वर्ष 2011 की शुरुआत से लेकर वर्ष 2012 के अंत के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को इंडिया अंगेस्ट करप्शन (आईएसी) के आंदोलन की वजह से सबसे बड़ी नागरिक चुनौती का सामना करना पड़ा था। यह आंदोलन एक के बाद एक सामने आए उच्च स्तर के भ्रष्टाचार से जुड़े घोटालों की पृष्ठभूमि में खड़ा हुआ था। 2009 में लगातार दूसरी बार विजय हासिल करने के बाद इस वजह से (यूपीए) विश्वसनीयता और भ्रष्टाचार के गहरे संकट में फंस गया था।
आखिर ऐसा क्यों होता है कि कुछ सरकारें अन्य सरकारों की तुलना में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति उदारता से पेश आती हैं? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए मैंने दो मामलों पर गौर किया- इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार द्वारा जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन को बर्बरता से दबाया जाना और मनमोहन सिंह की अगुआई वाली यूपीए सरकार की आईएसी आंदोलन के प्रति उदार प्रतिक्रिया।
जब भी ऐसे आंदोलन जो स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार विरोध से उपजे हुए हों, या उसमें यह अंतर्निहित हो, आकार लेते हैं, और अक्सर ये ऐसे माहौल में पैदा होते हैं, जब सरकार का भ्रष्टाचार घोटालों या न्यायिक जांच के जरिये उजागर होता है, तो इससे सरकार के भीतर असुरक्षा बढ़ती है और मतदाताओं की नजरों में उसकी विश्वसनीयता कम होती है। नतीजतन आंदोलन की प्रतिक्रिया में निर्णय लेने वालों के लिए सरकार की साख को पुनर्स्थापित करना मुख्य लक्ष्य बन जाता है।
गठबंधन सरकार में विभिन्न राजनीतिक दलों के अनुसार विचारधारा की विविधता होती है, जैसा कि यूपीए में देखा गया, लेकिन इसके साथ ही सरकार में नए नीतिगत ढांचे को बढ़ावा देने वालों, खासतौर से टेक्नोक्रेट्स को प्रोत्साहन मिलता है। यूपीए में शामिल रहे टेक्नोक्रेट्स के एक समूह ने भारत सरकार में 1980 के दशक के आखिर में और 1990 के दशक की शुरुआत में प्रवेश किया था, जब गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था और उसी दौरान देश के आर्थिक ढांचे का उदारीकरण के जरिये सुधार किया गया था। बाद में उन्हें सत्ता में प्रभावी भूमिका मिली, वे मंत्रिमंडल के सदस्य बने, प्रधानमंत्री कार्यालय का हिस्सा बने, वरिष्ठ नौकरशाही में आए और यहां तक कि मनमोहन सिंह के रूप में प्रधानमंत्री भी बने। टेक्नोक्रेट्स और कार्यकर्ताओं का एक अन्य समूह 1990 के दशक और 2000 के दशक के दौरान सूचना के अधिकार के आंदोलन के जरिये नागरिक आंदोलन का हिस्सा बना और बाद में उनमें से कई लोग यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष के समानांतर मंत्रिमंडल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का हिस्सा बने।
यूपीए और आईएसी के टकराव को तीन चीजों से समझा जा सकता है, पूंजीवादी समर्थक, सांख्यिकी समर्थक और सेक्यूलर राष्ट्रवादी। पूंजीवादी समर्थक, मुख्यतः टेक्रनोक्रेट और नौकरशाह हैं, जो यह मानते थे कि आंदोलन आर्थिक विकास की रणनीतियों और भ्रष्टाचार में घालमेल कर सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाना चाहता है। वही सांख्यिकी समर्थक, मुख्यतः टेक्नोक्रेट और कार्यकर्ता हैं, जो चाहते थे कि सरकार आईएसी के साथ संवाद करे। वहीं सेक्यूलर राष्ट्रवादी अधिकतर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं, जो आईएसी को प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के समर्थन से धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर शुरू किए गए आंदोलन के रूप में देख रहे थे।
-कार्नेज एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस, नई दिल्ली के फेलो
