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वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद आज उस दौर का पर्याय बनी ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन आश्रम के सामने गंगा किनारे भगवान शिव शंकर की मूर्ति आज पहले से विराट रूप में खड़ी है। 16 व 17 जून 2013 को प्रकृति ने ऐसा कहर बरपाया कि उसमें अनेक जिन्दगियां तबाह गई।
गंगा ने जब रौद्र रूप धारण किया तो विश्व पटल पर अपना स्थान बना चुकी भगवान शिव शंकर की मूर्ति भी उसी गंगा में विलीन हो गई। लेकिन आश्रम प्रबंधन द्वारा मूर्ति को पुन: स्थापित कर इसकी पहचान लौटाई गई।
आपदा के बाद अगले कुछ दिनों तक स्थानीय ही नहीं राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया पटल पर अगर किसी स्थान विशेष को कवरेज और फुटेज मिली थी तो वह केदारनाथ के आपपास तबाही और भगवान शंकर की गंगा में बहती हुई मूर्ति ही थी। जिसे आज भी उस दौर की आपदा को याद करते हुए तस्वीरों के रूप में उकेरा जाता है।
उस दौर को याद करते हुए आश्रम के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद मुनि कहते हैं कि हमारे ऋषियों ने भी प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित कर ही जीवन जिया। लेकिन वर्तमान में मनुष्य ने भौतिकवादी परिवेश में अपने पारंपरिक संस्कारों को पीछे छोड़ते हुए, प्राकृतिक परिवेश में कंक्रीट के जंगलों को खड़ा कर दिया है।
सीमेंट व लोहे से बने घर आज हमारी संस्कृति से अभिन्न अंग बन गए हैं। अवैज्ञानिक विकास की इस अंधाधुंध दौड़ ने अनेक बार प्राकृतिक आपदाओं को जन्म दिया है। जब उत्तराखंड में केदारनाथ त्रासदी ने अपना कहर बरपाया था, उस समय सीमेंट व कंक्रीट के जंगल देखते-ही-देखते धराशायी हो गए।
लेकिन प्रकृति-संस्कृति का गठजोड़ बना रहा। हमारे हरे भरे जंगल आज भी खड़े हैं और हम सभी को जीवनदायिनी ऑक्सीजन प्रदान कर रहे हैं। केदारनाथ आपदा की 7वीं बरसी पर स्वामी ने दिवंगत आत्माओं को श्रद्धाजंलि अर्पित करते हुए कहा कि यह प्रकृति का आस्था पर प्रहार था। जो मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए।
2013 में केदारनाथ आपदा ने पहाड़ जाने वाली तमाम सड़कों को उखाड़ फेंका था। आपदा के निशान इस शहर को भी मिले, लेकिन इनके घाव उतने गहरे नहीं थे, जितना सीना पहाड़ का छलनी हुआ था। जब भी आपदा में बिछड़े अपनों को ढूंढने के लिए कोई देश के कोने-कोने से पहाड़ चढ़ने के लिए उतरता उसके कदम तीर्थनगरी आकर ठहर जाते है। वजह, इससे आगे सड़कें पूरी तरह छलनी थीं।
तब, अपनों की तलाश में रोज सैकड़ों की तादाद में लोग यहां पहुंचते और हाथों में फोटो और पोस्टर लेकर सड़क का कोई भी कोना लेकर बैठ जाते। उस वक्त तीर्थनगरी की दीवारें मानों लापता लोगों के फोटो और पोस्टरों से पट गईं थीं। हर कोई इस उम्मीद में यहां पहुंचता की शायद उसके अपनों की खबर कहीं न कहीं से यहां तक तो पहुंच ही जाएगी।
स्थानीय बस अड्डा जैसे एक बड़ा सराय बन गया था। जहां, दिन रात लंगर चलता और अस्पतालों में जगह कम पड़ने पर पहाड़ से यहां तक पहुंचने वाले घायलों का इलाज किया जाता। स्थानीय लोग अपना घर-बार भूलकर विपदा में हारे लोगों की सेवा में दिनरात जुट गए थे। तब तीर्थनगरी की भली मानसी हर किसी ने देखी।
सार
- केदारनाथ आपदा के बाद उस दौर का पर्याय बन गई थी भगवान शिव की यह मूर्ति
