ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा के शाही ईदगाह मैदान और कुतुबमीनार के मामले में विभिन्न अदालतों में चल रही बहस सबसे ज्यादा उपासना स्थल कानून (The Places of Worship Act, 1991) के इर्द-गिर्द घूम रही है। मुस्लिम पक्ष इस कानून के सहारे इन विवादों की सुनवाई को अवैध बता रहा है, तो हिंदू पक्ष इन मामलों में इस कानून के लागू न होने का तर्क दे रहा है। इस विवादित कानून की समीक्षा किए जाने की मांग भी लगातार उठ रही है। इसी बीच, वाराणसी के प्रसिद्ध संत स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने बुधवार 25 मई को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर इस कानून को चुनौती दी है। उन्होंने कहा है कि यह कानून पूर्व में हिंदू धार्मिक स्थलों पर हुए अत्याचार को वैध ठहराता है और पीड़ित पक्ष को इस ‘अन्याय’ के खिलाफ न्यायालय जाने से भी रोकता है। यह न्याय पाने के उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है, और इसलिए इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए।
इसके पूर्व, भाजपा नेता और सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी पूजा स्थल (विशेष उपबंध) विधेयक, 1991 को निरस्त करने के लिए याचिका दाखिल की थी। अक्तूबर 2020 में दाखिल इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को नोटिस जारी करते हुए इस कानून पर उसकी राय मांगी थी। केंद्र सरकार ने अब तक इस मामले पर कोई जवाब दाखिल नहीं किया है।
भगवान को ‘ज्यूरिस्टिक पर्सन’ माना जाता है
याचिका में कहा गया है कि किसी मंदिर में मूर्ति को स्थापित करने के समय उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद वह एक जीवित व्यक्ति की तरह माने जाते हैं और उनका भी अधिकार होता है। उन्हें ‘ज्यूरिस्टिक पर्सन’ माना जाता है और उन्हें भी कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं। अयोध्या मामले में इसी तर्क के आधार रामलला स्वयं अपनी भूमि को वापस पाने के लिए एक पक्षकार की भूमिका में थे। इस प्राण प्रतिष्ठा के बाद उस मंदिर को उस भगवान की संपत्ति माना जाता है, जिसे उसमें स्थापित किया जाता है।
स्वामी जितेंद्रानंद के मुताबिक, प्राण प्रतिष्ठा के बाद मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर देने के बाद भी तब तक उन भगवान का ही अधिकार होता है। (जब तक मूर्ति का सनातन धार्मिक रीति के अनुसार मूर्ति का विसर्जन/विग्रह न कर दिया जाए तब तक) भगवान के इस अधिकार को छीना नहीं जा सकता। लेकिन उपासना स्थल कानून छीनी गई भूमि को उसे तोड़ने वालों को देने को वैध ठहराता है, जो कि भगवान के अधिकारों का उल्लंघन है। इस आधार पर उन्होंने इस कानून को रद्द करने की मांग की है।
केंद्र को इस मामले पर कानून बनाने का अधिकार नहीं
केंद्र सरकार ने देश की संसद में द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 बनाया था, लेकिन याचिका में कहा गया है कि धार्मिक स्थल का रखरखाव और इससे संबंधित कानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास होता है। केंद्र को इस पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार केवल उन्हीं मामलों में कानून बनाने का अधिकार है, जो धर्मस्थल भारतीय सीमा क्षेत्र से बाहर हैं। जैसे पाकिस्तान, चीन या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थित धार्मिक स्थलों पर केंद्र सरकार कानून बना सकती है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार बाधित
संविधान का अनुच्छेद-25 किसी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, उसकी रक्षा करने, अपनी संस्कृति की रक्षा करने और उसके प्रचार-प्रसार करने का अधिकार देता है। लेकिन ज्ञानवापी सहित कुछ स्थलों पर पूजा करने के अधिकार को बाधित किया जा रहा है। इससे हिंदू पक्ष संविधान में मिले अपने धर्म-संस्कृति के पालन और उसके प्रचार-प्रसार के अधिकार से वंचित हो रहा है। इस आधार पर उपासना स्थल कानून पर पुनर्समीक्षा करने की बात कही गई है।
