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गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' को हिन्दी सिनेमा इतिहास की दुर्लभ फिल्मों में से एक है। फिल्म की पढ़ाई होने वाले संस्थानों में इसे भगवान की तरह पूजते हैं। इसके बनने में एक वेश्या का बहुत बड़ा योगदान है। इसके बारे में फिल्म के लेखक अब्रार आल्वी की किताब 'टेन ईयर्स विद गुरुदत्त' में बड़े ही विस्तार से और भावनात्मक तरीके से बताते हैं।
एक दिन अब्रार से उनके कॉलेज के दिनों के कुछ दोस्त मिलने आए। उन्हें लेकर समुद्र किनारे निकल गए। वहां कुछ बातचीत के बाद तीन लड़कियां पेश की गईं। उनमें दो पंद्रह-सोलह साल की थी और तीसरी अट्ठाइस-उनतीस साल की। अब्रार से उनमें एक चुनने के लिए कहा गया। अब्रार बताते हैं कि तब वह इन मामलों में 'अनाड़ी' थे। उनकी समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। दोस्तों की जिद थी कि कोई एक चुननी पड़ेगी मजबूरी में अब्रार ने बड़ी उम्र की औरत की ओर इशारा किया।
अब्रार बताते हैं कि इस पर वह औरत भौंचक्की रह गई। उसने परेशान होकर कहा, 'इन कमसिन कलियों के होते हुए, मुझे'। हालांकि फिर शाम ढली, रात आई, जैसे रात जवान होती गई, उनके सारे दोस्त समुद्र किनारे लड़कियां लेकर निकलते गए। लेकिन अब्रार वहीं उस औरत के साथ एक कुटीर में बैठे रहे, उससे बात करने पर पता चला उसका नाम, 'गुलाबो' है।
फिल्म 'प्यासा' में गुलाबो की पहली झलक भ्रामक है। वह अपनी पीठ कैमरे की ओर किए खड़ी होती है, एक महीन, पारदर्शी साड़ी में लिपटी। जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, गुलाबो का चरित्र खुलकर सामने आता है। वह एक पारंपरिक सड़कछाप वेश्या है। लेकिन उसमें एक गरिमा छिपी है साथ ही उस शायर के लिए प्रेम और सम्मान भी। यह कोई कोरी कल्पना नहीं। उस रात के बाद अब्रार और गुलाबो के बीच पनपे रिश्ते की असल कहानी है।