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विस्तार
पाकिस्तान के नए सैन्य प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर द्वारा एक दिसंबर को निवर्तमान सैन्य प्रमुख जनरल कमर बाजवा से कार्यभार ग्रहण करने के बाद भी इमरान खान और उनकी पूर्व संरक्षक-पाकिस्तानी सेना, के बीच टकराव जारी रहेगा। जनरल मुनीर अपने दो पूर्ववर्तियों जनरल बाजवा और जनरल राहील शरीफ की तरह एक पैदल सैनिक हैं। वह आईएसआई के पूर्व महानिदेशक भी हैं, जैसा कि उनके ये दोनों पूर्ववर्ती नहीं थे, जबकि जनरल कयानी थे।
इसका मतलब है कि वह बाजवा के काफी करीब हैं और पाकिस्तान के 'डीप स्टेट' (समानांतर सत्ता) की खुफिया जानकारियों से भी लैस रहे हैं। पाकिस्तान में सत्ता की कमान परोक्ष रूप से सैन्य प्रमुख के हाथों में होती है, लिहाजा नए सैन्य प्रमुख की नियुक्ति को लेकर उत्सकुता रहती है, क्योंकि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति और पड़ोसी देशों (आमतौर पर भारत तथा पाकिस्तान) और वैश्विक (विशेष रूप से चीन व अमेरिका) के साथ भू-राजनीतिक रणनीति उस पर निर्भर करती है।
जनरल आसिम मुनीर निश्चित तौर पर भारत के प्रति मित्रवत नहीं होंगे। जो लोग पाकिस्तान को जानते हैं, वे समझ सकते हैं, क्योंकि यही इतिहास है। पाकिस्तान की नागरिक सरकार और सेना के बीच के विभाजन का इतिहास पाकिस्तान के बारे में हमारे लिए सीमित विकल्प पेश करता है। जनरल बाजवा ने सम्मानजनक तरीके से सेवानिवृत्त होने का फैसला लिया है, संभवतः यह उनके सामने सबसे अच्छा विकल्प भी था, क्योंकि उन्हें एक और सेवावृद्धि पाकिस्तान के अन्य जनरलों को नाराज कर देती, जो कि समय पर नए प्रमुख की प्रतीक्षा कर रहे थे, ताकि मनमाने तरीके से अर्जित किए जाने वाले धन में हिस्सेदारी के लिए वे भी एक सीढ़ी और आगे बढ़ें।
आयशा सिद्धीका ने अपनी किताब मिलिट्री इंक, इनसाइड पाकिस्तान्स मिलिट्री इकनॉमी, में इसके बारे में विस्तार से लिखा है। वह इसे विभिन्न साधनों से धन कमाने का सैन्य कारोबार कहती हैं। वह इसे 'मिलबस' कहती हैं। उदाहरण के लिए, जनरल बाजवा ने अरबों डॉलर अर्जित किए और वह चाहें तो दुबई या पश्चिम में मजे से अरबपति की जिंदगी जी सकते हैं, बशर्ते कि उनके उत्तराधिकारी उन्हें पाकिस्तान के भ्रष्टाचार विरोधी नियामकों से क्लीन चिट दिलवा दें।
यह वही समूह है, जिसने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में विदेशों में मिले तोहफों को अपने घर ले जाने पर इमरान खान की ओर उंगली उठाई थी। बाजवा के अधीन पाक सेना ने पहले नवाज शरीफ और उसके बाद इमरान खान को बर्खास्त करवाया, लेकिन दूसरी ओर उसने दिवालिया हो चुके पाकिस्तान के बजट और यहां तक कि चीन से वित्तपोषित सीपीईसी परियोजना से बड़ी रकम हड़पने वाले अपने जनरलों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
दूसरा विकल्प, जिसे हम पाकिस्तान के मामले में कभी खारिज नहीं कर सकते, वह यह कि यदि पाकिस्तान की सड़कों पर अराजकता जारी रहती है, तो सैन्य तख्तापलट (संभवतः जनरल मुनीर द्वारा) हो सकता है। यह न भूलें कि इमरान ने आईएसआई के महानिदेशक पद से हटाकर अपनी पसंद के लेफ्टिनेंट जनरल फैज हामिद को बिठाया था। ऐसी तल्खी आसानी से खत्म नहीं होती हैं, खासकर तब, जब इमरान खान के समर्थक अपने लोकतंत्र समर्थक लांग मार्च और प्रदर्शनों को आक्रामक कर नए स्तर पर ले जाने को आमादा हों।
