भारतीय क्षेत्र में चीन की ताजा घुसपैठ ने दिल्ली में राजनीतिक नेतृत्व के सोए पड़े रहने की ‘परंपरा’ को एक बार फिर उजागर किया है। चीन की यह घुसपैठ जम्मू-कश्मीर के सबसे उत्तरी इलाके में लद्दाख के देप्सांग मैदानों में हुई है, जो सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है।
चूंकि हमारे नेताओं को सैन्य और सुरक्षा के मामले में देश की क्षमता के बारे में कोई समझ नहीं है, इसलिए वे उम्मीद कर रहे हैं कि एक तूफान की भांति यह विपत्ति भी स्वयं ही टल जाएगी। लेकिन चीन का इरादा कुछ और है।
चीन के नए राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल में भारत के साथ मित्रवत संबंधों को बरकरार रखने की बात की थी। लेकिन चीनी सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए) अपने नए नेता को यह संकेत देना चाह रही है कि भारत के मामले में नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए।
भारत और चीन के बीच 50 अरब डॉलर से ज्यादा के द्विपक्षीय व्यापार के मद्देनजर चीन के नए प्रधानमंत्री ली केकियांग की भारत यात्रा अगले महीने प्रस्तावित है। इसका मकसद साफ है कि दोनों देश आपसी व्यापारिक संबंधों को नया आयाम देना चाहते हैं।
हमारी सरकार बेशक यह कहे कि 1996 और 2003 में भारतीय प्रधानमंत्रियों की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के रिश्ते सामान्य हो गए हैं। लेकिन सीमा विवाद दोनों देशों के बीच कटुता का कारण लगातार बना हुआ है। सच्चाई यह है कि 2006 के बाद से चीन खुले तौर पर कहता आया है कि वह अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में भारत की उपस्थिति को कानूनी तौर पर मान्यता नहीं देता।
चीन इन इलाकों की यात्रा के लिए भारतीय सैन्य और सिविल अधिकारियों को वीजा तक देने को तैयार नहीं है। उसका तो यह भी कहना है कि भारत-चीन सीमा की वास्तविक लंबाई 2,000 किलोमीटर है, न कि 4,000 किलोमीटर, जैसा कि भारत कहता रहा है।
दरअसल, भारत ने पिछले तीन वर्षों में भारत-चीन सीमा पर स्थित वायुसेना के पुराने स्टेशनों को फिर से चालू किया है। इन्हीं में से एक दौलत बेग ओल्डी स्टेशन है। चीन की ताजा घुसपैठ इसी स्टेशन के नजदीक हुई है। भारत की इन सैन्य गतिविधियों को चीन संदेह की नजर से देख रहा है।
गौरतलब है कि भारत ने 2012 में असम और अरुणाचल प्रदेश में 50 हजार से एक लाख सैनिकों की टुकड़ियां तैनात करने का फैसला किया था। चीन की ताजा घुसपैठ भारत की बढ़ती हुई इसी सक्रियता का जवाब है।
यह संयोग ही है कि लद्दाख में चीनी सेना की तैनाती ठीक उस समय हुई, जब चीन ने रक्षा क्षेत्र पर अपना नया श्वेतपत्र जारी किया है। इसमें चीन की थल, वायु और नौसेना के लिए सामरिक उपायों को बेहद जरूरी बताया गया है।
वह तो दक्षिणी चीन सागर में मित्र समझे जाने वाले पड़ोसी देशों को भी अपनी ताकत दिखाने से बाज नहीं आया है। इसके अलावा अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता और तिब्बत को इसका समर्थन भी चीन को रास नहीं आ रहा।
ऐसे दो उदाहरण हैं, जब भारत के सैन्य कमांडरों ने चीन को कड़ा संदेश देने की पहल की। 1967 में कमांडर सगत सिंह ने मशीनगनों और कंटीले तारों की मदद से चीनी सेना की टुकड़ी को नाथूला दर्रे से आगे बढ़ने ही नहीं दिया था। वहीं 1986 में जब चीनी सेना भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर नामका चू नदी के पास सोमड्ररंग चू तक पहुंच गईं, तब यह जनरल नरहरि का साहस ही था, जिसने चीनी सेना को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया।