विस्तार
ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा के शाही ईदगाह मैदान और कुतुबमीनार के मामले में विभिन्न अदालतों में चल रही बहस सबसे ज्यादा उपासना स्थल कानून (The Places of Worship Act, 1991) के इर्द-गिर्द घूम रही है। मुस्लिम पक्ष इस कानून के सहारे इन विवादों की सुनवाई को अवैध बता रहा है, तो हिंदू पक्ष इन मामलों में इस कानून के लागू न होने का तर्क दे रहा है। इस विवादित कानून की समीक्षा किए जाने की मांग भी लगातार उठ रही है। इसी बीच, वाराणसी के प्रसिद्ध संत स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने बुधवार 25 मई को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर इस कानून को चुनौती दी है। उन्होंने कहा है कि यह कानून पूर्व में हिंदू धार्मिक स्थलों पर हुए अत्याचार को वैध ठहराता है और पीड़ित पक्ष को इस ‘अन्याय’ के खिलाफ न्यायालय जाने से भी रोकता है। यह न्याय पाने के उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है, और इसलिए इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए।
इसके पूर्व, भाजपा नेता और सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी पूजा स्थल (विशेष उपबंध) विधेयक, 1991 को निरस्त करने के लिए याचिका दाखिल की थी। अक्तूबर 2020 में दाखिल इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को नोटिस जारी करते हुए इस कानून पर उसकी राय मांगी थी। केंद्र सरकार ने अब तक इस मामले पर कोई जवाब दाखिल नहीं किया है।
भगवान को ‘ज्यूरिस्टिक पर्सन’ माना जाता है
याचिका में कहा गया है कि किसी मंदिर में मूर्ति को स्थापित करने के समय उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद वह एक जीवित व्यक्ति की तरह माने जाते हैं और उनका भी अधिकार होता है। उन्हें ‘ज्यूरिस्टिक पर्सन’ माना जाता है और उन्हें भी कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं। अयोध्या मामले में इसी तर्क के आधार रामलला स्वयं अपनी भूमि को वापस पाने के लिए एक पक्षकार की भूमिका में थे। इस प्राण प्रतिष्ठा के बाद उस मंदिर को उस भगवान की संपत्ति माना जाता है, जिसे उसमें स्थापित किया जाता है।
स्वामी जितेंद्रानंद के मुताबिक, प्राण प्रतिष्ठा के बाद मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर देने के बाद भी तब तक उन भगवान का ही अधिकार होता है। (जब तक मूर्ति का सनातन धार्मिक रीति के अनुसार मूर्ति का विसर्जन/विग्रह न कर दिया जाए तब तक) भगवान के इस अधिकार को छीना नहीं जा सकता। लेकिन उपासना स्थल कानून छीनी गई भूमि को उसे तोड़ने वालों को देने को वैध ठहराता है, जो कि भगवान के अधिकारों का उल्लंघन है। इस आधार पर उन्होंने इस कानून को रद्द करने की मांग की है।
केंद्र को इस मामले पर कानून बनाने का अधिकार नहीं
केंद्र सरकार ने देश की संसद में द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 बनाया था, लेकिन याचिका में कहा गया है कि धार्मिक स्थल का रखरखाव और इससे संबंधित कानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास होता है। केंद्र को इस पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार केवल उन्हीं मामलों में कानून बनाने का अधिकार है, जो धर्मस्थल भारतीय सीमा क्षेत्र से बाहर हैं। जैसे पाकिस्तान, चीन या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थित धार्मिक स्थलों पर केंद्र सरकार कानून बना सकती है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार बाधित
संविधान का अनुच्छेद-25 किसी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, उसकी रक्षा करने, अपनी संस्कृति की रक्षा करने और उसके प्रचार-प्रसार करने का अधिकार देता है। लेकिन ज्ञानवापी सहित कुछ स्थलों पर पूजा करने के अधिकार को बाधित किया जा रहा है। इससे हिंदू पक्ष संविधान में मिले अपने धर्म-संस्कृति के पालन और उसके प्रचार-प्रसार के अधिकार से वंचित हो रहा है। इस आधार पर उपासना स्थल कानून पर पुनर्समीक्षा करने की बात कही गई है।