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Aye Zindagi Movie Review in Hindi by Pankaj Shukla Anirban Bose Revathy Mrinmayee Godbole Satyajeet Dubey
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Aye Zindagi Movie Review: इस सच्ची घटना के लिए ये डॉक्टर बना फिल्म निर्देशक, रुला देगी जिंदगी की भावुक कहानी
नई पीढ़ी को तो खैर नहीं ही मालूम होगा लेकिन एक समय ऐसा भी था जब अभिनेता श्रीराम लागू के अपने नाम से पहले डॉक्टर लिखने पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बाकायदा रोक लगाई थी। डॉक्टरी के पेशे से आकर हिंदी सिनेमा में बतौर कलाकार नाम कमाने वालों की श्रीराम लागू से लेकर मोहन अगाशे और अदिति गोवित्रिकर तक लंबी फेहरिस्त है। अर्को, पलाश सेन और गायक मेयांग चांग भी पेशे से डॉक्टर ही हैं, ये सब अपने शौक को पूरा करने के लिए मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में आए। अमेरिका में प्रैक्टिस करने वाले गुर्दे से संबंधित बीमारियों के डॉक्टर (नेफ्रोलॉजिस्ट) अनिर्बान बोस ने ये काम एक मिशन के तहत किया है। मोहन फाउंडेशन के चंदा इकट्ठा करने वाले एक कार्यक्रम में वह गए और वहां उन्होंने सुनी एक ऐसी सच्ची कहानी कि उन्होंने इस पर फिल्म बनाने की ठान ली। अनिर्बान अपने चिकित्सकीय अनुभवों से उपजी कहानियों पर तीन किताबें पहले ही लिख चुके हैं, लेकिन इस बार मामला एक ऐसा संदेश दुनिया भर में प्रसारित करने का था जिसे सुनने के लिए लिए भी दूसरों को तैयार करना आसान नहीं है, समझाना तो बहुत दूर की कौड़ी है।
ऐ जिंदगी फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
कहानी जिंदगी से दो दो हाथ की
फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ की कहानी और इस पर बात करने से पहले इसके संदेश को समझना जरूरी है। देश में हर साल उतनी मौतें कैंसर से नहीं होतीं जितनी लोगों के विभिन्न अंगों के काम कर देना बंद करने से होती हैं। हर साल करीब पांच लाख लोग सिर्फ किसी समर्थ अंगदाता के इंतजार में मर जाते हैं। और, अंग प्रत्यारोपण सुनने में भले आसान लगे लेकिन जिसे ये उधार के अंग मिलते हैं, उसकी जिंदगी भी अंग प्रत्यारोपण के बाद आसान नहीं होती। यही फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ का सार है। ग्वालियर का एक लड़का लखनऊ में काम करते हुए अपने यकृत (लीवर) के खराब होते जाने की बीमारी से जूझ रहा है। उम्मीद उसे हैदराबाद लेकर आती है और यहां उसे मिलती है एक ग्रीफ काउंसलर, हिंदी में समझें तो एक ऐसी महिला जो ऐसे लोगों को अंगदान के लिए प्रेरित करती है, जिनके किसी परिजन की चिकित्सकीय परिभाषा के हिसाब से मौत हो चुकी है लेकिन उनके सारे अंगों ने अभी काम करना बंद नहीं किया।
ऐ जिंदगी फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
अनिर्बान बोस की ईमानदार कोशिश
अनिर्बान बोस ने एक सच्ची कहानी पर फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ बनाई है। अंग प्रत्यारोपण के अपने ही परिवार में हो चुके एक दुखद अध्याय का गवाह होने के नाते मुझे वह सारी बातें थोड़ा ज्यादा बेहतर तरीके से समझ आती रहीं जो फिल्म में दिखाई जा रही हैं। लेकिन, अनिर्बान ने फिल्म लिखते समय इस बात का खास ध्यान रखा है कि परदे पर जो कुछ कहा या दिखाया जा रहा है, वह उन लोगों की भी समझ में आए जिन्हें मेडिकल साइंस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। यहां कहानी बहुत ही भावुक स्तर पर चलती है। एक युवा जिसने कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाया, उसका यकृत खराब हो गया है। इसके चलते उसका शरीर खराब हो रहा है। आंखें गड्ढों में धंस चुकी हैं। सिर के बाल उड़ रहे हैं। पेट फूलता जा रहा है और उसे खुद भी लगने लगता है कि अब शायद कुछ हो नहीं पाएगा। लेकिन, एक भाई है जो 24 घंटे उसके साथ रहने का फैसला करता है। दफ्तर के उसके सहकर्मी हैं जो अंग प्रत्यारोपण के लिए आर्थिक मदद को आगे आते हैं और एक कंपनी की मुखिया है जो पूरे समूह में इसके लिए सबको आगे आने को कहती है।
