अमर उजाला की खास पेशकश 'खबरों के खिलाड़ी' की पांचवीं कड़ी के साथ एक बार फिर हम आपके सामने ज्वलंत मुद्दों को लेकर हाजिर हैं। यह चुनावी चर्चा अमर उजाला के यूट्यूब चैनल पर लाइव हो चुकी है। इसे रविवार सुबह 9 बजे भी देखा जा सकता है।
बीते कई हफ्तों से राहुल गांधी के आसपास ही चर्चा चल रही है। अब राहुल गांधी सांसद से पूर्व सांसद हो चुके हैं। इस बार की चर्चा इसी मुद्दे पर होगी कि जो हुआ, वो सही हुआ या नहीं और इसका आगामी लोकसभा चुनाव पर कितना असर होगा? ...तो आइए जानते हैं कि इसे लेकर कांग्रेस की क्या संभावित रणनीति हो सकती है, इसके क्या राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं? इस बार की चर्चा में बतौर विश्लेषक अभय दुबे, विनोद अग्निहोत्री, अकु श्रीवास्तव, रास बिहारी और सुमित अवस्थी शामिल रहे। पढ़िए चर्चा के कुछ अंश...
'साल 1978 में जब इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता गई थी तो उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने जोरदार वापसी की थी। ऐसे में सवाल है कि क्या अब भी कांग्रेस ऐसा करने में सक्षम है? राहुल गांधी पर आरोप लग रहे हैं कि वे इस मामले पर देरी से प्रतिक्रिया दे रहे हैं, जब कई विपक्षी नेता, जिनमें ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, के. चंद्रशेखर इस मुद्दे पर मुखर होकर सरकार को घेर रहे हैं। तो क्या कांग्रेस यहां चूक रही है?'
'कहा जा रहा है कि लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी की संसद सदस्यता पर फैसला लेने में जल्दी दिखाई, लेकिन लक्षद्वीप से सांसद मोहम्मद फैसल का आरोप है कि उनकी सजा पर कोर्ट के स्टे के बावजूद उनकी संसद सदस्यता अपील करने के बाद भी बहाल नहीं की गई है। 2004 में वाजपेयी सरकार थी और उम्मीद थी कि वे सत्ता में वापसी करेंगे, लेकिन सोनिया गांधी सड़कों पर निकलीं और यूपीए बनाकर भाजपा को मात दे दी। अब खड़गे को भी यही काम करना चाहिए। सवाल है कि क्या राहुल गांधी मामले पर विपक्ष 2024 में एकजुट हो सकता है? क्या 2024 की लड़ाई में कांग्रेस जनता की हमदर्दी पाने में सफल होगी, इस पर सभी की नजरें रहेंगी।'
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अभय दुबे
'राहुल गांधी मामले का एक कानूनी पहलू है और एक राजनीतिक पहलू है। हम राजनीतिक पहलू पर बात करेंगे। मोरारजी देसाई की सरकार में इंदिरा गांधी की सदस्यता चली गई थी। इसके बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में जोरदार वापसी हुई थी, तो राहुल गांधी के पास भी ये एक मौका है। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान सड़कों पर उतरे थे, अब उनकी रणनीति पर सभी की निगाहें हैं। राहुल गांधी को फिर सड़क पर उतरना चाहिए। 2024 में चुनाव होने हैं, लेकिन उससे एक साल पहले का समय बेहद अहम होता है, जिसमें सत्ता विरोधी लहर को स्थापित किया जाता है।'
'कानून को हथियार के तौर पर विपक्ष के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है और विपक्ष को नकारा बनाने की कोशिश हो रही है। भाजपा की कोशिश है कि अदाणी मामले पर चर्चा ना हो। ऐसे में अब विपक्ष के नेताओं को एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिए और अगर ये पार्टियां अपने-अपने इलाकों में सरकार के खिलाफ आंदोलन बनाने की कोशिश करें तो सत्ता विरोधी लहर को हवा दी जा सकती है।'
'लोकतंत्र में सदन के पीठासीन अधिकारियों का निष्पक्ष रहना बेहद अहम है। सदन में जो भी बात बोलनी हो वो प्रमाणों के साथ बोलने की बात कही जा रही है, लेकिन क्या आजतक ऐसा हुआ है! सांसद कोई खोजी पत्रकार नहीं है, जो तथ्यों के आधार पर बोलेगा? यह संविधान में भी नहीं लिखा है कि सांसद दस्तावेजों और तथ्यों के आधार पर ही बोलेंगे। जहां भी विपक्ष की सरकारें हैं, वहां राज्यपाल चर्चा में हैं। राज्यपाल एग्जीक्यूटिव अथॉरिटी नहीं हैं। राज्यपाल, मुख्यमंत्री पर सवाल नहीं उठा सकते।'