वर्ष 2011 की शुरुआत से लेकर वर्ष 2012 के अंत के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को इंडिया अंगेस्ट करप्शन (आईएसी) के आंदोलन की वजह से सबसे बड़ी नागरिक चुनौती का सामना करना पड़ा था। यह आंदोलन एक के बाद एक सामने आए उच्च स्तर के भ्रष्टाचार से जुड़े घोटालों की पृष्ठभूमि में खड़ा हुआ था। 2009 में लगातार दूसरी बार विजय हासिल करने के बाद इस वजह से (यूपीए) विश्वसनीयता और भ्रष्टाचार के गहरे संकट में फंस गया था।
आखिर ऐसा क्यों होता है कि कुछ सरकारें अन्य सरकारों की तुलना में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति उदारता से पेश आती हैं? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए मैंने दो मामलों पर गौर किया- इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार द्वारा जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन को बर्बरता से दबाया जाना और मनमोहन सिंह की अगुआई वाली यूपीए सरकार की आईएसी आंदोलन के प्रति उदार प्रतिक्रिया।
जब भी ऐसे आंदोलन जो स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार विरोध से उपजे हुए हों, या उसमें यह अंतर्निहित हो, आकार लेते हैं, और अक्सर ये ऐसे माहौल में पैदा होते हैं, जब सरकार का भ्रष्टाचार घोटालों या न्यायिक जांच के जरिये उजागर होता है, तो इससे सरकार के भीतर असुरक्षा बढ़ती है और मतदाताओं की नजरों में उसकी विश्वसनीयता कम होती है। नतीजतन आंदोलन की प्रतिक्रिया में निर्णय लेने वालों के लिए सरकार की साख को पुनर्स्थापित करना मुख्य लक्ष्य बन जाता है।
गठबंधन सरकार में विभिन्न राजनीतिक दलों के अनुसार विचारधारा की विविधता होती है, जैसा कि यूपीए में देखा गया, लेकिन इसके साथ ही सरकार में नए नीतिगत ढांचे को बढ़ावा देने वालों, खासतौर से टेक्नोक्रेट्स को प्रोत्साहन मिलता है। यूपीए में शामिल रहे टेक्नोक्रेट्स के एक समूह ने भारत सरकार में 1980 के दशक के आखिर में और 1990 के दशक की शुरुआत में प्रवेश किया था, जब गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था और उसी दौरान देश के आर्थिक ढांचे का उदारीकरण के जरिये सुधार किया गया था। बाद में उन्हें सत्ता में प्रभावी भूमिका मिली, वे मंत्रिमंडल के सदस्य बने, प्रधानमंत्री कार्यालय का हिस्सा बने, वरिष्ठ नौकरशाही में आए और यहां तक कि मनमोहन सिंह के रूप में प्रधानमंत्री भी बने। टेक्नोक्रेट्स और कार्यकर्ताओं का एक अन्य समूह 1990 के दशक और 2000 के दशक के दौरान सूचना के अधिकार के आंदोलन के जरिये नागरिक आंदोलन का हिस्सा बना और बाद में उनमें से कई लोग यूपीए सरकार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष के समानांतर मंत्रिमंडल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का हिस्सा बने।
यूपीए और आईएसी के टकराव को तीन चीजों से समझा जा सकता है, पूंजीवादी समर्थक, सांख्यिकी समर्थक और सेक्यूलर राष्ट्रवादी। पूंजीवादी समर्थक, मुख्यतः टेक्रनोक्रेट और नौकरशाह हैं, जो यह मानते थे कि आंदोलन आर्थिक विकास की रणनीतियों और भ्रष्टाचार में घालमेल कर सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाना चाहता है। वही सांख्यिकी समर्थक, मुख्यतः टेक्नोक्रेट और कार्यकर्ता हैं, जो चाहते थे कि सरकार आईएसी के साथ संवाद करे। वहीं सेक्यूलर राष्ट्रवादी अधिकतर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं, जो आईएसी को प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के समर्थन से धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर शुरू किए गए आंदोलन के रूप में देख रहे थे।
-कार्नेज एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस, नई दिल्ली के फेलो