ऐ जिंदगी फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
अंगदान का संदेश देती फिल्म
दूसरी तरफ अंग प्रत्यारोपण अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारी हैं। उनकी अपनी पारिवारिक समस्याएं हैं। एक नर्स है जो हबड़ तबड़ में रहने वाले मरीज का मानसिक सहारा बनती है। एक ग्रीफ काउंसलर है जो दूसरों को अंगदान के लिए समझाने वाली इस कहानी की अहम कड़ी है। इस किरदार में हैं शानदार अदाकारा रेवती। रेवती की बतौर निर्देशक एक फिल्म ‘सलाम वेंकी’ भी जल्द ही रिलीज होने वाली है। वह भी जीवन जीने के निश्चय की कहानी है। फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ में इसी उम्मीद की कहानी है। ऐसी कहानी जिसमें डॉक्टर मरीज को बताता है कि अंग प्रत्यारोपण का हर मामला एक ऐसी तय तारीख (एक्सपायरी डेट) के साथ आता है जब उधार का मिला अंग भी काम कर देना बंद कर देगा। हकीकत में अंग प्रत्यारोपण के अधिकतर मामलों में डॉक्टर ये बात बताते नहीं हैं। कम से कम ऐसे मामलों में ये बात परिवार को जरूर बतानी चाहिए जिसमें कोई जीवित व्यक्ति अपने परिवार के दूसरे व्यक्ति की जान बचाने के लिए अंगदान कर रहा है। फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ का फोकस हादसे में मरे लोगों के अंगदान से कम से कम सात लोगों की जिंदगी बच सकने के संदेश पर है।
ऐ जिंदगी फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
मुफ्त में दिखाई जानी चाहिए ये फिल्म
फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ बनाने के लिए इसके निर्देशक अनिर्बान बोस और इसके निर्माता शिलादित्य बोरा दोनों का सम्मान होना चाहिए। और, देश की सारी राज्य सरकारों को ये फिल्म अनिवार्य रूप से टैक्स फ्री करनी चाहिए और हो सके तो स्कूल कॉलेजों में इसका प्रदर्शन भी मुफ्त में अपने खर्च पर कराना चाहिए। ये फिल्म नहीं है। ये युग परिवर्तन की वह संभावित कड़ी है जिससे जुड़कर हर साल लाखों लोगों की जान बचाई जा सकती है। मरने के बाद अंगदान का निश्चय कर लेने भर से देश में उन लाखों परिवारों के घर में उजाला आ सकता है जो अंग प्रत्यारोपण की प्रतीक्षा सूची में अपना नंबर आने के इंतजार में दिन काट रहे हैं। फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ एक सामान्य मनोरंजक फिल्म नहीं है लेकिन 104 मिनट की ये फिल्म देखते समय बोझिल भी नहीं लगती है और इसकी मुख्य वजह है फिल्म में इसके कलाकारों का उम्दा अभिनय और इसकी तकनीकी टीम का फिल्म के भाव के हिसाब से अपना योगदान देना।
ऐ जिंदगी फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
रेवती, सत्यजीत और मृणमयी ने जीते दिल
कलाकारों में रेवती लगातार अच्छा काम करती रही हैं। फिल्म ‘ऐ जिंदगी’ भी उनकी फिल्मी यात्रा का एक अहम पड़ाव है। दूसरों को समझाने वाली महिला अपने ऊपर आए दुख के पहाड़ को ढोने के लिए खुद को कैसे तैयार करती है, ऐसा किरदार करना आसान नहीं है। रेवती ने फिल्म में इस किरदार को जीकर दिखाया है। और, सत्यजीत दुबे! ये कलाकार वाकई कमाल का है। वह बॉलीवुडिया हीरो नहीं है। वह ईमानदार अभिनेता है। सत्यजीत ने पहले एक मरणासन्न युवक के किरदार में और फिर जान बचने के बाद एक अपराध बोध में जीते युवक के रूप में शानदार काम किया है। फिल्म के सहायक कलाकारों में नर्स बनी मृणमयी गोडबोले का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि वह इस बात की तस्दीक करती हैं कि सिनेमा में अभिनय के लिए अप्सरा जैसा दिखना जरूरी नहीं है। फिल्म आपके किसी नजदीकी सिनेमाघर में लगी है या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन, अगर मौका मिले तो इसे देखिएगा जरूर।
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