भारत और जापान, दोनों हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इसलिए कई मोर्चों पर दोनों देशों के बीच सहयोग जरूरी है। जापान और भारत के बीच रिश्तों में हाल के वर्षों में काफी विस्तार हुआ है। सामरिक क्षेत्र के अलावा जापान भारत का तीसरा सबसे बड़ा आर्थिक निवेशक है। वर्ष 2000 से 2017 के बीच जापान ने भारत में बुनियादी ढांचे, खुदरा, वस्त्र, और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में 25.6 अरब डॉलर का निवेश किया है। गौरतलब है कि पिछले चार वर्षों में दोनों देशों की आधिकरिक यात्रा संख्या और गुणवत्ता, दोनों के लिहाज से बेहतर और मजबूत बनाने के प्रयास किए गए हैं। कहा जाता है राष्ट्रों के व्यक्तिगत संबंध और यह तथ्य कि दोनों प्रधानमंत्रियों के समान दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रदर्शन ने उन्हें एक साथ लाया है।
बदलते मगर अस्थिर वैश्विक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में अक्तूबर में हुए तेरहवें भारत-जापान वार्षिक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते की गतिशीलता पर प्रकाश डालती है। तेरहवें भारत-जापान वार्षिक सम्मेलन के दौरान कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। मोदी की यह यात्रा भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि यह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अबे के बीच अप्रत्याशित बैठक के बाद हुई थी। चीन और जापान के रिश्ते आम तौर पर तनावपूर्ण रहते हैं। दशकों से जारी भावनात्मक कटुता के अलावा पूर्वी चीन सागर में सेनकाकू/दियाओयू द्वीप पर चीन और जापान के बीच लगातार मतभेद जारी हैं। जापान-चीन रिश्ते की 40वीं सालगिरह पर अबे की चीन यात्रा में प्रदर्शित खुशमिजाजी इस तनाव को टालती प्रतीत हुई। अबे की चीन यात्रा के दौरान कई उल्लेखनीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए, जिनमें थाईलैंड में संयुक्त रेल परियोजना और ट्रंप प्रशासन द्वारा संरक्षणवादी नीति की हवा निकालने के लिए 27 अरब डॉलर का करंसी स्वैप समझौता शामिल हैं। वाशिंगटन द्वारा अपने घरेलू उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करने की नीति ने इस सामरिक पुनर्गठन को प्रेरित किया है। भारत के लिए ध्यान देने लायक जो महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि जो अबे पहले बेल्ट ऐंड इनीशिएटिव रोड (बीआरआई) का विरोध कर रहे थे, उन्होंने एक संतुलित कदम उठाया है। चीन-जापान का द्विपक्षीय व्यापार वर्ष 2017 में 300 अरब डॉलर हो गया, जो 2016 के मुकाबले 15 फीसदी ज्यादा है।
जापान और चीन के बीच बढ़ती इस घनिष्ठता के कई कारक हैं। जापान को चीन के बाजार में पहुंच बनाने की आवश्यकता है। खुद अबे ने कहा कि चीन जापान के लिए अपरिहार्य है। जबकि चीन, जिसकी महत्वाकांक्षी बीआरआई परियोजना पारदर्शिता के मुद्दे पर विरोध और बाधाओं का सामना कर रही है और जिसकी लगातार आने वाली सरकारों द्वारा समीक्षा की जा रही है, जापान के साथ साझेदारी करके अपनी छवि को बेहतर बनाना चाहता है। अमेरिका के साथ व्यापार करने में चीन की अर्थव्यवस्था और मुद्रा को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए वह अन्य क्षेत्रीय ताकतों के साथ साझेदारी करना चाह रहा है।
इस तरह से एशिया में सामरिक समीकरण बदलता दिख रहा है और भू-राजनीतिक सीमांकन धुंधला रहा है। इस परिदृश्य में भारत के लिए महत्वपूर्ण है कि वह तटस्थ रहने की रणनीति न अपनाए और उभरते सामरिक समीकरण के बदलते कारकों के बीच भारत-जापान रणनीतिक साझेदारी को संदर्भ दे।
-लेखक विजन इंडिया फाउंडेशन में रणनीतिक मामलों के एसोसिएट मैनेजर हैं।