- आपदा में मां गंगा ने रौद्र रूप धारण किया तो उसी में समा गई थी शिव की मूर्ति
विस्तार
वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद आज उस दौर का पर्याय बनी ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन आश्रम के सामने गंगा किनारे भगवान शिव शंकर की मूर्ति आज पहले से विराट रूप में खड़ी है। 16 व 17 जून 2013 को प्रकृति ने ऐसा कहर बरपाया कि उसमें अनेक जिन्दगियां तबाह गई।
गंगा ने जब रौद्र रूप धारण किया तो विश्व पटल पर अपना स्थान बना चुकी भगवान शिव शंकर की मूर्ति भी उसी गंगा में विलीन हो गई। लेकिन आश्रम प्रबंधन द्वारा मूर्ति को पुन: स्थापित कर इसकी पहचान लौटाई गई।
आपदा के बाद अगले कुछ दिनों तक स्थानीय ही नहीं राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया पटल पर अगर किसी स्थान विशेष को कवरेज और फुटेज मिली थी तो वह केदारनाथ के आपपास तबाही और भगवान शंकर की गंगा में बहती हुई मूर्ति ही थी। जिसे आज भी उस दौर की आपदा को याद करते हुए तस्वीरों के रूप में उकेरा जाता है।
प्राकृतिक परिवेश में कंक्रीट के जंगलों को खड़ा कर दिया है
उस दौर को याद करते हुए आश्रम के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद मुनि कहते हैं कि हमारे ऋषियों ने भी प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित कर ही जीवन जिया। लेकिन वर्तमान में मनुष्य ने भौतिकवादी परिवेश में अपने पारंपरिक संस्कारों को पीछे छोड़ते हुए, प्राकृतिक परिवेश में कंक्रीट के जंगलों को खड़ा कर दिया है।
सीमेंट व लोहे से बने घर आज हमारी संस्कृति से अभिन्न अंग बन गए हैं। अवैज्ञानिक विकास की इस अंधाधुंध दौड़ ने अनेक बार प्राकृतिक आपदाओं को जन्म दिया है। जब उत्तराखंड में केदारनाथ त्रासदी ने अपना कहर बरपाया था, उस समय सीमेंट व कंक्रीट के जंगल देखते-ही-देखते धराशायी हो गए।
लेकिन प्रकृति-संस्कृति का गठजोड़ बना रहा। हमारे हरे भरे जंगल आज भी खड़े हैं और हम सभी को जीवनदायिनी ऑक्सीजन प्रदान कर रहे हैं। केदारनाथ आपदा की 7वीं बरसी पर स्वामी ने दिवंगत आत्माओं को श्रद्धाजंलि अर्पित करते हुए कहा कि यह प्रकृति का आस्था पर प्रहार था। जो मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए।
लापता लोगों की ढूंढखोज का सबसे बड़ा केंद्र बन गया था ऋषिकेश
2013 में केदारनाथ आपदा ने पहाड़ जाने वाली तमाम सड़कों को उखाड़ फेंका था। आपदा के निशान इस शहर को भी मिले, लेकिन इनके घाव उतने गहरे नहीं थे, जितना सीना पहाड़ का छलनी हुआ था। जब भी आपदा में बिछड़े अपनों को ढूंढने के लिए कोई देश के कोने-कोने से पहाड़ चढ़ने के लिए उतरता उसके कदम तीर्थनगरी आकर ठहर जाते है। वजह, इससे आगे सड़कें पूरी तरह छलनी थीं।
तब, अपनों की तलाश में रोज सैकड़ों की तादाद में लोग यहां पहुंचते और हाथों में फोटो और पोस्टर लेकर सड़क का कोई भी कोना लेकर बैठ जाते। उस वक्त तीर्थनगरी की दीवारें मानों लापता लोगों के फोटो और पोस्टरों से पट गईं थीं। हर कोई इस उम्मीद में यहां पहुंचता की शायद उसके अपनों की खबर कहीं न कहीं से यहां तक तो पहुंच ही जाएगी।
स्थानीय बस अड्डा जैसे एक बड़ा सराय बन गया था। जहां, दिन रात लंगर चलता और अस्पतालों में जगह कम पड़ने पर पहाड़ से यहां तक पहुंचने वाले घायलों का इलाज किया जाता। स्थानीय लोग अपना घर-बार भूलकर विपदा में हारे लोगों की सेवा में दिनरात जुट गए थे। तब तीर्थनगरी की भली मानसी हर किसी ने देखी।