मैं उन्हें प्रोफेसर साहब कहता था। उन्होंने लाहौर में एलएलबी के फाइनल ईयर में मुझे कंपनी लॉ पढ़ाया था। वह लंदन से बार-एट-लॉ थे और एक लोकप्रिय लेक्चरार थे, क्योंकि कक्षा के बीच से किसी को बाहर जाने से वह कभी रोकते नहीं थे।
विभाजन के बाद मेरा उनसे संपर्क टूट गया था। बहुत दिनों बाद ऑल इंडिया रेडियो के एक पद के लिए इंटरव्यू के दौरान उनसे मेरी मुलाकात हुई। लेकिन उन्होंने मुझे खारिज कर दिया, क्योंकि मैं अंग्रेजी के कुछ शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाया था। ऑल इंडिया रेडियो में उन्होंने कई साल बिताए। उसी दौरान हम अच्छे मित्र बने। सिखों के इतिहास पर दो खंडों में किताब लिख चुकने के कारण तब तक चर्चित लेखक के तौर पर उनकी पहचान बन चुकी थी।
साठ के दशक के आखिरी और सत्तर की शुरुआत में पंजाब में पनप आए उग्रवाद के दौरान हालांकि उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरावाले की सख्त आलोचना की, लेकिन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार का विरोध करते हुए उन्होंने पद्म भूषण लौटा दिया था।
भिंडरावाले ने जो कुछ किया, उनके वह खिलाफ थे, लेकिन सिख समुदाय के लिए वैटिकन की तरह समझे जाने वाले दरबार साहिब पर आघात का औचित्य ठहराने का कोई तर्क उनके पास नहीं था। वह धर्मनिरपेक्ष थे और वैचारिक संकीर्णता का पूरी मजबूती के साथ विरोध करते थे। लेकिन कुछ अतिवादियों के लिए पूरे समुदाय को निशाना बनाने की सरकार की कार्रवाई को वह जायज नहीं ठहरा सकते थे।
'विथ मैलिस टूवार्डस नन' नाम से उनका एक साप्ताहिक कॉलम छपता था, जिसमें वह बेहद प्रभावी ढंग से अपने सेक्यूलर विचार लिखते थे। इसके बावजूद इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया में दिल्ली में पुलिस के साथ मिलकर हिंदू अतिवादियों ने जो हिंसा की, उससे बचने के लिए उन्हें एक विदेशी दूतावास में शरण लेनी पड़ी।
दुर्भाग्य से, उन्होंने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का समर्थन किया और इस कारण संजय गांधी का भी, जोकि उन दिनों संविधानेतर शक्ति बन गए थे। संजय गांधी से उनकी नजदीकी की वजह उनकी पत्नी मेनका गांधी थीं, जो उनकी दूर की रिश्तेदार थीं। उस समय खुशवंत सिंह को खुशामद सिंह भी कहा जाता था।
वह कभी किसी दोस्त को नहीं भूलते थे। आपातकाल के दौरान जेल से छूटने के बाद मैं मुंबई में उनसे मिला। उन्होंने सुना था कि अपने सरकार विरोधी रुख के चलते मुझे इंडियन एक्सप्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। अपनी मर्जी से उन्होंने 'इलस्ट्रेटेड वीकली' में कॉलम लिखने का प्रस्ताव दिया, जिसका कि वह संपादन कर रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा कि इस कॉलम के एवज में मुझे इतना पैसा मिलेगा कि अगर मेरी नौकरी चली जाए, तब भी मेरे जरूरी खर्चे चलते रहेंगे।
हालांकि ऐसी नौबत आई ही नहीं। वजह यह थी कि इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका मेरे साथ चट्टान की मानिंद खड़े रहे। हालांकि जब आपातकाल का कोई अंत नहीं दिख रहा था, तब गोयनका के सुर में भी कुछ बदलते दिख रहे थे। उन्हें लगा कि यह सही समय है, जब खुशवंत सिंह को इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडीटर पद का प्रस्ताव दिया जाना चाहिए।
टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से पहले ही उखड़े हुए खुशवंत ने इस प्रस्ताव पर हामी भरने में तनिक देर नहीं लगाई। खुशवंत को उनके पद ग्रहण की तारीख के बारे में सूचित करने का जिम्मा मेरे ही सुपुर्द था।
उस वक्त तक यह तय हो चला था कि चुनाव के उपरांत आपातकाल का दौर खत्म हो रहा था। यह खबर पढ़ते ही गोयनका ने तत्कालीन बॉम्बे से मुझे फोन करके खुशवंत सिंह से संपर्क न करने की हिदायत दी। इसके लिए खुशवंत सिंह ने गोयनका को कभी माफ नहीं किया।
खुशवंत सिंह का घर खुले दरबार की तरह था। छोटे-बड़े, हिंदू-मुस्लिम, आदमी-औरत, सभी शाम को उनके आवास पर उनकी मेजबानी का मजा लेते थे। हालांकि सोने के अपने घंटों को लेकर वह हमेशा सजग रहते थे। आठ बजे तक घर छोड़ देने की सभी मेहमानों का सख्त हिदायत होती थी। इसके बाद सुबह चार बजे उठकर वह अपने लिए चाय बनाते थे। उनका ज्यादातर लेखन उसी समय होता था।
उनकी लिखी बहुत सी किताबों का तमाम भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। उनका नाम बिकता है। वजह यह है कि उन्हें राजनीति की उठापटक से ऊपर माना जाता है। इसके अलावा जटिल से जटिल मुद्दों पर वह अपनी कलम कुछ इस तरह चलाते थे कि आम आदमी भी बेहद आसानी से उन्हें समझ लेता था।
विगत दो फरवरी को वह 99 साल के हुए थे। हम, उनके खास मित्र और प्रशंसक मिलकर उन पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाने की योजना बना रहे थे, ताकि उनका सौवां जन्मदिन शानदार ढंग से मनाया जा सके। आज उनके घर पहुंच कर जब मैंने उनके चरण छुए, तब मैंने उस खालीपन को महसूस किया, जिसे भरना आसान नहीं होगा। ऐसे कम ही लोग होंगे, जो धारा के विपरीत चलने की वैसी हिम्मत दिखा पाएं, जैसी उन्होंने दिखाई।
उनकी कुर्सी के पीछे के शेल्फ में रखी बुद्ध की छोटी-सी मूर्ति उनके बारे में शायद कुछ बताती है। आध्यात्मिकता या सूफिज्म, या फिर दोनों में उनका भरोसा था।