भारत और जापान, दोनों हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इसलिए कई मोर्चों पर दोनों देशों के बीच सहयोग जरूरी है। जापान और भारत के बीच रिश्तों में हाल के वर्षों में काफी विस्तार हुआ है। सामरिक क्षेत्र के अलावा जापान भारत का तीसरा सबसे बड़ा आर्थिक निवेशक है। वर्ष 2000 से 2017 के बीच जापान ने भारत में बुनियादी ढांचे, खुदरा, वस्त्र, और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में 25.6 अरब डॉलर का निवेश किया है। गौरतलब है कि पिछले चार वर्षों में दोनों देशों की आधिकरिक यात्रा संख्या और गुणवत्ता, दोनों के लिहाज से बेहतर और मजबूत बनाने के प्रयास किए गए हैं। कहा जाता है राष्ट्रों के व्यक्तिगत संबंध और यह तथ्य कि दोनों प्रधानमंत्रियों के समान दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रदर्शन ने उन्हें एक साथ लाया है।
बदलते मगर अस्थिर वैश्विक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में अक्तूबर में हुए तेरहवें भारत-जापान वार्षिक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते की गतिशीलता पर प्रकाश डालती है। तेरहवें भारत-जापान वार्षिक सम्मेलन के दौरान कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। मोदी की यह यात्रा भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि यह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अबे के बीच अप्रत्याशित बैठक के बाद हुई थी। चीन और जापान के रिश्ते आम तौर पर तनावपूर्ण रहते हैं। दशकों से जारी भावनात्मक कटुता के अलावा पूर्वी चीन सागर में सेनकाकू/दियाओयू द्वीप पर चीन और जापान के बीच लगातार मतभेद जारी हैं। जापान-चीन रिश्ते की 40वीं सालगिरह पर अबे की चीन यात्रा में प्रदर्शित खुशमिजाजी इस तनाव को टालती प्रतीत हुई। अबे की चीन यात्रा के दौरान कई उल्लेखनीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए, जिनमें थाईलैंड में संयुक्त रेल परियोजना और ट्रंप प्रशासन द्वारा संरक्षणवादी नीति की हवा निकालने के लिए 27 अरब डॉलर का करंसी स्वैप समझौता शामिल हैं। वाशिंगटन द्वारा अपने घरेलू उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करने की नीति ने इस सामरिक पुनर्गठन को प्रेरित किया है। भारत के लिए ध्यान देने लायक जो महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि जो अबे पहले बेल्ट ऐंड इनीशिएटिव रोड (बीआरआई) का विरोध कर रहे थे, उन्होंने एक संतुलित कदम उठाया है। चीन-जापान का द्विपक्षीय व्यापार वर्ष 2017 में 300 अरब डॉलर हो गया, जो 2016 के मुकाबले 15 फीसदी ज्यादा है।
जापान और चीन के बीच बढ़ती इस घनिष्ठता के कई कारक हैं। जापान को चीन के बाजार में पहुंच बनाने की आवश्यकता है। खुद अबे ने कहा कि चीन जापान के लिए अपरिहार्य है। जबकि चीन, जिसकी महत्वाकांक्षी बीआरआई परियोजना पारदर्शिता के मुद्दे पर विरोध और बाधाओं का सामना कर रही है और जिसकी लगातार आने वाली सरकारों द्वारा समीक्षा की जा रही है, जापान के साथ साझेदारी करके अपनी छवि को बेहतर बनाना चाहता है। अमेरिका के साथ व्यापार करने में चीन की अर्थव्यवस्था और मुद्रा को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए वह अन्य क्षेत्रीय ताकतों के साथ साझेदारी करना चाह रहा है।
इस तरह से एशिया में सामरिक समीकरण बदलता दिख रहा है और भू-राजनीतिक सीमांकन धुंधला रहा है। इस परिदृश्य में भारत के लिए महत्वपूर्ण है कि वह तटस्थ रहने की रणनीति न अपनाए और उभरते सामरिक समीकरण के बदलते कारकों के बीच भारत-जापान रणनीतिक साझेदारी को संदर्भ दे।
-लेखक विजन इंडिया फाउंडेशन में रणनीतिक मामलों के एसोसिएट मैनेजर हैं।