अकु श्रीवास्तव
'शतरंज के खेल में बहुत सी तैयारी की जाती है, शायद यही वजह है कि कांग्रेस द्वारा समय लिया जा रहा है, लेकिन कांग्रेस प्रतिक्रिया में देरी कर रही है। कांग्रेस ने इस मामले की शायद कोई तैयारी नहीं की थी और ये ही कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत है और इसी के चलते कांग्रेस ने अपनी जमीन खोयी है। कांग्रेस का समर्थन जो कोई नेता नहीं कर पाया, वो केजरीवाल ने किया और राजनीति में पेश करने का ढंग बेहद अहम होता है। अब हिंडनबर्ग मामले से किनारे हो जाएगा और राहुल गांधी पर ही चर्चा होगी। विपक्ष को एकजुट करने के लिए ठोस रणनीति होनी चाहिए, तभी गठजोड़ मजबूत होगा। अगर विपक्ष किसी तरह से कर्नाटक का किला फतह कर ले तो ये भी विपक्षी एकता के लिए अहम होगा। विपक्षी पार्टियों को इसके लिए अपनी अस्मिता की लड़ाई को थोड़ा पीछे करना पडे़गा। विपक्ष जन सरोकार से जुड़े मामलों को भी लगातार उठाने में विफल रहा है। यह एक सतत प्रक्रिया है। भाजपा ने इसे बखूबी किया था।'
विनोद अग्निहोत्री
'पवन खेड़ा का मामला तात्कालिक मामला था और इसलिए कांग्रेस ने इस पर त्वरित प्रतिक्रिया दी, लेकिन राहुल गांधी मामले की लड़ाई लंबी है। कर्नाटक का चुनाव सिर पर है और पार्टी नहीं चाहती कि ऐसे समय कई नेता जेल चले जाएं। यही वजह है कि कांग्रेस रणनीति बना रही है और पूरी तैयारी के साथ प्रतिक्रिया देने की तैयारी है। कांग्रेस जिला स्तर पर प्रदर्शन की तैयारी कर रही है और यह लड़ाई लंबी चलेगी। इंदिरा गांधी के समय में भी कांग्रेस ने लंबी लड़ाई लड़ी थी और उसके नतीजे मिले थे। हालांकि, कांग्रेस में फैसले लेने की जड़ता रही है, लेकिन ये मामला कानूनी और राजनीतिक दोनों स्तरों पर लड़ा जाएगा। जल्द ही इस पर सबकुछ साफ हो जाएगा।'
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'कांग्रेस अध्यक्ष ने अभी तक जो प्रतिक्रिया दी, वह काबिलेतारीफ है। खासकर मोदी सरनेम को ओबीसी बताए जाने पर जो उन्होंने सवाल उठाया कि क्या सारे मोदी पिछड़े वर्ग से हैं? नीरव मोदी, सोहराब मोदी आदि लोग तो पिछड़े वर्ग से नहीं हैं। साफ है आने वाले दिनों में सत्ता और विपक्ष का टकराव बढ़ेगा। केजरीवाल, ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर ने जिस तरह से राहुल गांधी के समर्थन में बयान दिया, वह विपक्षी एकता के लिए टर्निंग पॉइंट हो सकता है।'
'उत्तर प्रदेश में मोहम्मद आजम खान और उनके बेटे की सदस्यता तुरंत चली गई, लेकिन भाजपा विधायक विक्रम सैनी के मामले में एक महीने तक इंतजार किया गया। भारत में संसदीय लोकतंत्र की ये विडंबना है, जहां पीठासीन अधिकारियों की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। यहां सत्तारूढ़ पार्टियां हमेशा से पीठासीन अधिकारियों का इस्तेमाल अपने लिए करती हैं। हालांकि, इसके खिलाफ विमर्श होना चाहिए। पीठासीन अधिकारी अगर तथ्य मांगेंगे तो ऐसे तो कोई नहीं बोल पाएगा। सत्ता का दुरुपयोग सभी ने किया है, लेकिन इस देश में विचित्र स्थिति है कि लोग नैतिकता के आधार पर वोट नहीं देते।'
रास बिहारी
'1978 में इंदिरा गांधी के समय से अब तक राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। उस समय कांग्रेस देश के बड़े राज्यों में पकड़ रखती थी और इसी वजह से सत्ता में वापसी कर सकी। आज देखें तो कांग्रेस कमजोर हो चुकी है और विपक्ष एकता सवालों के घेरे में है। यह कानूनी मसला है और कानून के तहत ही राहुल गांधी की सदस्यता गई है। 2013 में लालू यादव की भी सदस्यता गई थी उन्हें भी वापसी का कोई मौका नहीं मिला था। राहुल गांधी अब संसद में नहीं दिखेंगे, ऐसे में क्षेत्रीय दल भी अपने लिए संभावनाएं देख रहे हैं। ऐसे में विपक्षी नेताओं के बयानों को विपक्षी एकजुटता से नहीं, बल्कि पद की लोलुपता से जोड़कर देखना चाहिए।'