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हिंदी साहित्य में पहाड़ों के सौंदर्य को विशेष रूप से रेखांकित करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार गंगा प्रसाद विमल नहीं रहे। मंगलवार शाम को श्रीलंका में एक सड़क दुर्घटना के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। अपने मित्रों और सहकर्मियों के बीच हंसमुख और जिंदादिल स्वभाव के लिए याद किए जाने वाले गंगा प्रसाद विमल के अंतिम क्षणों में यह बात और दुखद रही कि इस दुर्घटना में उनके साथ-साथ उनकी बेटी और टीवी पत्रकार कनुप्रिया और नातिन की भी मौत हो गई।
दुर्घटना के समय वे मटारा से कोलंबो की यात्रा कर रहे थे। श्रीलंका पुलिस के मुताबिक उनके वाहन के ड्राइवर को गाड़ी चलाते समय नींद आ गई थी, जिससे उनका वाहन एक लॉरी से टकरा गया। गंगा प्रसाद विमल से जुड़े रहे साहित्यकारों ने उनके देहावसान को हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति बताया है। उन्होंने जवाहरालाल विश्वविद्यालय, दिल्ली यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी और केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक के रुप में अनेक बड़ी जिम्मेदारियां निभाई थीं। वे 80 वर्ष के थे।
वरिष्ठ हिंदी व्यंगकार गोपाल चतुर्वेदी ने बताया कि उनकी गंगा प्रसाद विमल से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अक्सर मुलाकात होती थी। उन्होंने मेरी (गोपाल चतुर्वेदी की) कई पुस्तकों की समीक्षा लिखी थी। अच्छी मित्रता के बाद भी पुस्तकों की समीक्षा के दौरान वे बेहद कठोर रहा करते थे और हमेशा बेबाकी से अपनी बात कहते थे। हालांकि, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बिल चुकाने को लेकर उनके बीच हमेशा दोस्ताना बहस हो जाती थी। वे अपने दोस्तों पर खुले दिल से खर्च करने वाले इंसान थे।
उन्होंने कहा कि पिछले महीने ही उनसे मुलाकात हुई थी। फोन पर घंटों बात हो जाती थी। घुमक्कड़ी स्वभाव के विमल का अंत भी एक यात्रा के दौरान होगा, यह किसी ने सोचा न था। उन्हें विमल के देहावसान से व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षति हुई है।
अरुण माहेश्वरी स्वयं एक साहित्यकार होने के साथ-साथ एक प्रकाशक भी हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने गंगा प्रसाद विमल की कई पुस्तकों का प्रकाशन किया है। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक गंगा प्रसाद विमल एक सहज, सरल बाल हृदय व्यक्ति थे। बच्चों से उन्हें बहुत प्रेम था। कबीर और सूफी संतों पर उन्होंने न सिर्फ काम किया, बल्कि उनका आनंदित रहने वाला स्वभाव उनके अंदर समाहित हो गया था। मानुसखोर (2013) गंगा प्रसाद विमल का अंतिम उपन्यास था।
इस उपन्यास में भी उन्होंने पहाड़ों की समस्याओं का ही जिक्र किया था। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक गंगा प्रसाद विमल की विचारधारा गंगा नदी के समान पवित्र भी थी और कल्याणकारी भी। उनका लेखन हमेशा विविधता लिए होता था जिसके कारण उन्हें कभी किसी श्रेणी में बांधना संभव नहीं होता था, लेकिन उनके लेखन की गंभीरता पाठकों को वैचारिक सागर की गहराई में ले जाता था।
प्रसिद्ध व्यंगकार सुभाष चंदर ने कहा कि गोपाल प्रसाद विमल उनके बेहद करीबी मित्र थे। उनकी सहज-सरल टिप्पणी भी समसामयिक घटनाओं पर करारा व्यंग्य किया करती थीं। उन्होंने लेखन के तौर पर स्वयं को एक व्यंगकार के रुप में विकसित नहीं किया, लेकिन साहित्यिक चर्चाओं में उनके भाषण ही व्यंगकारों को उनकी लेखनी के लिए खुराक दे दिया करते थे, क्योंकि उनके भाषण सटीक व्यंग से भरे हुए होते थे। उन्होंने विमल जी के देहावसान को अपनी व्यक्तिगत क्षति बताया है।
गोपाल प्रसाद विमल ने अपने लगभग 50 साल के साहित्यिक करियर में सैकड़ों उच्चकोटि की रचनाएं कीं। इनमें कविताएं, उपन्यास और अनुवाद सभी शामिल रहे। लेकिन 'बोधिवृक्ष' (1983) और 'कुछ तो है' विशेष रुप से प्रसिद्ध हुए। इसके अलावा कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, चर्चित कहानियां और समग्र कहानियां कहानी संग्रह काफी लोकप्रिय रहे। अपने से अलग, कहीं कुछ और, मृगांक और मानुसखोर उनके उपन्यासों ने अपने पाठकों पर अमिट छाप छोड़ी।
इसके अलावा उन्होंने कई प्रमुख पुस्तकों का अनुवाद कार्य भी किया। लेकिन प्रकाशक बताते हैं कि उन्होंने अपने लेखन में कहीं भी अनुवाद की छाप नहीं आने दी।
कुछ भी लिखूंगा
बनेगी
तुम्हारी स्तुति
ओ प्यारी धरती।
पहाड़ ही नहीं जन्मे तुमने
न घाटियां क्षितिज तक पहुंचने वाली
फैलाव में
रचा है तुमने आश्चर्य
आश्चर्य की इस खेती में
उगते हैं
निरंतर नए अचरज
मैं नहीं
अंतरिक्ष भी आवाक है
देखकर तुम्हारा तिलिस्म।
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