाने तुम्ही आना ने इस फिल्म के लिए रिलीज से पहले बहुत सही प्लेटफॉर्म तैयार किया। जुबिन नौटियाल ने साबित किया कि मौका मिले तो वह अरिजीत को सही टक्कर दे सकते हैं और इसकी संगीतकार पायल देव ने दिखाया कि संगीत में मधुरता के मायने क्या होते हैं। टी सीरीज को अपनी फिल्मों में रीमिक्स गानों से परहेज करना चाहिए, ये फिल्म की मौलिकता पर असर डालते हैं और फिल्म की छवि बिगाड़ते हैं। 135 मिनट की फिल्म मरजावां एक टाइम पास फिल्म है। ये मिलाप के करियर को आगे बढ़ाने में मदद करती तो नहीं दिखती। हां, सिद्धार्थ, रितेश, तारा और राकुलप्रीत की अदाकारी की ये एक ठीक ठाक शो रील जरूर बन गई है। अमर उजाला मूवी रिव्यू में फिल्म मरजावां को मिलते हैं तीन स्टार।
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