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आजकल क्रिएटिव माइंड और प्रयोगवादियों की पूछ है। मॉडर्न पेरेंट्स हाई क्लास मैनेजमेंट की ट्रेनिंग लेकर सारा प्रयोग बच्चे पर कर डालते हैं। नतीजतन हर क्षेत्र में टेलेंट की बाढ़ आ गई है। कोई भी रिएलिटी शो देखिए, बच्चे बड़ों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते हैं।
हिंदी साहित्य भी इस क्रिएटिव हमले से बच नहीं सका है। इसका नजारा एक कॉन्वेंट स्कूल की हिंदी कक्षा में तब दिखा, जब एक स्टूडेंट ने कहा- सर, बुरा जो देखन मैं चला वाले दोहे में एक फंडामेंटल मिस्टेक है। यह अपने प्रति निगेटिव एटिट्यूड को जन्म दे रहा-सा प्रतीत होता है। एक बार यदि यह भाव हमारे मन में घर कर गया, तो हम सदैव हर गलत काम और विफलता के लिए खुद को दोष देते फिरेंगे।
सर ने समझाने की कोशिश की, देखो बेटा, तुम दोहे के अर्थ को गलत सेंस में ले रहे हो। दरअसल कवि यह कहना चाहता है कि हमें पहले अपनी कमियों की ओर ध्यान केंद्रित कर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
सर, कमियों के बारे में सोचना और उसे ढूंढना ही निगेटिव एटिट्यूड है, और इससे ग्रोथ नहीं होती। यदि हमें उन्नति करनी है, तो मैनेजमेंट ऐंगल अपनाना होगा। हमें पॉजिटिव थिंकिंग को बढ़ावा देते हुए कहना चाहिए, भला जो देखन मैं चला, भला न मिलिया कोय, जो दिल ढूंढा आपना, मुझसा भला न कोय। इससे हमारा फोकस अपनी अच्छाइयों की तरफ हो जाता है।
साहित्य में अचानक मैनेजमेंट के प्रवेश को देख गुरुजी को अपने जीवन के सभी सिद्धांत हिलते नजर आए। उन्हें लगा कि यदि इसी प्रकार नए अर्थ निकलने लगे, तो साहित्य के साथ समाज भी खतरे में पड़ जाएगा। तभी उन्हें महसूस हुआ वे कुछ ज्यादा ही जड़ हो गए हैं और वर्षों से रटे-रटाए दोहे और उनके अर्थ के बाहर कुछ सोचना ही नहीं चाहते। हो न हो, वर्तमान युग के हिसाब से बच्चा ठीक कह रहा हो।
आज हर तरफ बाजार हावी है, और बाजार के इस युग में बुरा जो देखन मैं चला को आत्मसात कर ही हम लोग हर मोड़ पर लुटे जा रहे हैं। कभी मुफ्त सिम के चक्कर में टेली मार्केटिंग वालों के शिकार बनते हैं, तो कभी मल्टीसिटी अस्पताल में पहुंच फालतू टेस्ट कराकर डॉक्टर के जाल में फंसते हैं। बीमा की सलाह देने पर आप जिस पड़ोसी को अपना शुभचिंतक समझते हैं, वह किसी बीमा कंपनी का एजेंट निकलता है। आखिर हम कब तक खुद में ही बुराई ढूंढते फिरेंगे!
आजकल क्रिएटिव माइंड और प्रयोगवादियों की पूछ है। मॉडर्न पेरेंट्स हाई क्लास मैनेजमेंट की ट्रेनिंग लेकर सारा प्रयोग बच्चे पर कर डालते हैं। नतीजतन हर क्षेत्र में टेलेंट की बाढ़ आ गई है। कोई भी रिएलिटी शो देखिए, बच्चे बड़ों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते हैं।
हिंदी साहित्य भी इस क्रिएटिव हमले से बच नहीं सका है। इसका नजारा एक कॉन्वेंट स्कूल की हिंदी कक्षा में तब दिखा, जब एक स्टूडेंट ने कहा- सर, बुरा जो देखन मैं चला वाले दोहे में एक फंडामेंटल मिस्टेक है। यह अपने प्रति निगेटिव एटिट्यूड को जन्म दे रहा-सा प्रतीत होता है। एक बार यदि यह भाव हमारे मन में घर कर गया, तो हम सदैव हर गलत काम और विफलता के लिए खुद को दोष देते फिरेंगे।
सर ने समझाने की कोशिश की, देखो बेटा, तुम दोहे के अर्थ को गलत सेंस में ले रहे हो। दरअसल कवि यह कहना चाहता है कि हमें पहले अपनी कमियों की ओर ध्यान केंद्रित कर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
सर, कमियों के बारे में सोचना और उसे ढूंढना ही निगेटिव एटिट्यूड है, और इससे ग्रोथ नहीं होती। यदि हमें उन्नति करनी है, तो मैनेजमेंट ऐंगल अपनाना होगा। हमें पॉजिटिव थिंकिंग को बढ़ावा देते हुए कहना चाहिए, भला जो देखन मैं चला, भला न मिलिया कोय, जो दिल ढूंढा आपना, मुझसा भला न कोय। इससे हमारा फोकस अपनी अच्छाइयों की तरफ हो जाता है।
साहित्य में अचानक मैनेजमेंट के प्रवेश को देख गुरुजी को अपने जीवन के सभी सिद्धांत हिलते नजर आए। उन्हें लगा कि यदि इसी प्रकार नए अर्थ निकलने लगे, तो साहित्य के साथ समाज भी खतरे में पड़ जाएगा। तभी उन्हें महसूस हुआ वे कुछ ज्यादा ही जड़ हो गए हैं और वर्षों से रटे-रटाए दोहे और उनके अर्थ के बाहर कुछ सोचना ही नहीं चाहते। हो न हो, वर्तमान युग के हिसाब से बच्चा ठीक कह रहा हो।
आज हर तरफ बाजार हावी है, और बाजार के इस युग में बुरा जो देखन मैं चला को आत्मसात कर ही हम लोग हर मोड़ पर लुटे जा रहे हैं। कभी मुफ्त सिम के चक्कर में टेली मार्केटिंग वालों के शिकार बनते हैं, तो कभी मल्टीसिटी अस्पताल में पहुंच फालतू टेस्ट कराकर डॉक्टर के जाल में फंसते हैं। बीमा की सलाह देने पर आप जिस पड़ोसी को अपना शुभचिंतक समझते हैं, वह किसी बीमा कंपनी का एजेंट निकलता है। आखिर हम कब तक खुद में ही बुराई ढूंढते फिरेंगे!