इसने पाकिस्तान में लोकतंत्र के नाम पर किए जा रहे ढोंग के खिलाफ जनमत तथा नागरिक समाज में धीमे-धीमे बढ़ते विरोध को दिखाया है। यह जनरल जिया के बाद के दौर की विरासत है, जब उनके उत्तराधिकारी जनरल मिर्जा असलम बेग ने सिर्फ नाम के लिए नागरिक सरकार के एक निर्वाचित प्रमुख को चुना और सारे अहम फैसले सेना के हाथ में थे, यहां तक कि प्रधानमंत्री के पास सैन्य प्रमुख की नियुक्ति का सिर्फ रस्मी अधिकार रह गया। कमान संभालते ही सारे नियंत्रण सीओएएस (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ) के हाथों में जाते हैं।
इससे, जैसा कि हुसैन हक्कानी ने अपनी किताब पाकिस्तान ः बिटवीन मास्क एंड मिलिट्री में लिखा है, पश्चिमी दुनिया सार्वजनिक रूप से नागरिक व्यवस्था और निजी तौर पर जनरलों के साथ सहजता महसूस करने लगी। हैरत नहीं कि अमेरिका के शीर्ष अधिकारियों ने अपने प्रवास के दौरान नेताओं के साथ औपचारिक मुलाकातें तो कीं, लेकिन ज्यादा वक्त जनरलों के साथ गुजारा, जिन्होंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनके परिमाणु हथियार आतंकी गुट से दूर सुरक्षित हैं।
जनरलों के पास अंतिम और सबसे असंभावित विकल्प यह है कि वे सेना को वापस बैरक में ले जाएं। सैद्धांतिक रूप से यह संभव है, जैसा कि तुर्किये में है, जहां लोकतंत्र के भीतर प्रभावशाली सेना का इतिहास है। लेकिन पाकिस्तान के मामले में सेना दो कारणों से राजनीति में है। पहला, अधिकांश पाकिस्तानी उसे 'जिहादियों', या भारत, यहां तक कि अमेरिका से बचाने वाले पाकिस्तान के उद्धारक के तौर पर सम्मान देते हैं। जैसा कि हमने पाकिस्तान के निर्माण के बाद से देखा है, उनके राजनेता वैध रूप से पाकिस्तान पर शासन करने या लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रहे हैं।
इसका एक प्रमुख कारण यह है कि सेना उपलब्ध धन का 50 फीसदी, यहां तक कि 70 फीसदी (जैसा कि हक्कानी ने एक बार एक टीवी शो में मुझसे कहा था) तक हड़प लेती है। सेना के सार्वजनिक जीवन में बने रहने का दूसरा कारण यह है कि उन्होंने जिहादी गुटों, परमाणु हथियारों और उनके हथियारों के सौदों से लेकर तमाम इमारतों का निर्माण किया, जिन्हें वे नागरिकों को नहीं सौंपेंगे। कहा जाता है कि बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ, दोनों को निर्वाचित होने के बाद आगाह किया गया था कि वे 'नो गो एरिया' में न जाएं, यानी सेना के मामले में दखल न दें। पाकिस्तानी सेना का एक लंबा इतिहास रहा है कि उन्होंने अपने आश्रितों का इस्तेमाल एक मिश्रित शासन स्थापित करने के लिए किया और फिर जब उन्होंने उनके नियंत्रण से बाहर होने की कोशिश की तो उन्हें हटा दिया गया।
साफ है कि नए सैन्य प्रमुख को यह सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे कि एक संस्था के रूप में सेना की विश्वसनीयता को ऐसा नुकसान न हो, जिसकी भरपाई न हो सके। इमरान खान का सीधा आरोप सेना के वरिष्ठ नेतृत्व को आत्मनिरीक्षण करने के लिए मजबूर करेगा कि कैसे इस संवेदनशील मोड़ पर उसके खिलाफ चल रहे अभियान का मुकाबला किया जाए, क्योंकि नए सैन्य प्रमुख कमान संभालने जा रहे हैं। सेना जोर देकर कहती है कि पाकिस्तान में चल रहे राजनीतिक नाटक पर उसकी तटस्थ स्थिति है, हालांकि पाकिस्तान में एक 'किंगमेकर' के रूप में उसकी भूमिका सर्वविदित है।