ऐसी ही एक घटना 2010 में हुई, जब जासूसी के इरादे से भारतीय सीमा में घुसे एक चीनी मानव रहित विमान (यूएवी) को भारतीय सेना ने रॉकेट से उड़ा दिया। भारतीय सेना की इन आक्रामक गतिविधियों की वजह से कुछ समय के लिए ही सही, चीन का मनोबल जरूर गिरा।
ये घटनाएं इस बात का सुबूत हैं कि सैन्य कमांडरों द्वारा उठाए गए कठोर कदमों से चीन को पीछे धकेला जा सकता है। और इसके लिए नई दिल्ली से राजनीतिक दिशा-निर्देशों की भी जरूरत नहीं है। इसकी वजह है कि हमारे राजनेताओं के पास देश की सैन्य क्षमता का उपयोग करने की हिम्मत और समझ, दोनों ही नहीं है।
यह समझना भी मुश्किल है कि चीन पर कूटनीतिक दबाव कायम करने के लिए भारत चीन के आसपास के दूसरे देशों के साथ संबंध मजबूत करने की कोशिश क्यों नहीं करता। यह बिल्कुल साफ है कि भारत की तटीय गतिविधियों पर नजर रखने के लिए चीन बंगाल की खाड़ी में स्थित बर्मा के इलाके का उपयोग करता है।
पाकिस्तान (बलूचिस्तान) में ग्वादर बंदरगाह के निर्माण में भी चीन ने पूरी मदद की है। इसके अलावा श्रीलंका के पश्चिमी और पूर्वी तट को जोड़ने वाले नए राजमार्ग के निर्माण में मदद देकर चीन वहां भी अपना प्रभाव जमा रहा है। हालिया अनुभव संकेत देते हैं कि जल्द ही मालदीव भी चीन को भारत पर वरीयता देता दिखे, तो अचरज नहीं होना चाहिए।
भारतीय सेना कई दशकों से दक्षिणी ब्लॉक में चीन के मंसूबों की जानकारी अपने नेताओं को देती रही है। लेकिन चीन को अपना सबसे बड़ा दुश्मन घोषित करने की हिम्मत केवल जॉर्ज फर्नांडिज (पूर्व रक्षा मंत्री) ही दिखा पाए। इससे चीन का खफा होना तो जाहिर था।
लेकिन हमारी अदूरदर्शी मीडिया भी इससे कम परेशान नहीं हुआ, क्योंकि उसे तो भारत-पाकिस्तान से परे कोई विवाद दिखता ही नहीं। सच तो यह है कि जब तक भारत दलाई लामा की मेहमाननवाजी करना नहीं छोड़ता, तब तक भारत और चीन के रिश्तों में स्थायित्व की उम्मीद करना बेमानी होगा।
भारतीय क्षेत्र में चीन की ताजा घुसपैठ ने दिल्ली में राजनीतिक नेतृत्व के सोए पड़े रहने की ‘परंपरा’ को एक बार फिर उजागर किया है। चीन की यह घुसपैठ जम्मू-कश्मीर के सबसे उत्तरी इलाके में लद्दाख के देप्सांग मैदानों में हुई है, जो सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है।
चूंकि हमारे नेताओं को सैन्य और सुरक्षा के मामले में देश की क्षमता के बारे में कोई समझ नहीं है, इसलिए वे उम्मीद कर रहे हैं कि एक तूफान की भांति यह विपत्ति भी स्वयं ही टल जाएगी। लेकिन चीन का इरादा कुछ और है।
चीन के नए राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल में भारत के साथ मित्रवत संबंधों को बरकरार रखने की बात की थी। लेकिन चीनी सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए) अपने नए नेता को यह संकेत देना चाह रही है कि भारत के मामले में नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए।
भारत और चीन के बीच 50 अरब डॉलर से ज्यादा के द्विपक्षीय व्यापार के मद्देनजर चीन के नए प्रधानमंत्री ली केकियांग की भारत यात्रा अगले महीने प्रस्तावित है। इसका मकसद साफ है कि दोनों देश आपसी व्यापारिक संबंधों को नया आयाम देना चाहते हैं।
हमारी सरकार बेशक यह कहे कि 1996 और 2003 में भारतीय प्रधानमंत्रियों की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के रिश्ते सामान्य हो गए हैं। लेकिन सीमा विवाद दोनों देशों के बीच कटुता का कारण लगातार बना हुआ है। सच्चाई यह है कि 2006 के बाद से चीन खुले तौर पर कहता आया है कि वह अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में भारत की उपस्थिति को कानूनी तौर पर मान्यता नहीं देता।
