निरंतर एक्सेस के लिए सब्सक्राइब करें
इस बार 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड के दौरान बांग्लादेश के सशस्त्र बलों के एक दल ने मार्च पास्ट का नेतृत्व किया। गणतंत्र दिवस के परेड में उनकी मौजूदगी बांग्लादेश की आजादी के 50वें वर्ष और उस ऐतिहासिक लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका का स्मरण करने के लिए थी। इसने मुझे कई स्मृतियों से भर दिया, जो अगर उदास करने वाली थीं, तो उस राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा बनने के कारण मुझे संतोष का भी अनुभव हुआ। 25 मार्च, 1971 की रात पाक सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में अपने ही देश के नागरिकों पर दमन की कार्रवाई शुरू की थी। अकेले ढाका में हजारों लोगों को गोलियों और बमों से तथा जलाकर मार डाला गया था। वही ढाका अब बांग्लादेश की राजधानी है। उस दमन चक्र के कारण जुलाई, 1971 तक 65 लाख लोग वहां से भागकर भारत में शरणार्थी के रूप में आए। उनमें से 50 लाख से भी ज्यादा लोगों को पश्चिम बंगाल में शरण मिली। देश में बांग्लादेशी शरणार्थियों के करीब 600 शिविर थे, जिनमें से लगभग 400 शिविर पश्चिम बंगाल में थे। पूर्वी पाकिस्तान में पाक सैनिकों की वह क्रूरता बोस्निया और रवांडा के नरसंहार से भी भीषण थी।
आगे पढ़ने के लिए लॉगिन या रजिस्टर करें
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ रजिस्टर्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं
भारत इस नरसंहार की लंबे समय तक अनदेखी नहीं कर सकता था। इसलिए मानवीय कारणों से भारत ने इसमें हस्तक्षेप किया। दरअसल पूर्वी पाकिस्तान की हिंसा का भारत पर भी भारी असर हो रहा था। अपने ही नागरिकों पर पड़ रहे एक गहरे भावनात्मक और आर्थिक बोझ के चंगुल से खुद को छुड़ाना आवश्यक था। जिस कष्टदायक मानवीय समस्या का सामना भारत कर रहा था, उससे उबरने के लिए सैन्य अभियान ही एकमात्र समाधान था। दस्तावेजी इतिहास से पता चलता है कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ (बाद में फील्ड मार्शल) के साथ बैठक की थी, उसके बाद सैन्य योजनाकारों ने योजना तैयार की। हम जानते हैं कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों ने अप्रैल, 1971 में जिस मुक्ति वाहिनी की शुरुआत की थी, भारत ने उसका समर्थन किया था।
दरअसल भारत ने चार दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के खिलाफ जिस सैन्य कार्रवाई की शुरुआत की थी, मुक्ति वाहिनी उसकी पूर्वपीठिका थी। हालांकि पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने और तीन दिसंबर को पश्चिमी भारत के हमारे ठिकानों पर हमला करने के बाद ही भारत ने सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। वह युद्ध 16 दिसंबर, 1971 तक चला। उसी दिन पाकिस्तानी सेना के 93,000 जवानों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर दिया था। इस तरह से बांग्लादेश नामक एक स्वतंत्र देश दुनिया के नक्शे पर अस्तित्व में आया। वह युद्ध भारतीय सशस्त्र बलों के तीनों अंगों के समन्वय का एक शानदार प्रदर्शन था। भारतीय वायुसेना के एक पूर्व सदस्य के नाते मुझे उस युद्ध में दुश्मन की क्षमता को बेअसर करने से जुड़े कुछ अभिलेखीय आंकड़े पेश करने दीजिए। जगमोहन एवं समीर चोपड़ा द्वारा लिखी गई किताब ईगल्स ओवर बांग्लादेश में उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, भारतीय वायुसेना द्वारा 14 दिनों के युद्धों के दौरान कुल 2,002 अभियान छेड़े गए, जिनमें से 1,229 अभियान पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना की मदद के रूप में थे, जबकि 368 हमले जवाबी सैन्य कार्रवाई के रूप में किए गए। पाक वायुसेना के ठिकानों पर एक ब्रिगेड के पैरा-ड्रॉपिंग से लेकर कई तरह के हमले किए गए, और इस प्रयास में भारतीय वायुसेना के 16 विमान तबाह हुए, जबकि पाक वायुसेना के 23 विमान मार गिराए गए।
उस युद्ध में मुझे भारतीय वायुसेना के 106 नंबर के रणनीतिक टोही स्कवॉड्रन के चालक दल में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हालांकि स्कवॉड्रन के कारनामे मुख्यतः सार्वजनिक निगाह से दूर रहे, जिसका मुख्य कारण उनकी गतिविधियों को लेकर बनी गोपनीयता है। इसने सामरिक मिशनों के बारे में खुफिया फोटो जुटाने के लिए निहत्थे कैनबरा पीआर 7 लड़ाकू विमानों का संचालन किया, जो युद्धक अभियानों की योजना बनाने के लिए सबसे आवश्यक कार्य है। पूर्वी पाकिस्तान में उन अभियानों की कुछ यादें मेरे जेहन में अब भी ताजा हैं। मसलन, आठ एवं नौ दिसंबर, 1971 को हमारे फोटो मिशन के लिए जब हम गुवाहाटी में लॉन्चिंग एयरफील्ड पहुंचे, तब ईंधन भरने का समय नहीं था। भारतीय नौसेना की पहली कार्रवाई से तालमेल बिठाने के लिए हमें दो बजे तक अपने पहले लक्ष्य कॉक्सबाजार तक पहुंचना महत्वपूर्ण था। हमने काफी तेज विमान उड़ाया, ताकि वह वहां समय पर पहुंच सके। ऐसी परिस्थतियों में विमान में ज्यादा ईंधन खर्च होता है। हमें अपने फोटो मिशन के साथ तालमेल बिठाते हुए आइजोल से पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना था। जब हम फोटो खींच रहे थे, तभी एक शक्तिशाली विमान रोधी हमला हुआ। हमने फिर से जमीनी हमले की परवाह किए बगैर गोता लगाया और चटगांव बंदरगाह की तरफ बढ़े, जहां इसी तरह का फोटो मिशन पूरा करना था।
छोटे हवाई क्षेत्र के कारण हम जहाजों से निकलने वाले मोटे धुएं के गुबार के सहारे ऊपर चढ़ रहे थे, जो शायद थोड़ा पहले खत्म हो गया था। अंततः हमारे विमान का ईंधन बहुत कम हो गया था। 13 दिसंबर, 1971 का फोटो मिशन वास्तव में साहसिक था। विमान के बैटरी बॉक्स में विस्फोट के कारण आग लग गई थी, जिसे बुझाने में हमने काफी समय गंवा दिया था। हमें दिन में ही पर्याप्त धूप के दौरान ढाका में होना था। हम पर काफी दबाव था और सीधे दिल्ली जाने की जरूरत थी। ढाका में ही शाम हो गई थी और जब हम दिल्ली के करीब पहुंचे, तो अंधेरा छा गया था। लेकिन सबसे चिंता की बात यह थी कि लौटते हुए हमारे विमान की ग्राउंड स्पीड तुलनात्मक रूप से काफी कम हो गई थी। नतीजतन तय समय से बहुत बाद में पहुंचने के कारण अपने ही देश में शत्रु विमान घोषित कर दिया गया!
(-लेखक सेवानिवृत्त एयर कमोडोर हैं, जिन्हें 1971 के युद्ध के दौरान वीरता के लिए वायुसेना मेडल प्रदान किया गया।)