चीन इन इलाकों की यात्रा के लिए भारतीय सैन्य और सिविल अधिकारियों को वीजा तक देने को तैयार नहीं है। उसका तो यह भी कहना है कि भारत-चीन सीमा की वास्तविक लंबाई 2,000 किलोमीटर है, न कि 4,000 किलोमीटर, जैसा कि भारत कहता रहा है।
दरअसल, भारत ने पिछले तीन वर्षों में भारत-चीन सीमा पर स्थित वायुसेना के पुराने स्टेशनों को फिर से चालू किया है। इन्हीं में से एक दौलत बेग ओल्डी स्टेशन है। चीन की ताजा घुसपैठ इसी स्टेशन के नजदीक हुई है। भारत की इन सैन्य गतिविधियों को चीन संदेह की नजर से देख रहा है।
गौरतलब है कि भारत ने 2012 में असम और अरुणाचल प्रदेश में 50 हजार से एक लाख सैनिकों की टुकड़ियां तैनात करने का फैसला किया था। चीन की ताजा घुसपैठ भारत की बढ़ती हुई इसी सक्रियता का जवाब है।
यह संयोग ही है कि लद्दाख में चीनी सेना की तैनाती ठीक उस समय हुई, जब चीन ने रक्षा क्षेत्र पर अपना नया श्वेतपत्र जारी किया है। इसमें चीन की थल, वायु और नौसेना के लिए सामरिक उपायों को बेहद जरूरी बताया गया है।
वह तो दक्षिणी चीन सागर में मित्र समझे जाने वाले पड़ोसी देशों को भी अपनी ताकत दिखाने से बाज नहीं आया है। इसके अलावा अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता और तिब्बत को इसका समर्थन भी चीन को रास नहीं आ रहा।
ऐसे दो उदाहरण हैं, जब भारत के सैन्य कमांडरों ने चीन को कड़ा संदेश देने की पहल की। 1967 में कमांडर सगत सिंह ने मशीनगनों और कंटीले तारों की मदद से चीनी सेना की टुकड़ी को नाथूला दर्रे से आगे बढ़ने ही नहीं दिया था। वहीं 1986 में जब चीनी सेना भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर नामका चू नदी के पास सोमड्ररंग चू तक पहुंच गईं, तब यह जनरल नरहरि का साहस ही था, जिसने चीनी सेना को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया।
ऐसी ही एक घटना 2010 में हुई, जब जासूसी के इरादे से भारतीय सीमा में घुसे एक चीनी मानव रहित विमान (यूएवी) को भारतीय सेना ने रॉकेट से उड़ा दिया। भारतीय सेना की इन आक्रामक गतिविधियों की वजह से कुछ समय के लिए ही सही, चीन का मनोबल जरूर गिरा।
ये घटनाएं इस बात का सुबूत हैं कि सैन्य कमांडरों द्वारा उठाए गए कठोर कदमों से चीन को पीछे धकेला जा सकता है। और इसके लिए नई दिल्ली से राजनीतिक दिशा-निर्देशों की भी जरूरत नहीं है। इसकी वजह है कि हमारे राजनेताओं के पास देश की सैन्य क्षमता का उपयोग करने की हिम्मत और समझ, दोनों ही नहीं है।
यह समझना भी मुश्किल है कि चीन पर कूटनीतिक दबाव कायम करने के लिए भारत चीन के आसपास के दूसरे देशों के साथ संबंध मजबूत करने की कोशिश क्यों नहीं करता। यह बिल्कुल साफ है कि भारत की तटीय गतिविधियों पर नजर रखने के लिए चीन बंगाल की खाड़ी में स्थित बर्मा के इलाके का उपयोग करता है।
पाकिस्तान (बलूचिस्तान) में ग्वादर बंदरगाह के निर्माण में भी चीन ने पूरी मदद की है। इसके अलावा श्रीलंका के पश्चिमी और पूर्वी तट को जोड़ने वाले नए राजमार्ग के निर्माण में मदद देकर चीन वहां भी अपना प्रभाव जमा रहा है। हालिया अनुभव संकेत देते हैं कि जल्द ही मालदीव भी चीन को भारत पर वरीयता देता दिखे, तो अचरज नहीं होना चाहिए।
भारतीय सेना कई दशकों से दक्षिणी ब्लॉक में चीन के मंसूबों की जानकारी अपने नेताओं को देती रही है। लेकिन चीन को अपना सबसे बड़ा दुश्मन घोषित करने की हिम्मत केवल जॉर्ज फर्नांडिज (पूर्व रक्षा मंत्री) ही दिखा पाए। इससे चीन का खफा होना तो जाहिर था।
लेकिन हमारी अदूरदर्शी मीडिया भी इससे कम परेशान नहीं हुआ, क्योंकि उसे तो भारत-पाकिस्तान से परे कोई विवाद दिखता ही नहीं। सच तो यह है कि जब तक भारत दलाई लामा की मेहमाननवाजी करना नहीं छोड़ता, तब तक भारत और चीन के रिश्तों में स्थायित्व की उम्मीद करना बेमानी होगा।