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सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद यह बहस तेज हो गई है कि सियासी दलों को चुनाव घोषणापत्रों में लोकलुभावन वायदे करने की कितनी छूट हो। क्या कंप्यूटर, लैपटॉप, रेडियो, टीवी, फ्रिज बांटने और लगान, सिंचाई और कर्जमाफ करने जैसे फैसले मतदाताओं को लालच देकर प्रभावित करने वाला कार्य नहीं है? चुनाव के पहले चुनाव आयोग द्वारा अब तक जो आचार संहिताएं बनाई गई हैं, उनमें सरकार और उसके मंत्रियों को नए निर्णय लेने और ऐसे कार्य करने को अनुचित माना गया है, जिन सरकारी सुविधाओं को चुनाव के लिए दुरुपयोग माना गया है।
वे सरकारी योजनाओं का शुभारंभ और उद्घाटन भी नहीं कर सकते। वे जिलों के सर्किट हाउस और निरीक्षण गृहों का चुनाव कार्य के लिए प्रयोग तथा सरकारी वाहनों को लेकर चुनाव कार्य के लिए नहीं जा सकते। लेकिन चुनाव से पहले लगभग हर दल अपना जो घोषणापत्र जारी करता है, उसका उद्देश्य मतदाताओं को यह बताना है कि यदि वह सत्ता में आएंगे, तो उनकी नीतियां, दिशा और कार्यक्रम क्या होगा। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए राजनेता शराब, साड़ी, जेवर तथा कीमती वस्तुओं का वितरण करते हैं। यह सब जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों के विपरीत आचरण है, लेकिन ऐसा होता है।
चुनावों में सीमा से अधिक खर्च इसीलिए संभव है, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में पार्टी एवं मित्रों द्वारा किया गया व्यय उम्मीदवार के खाते में नहीं जोड़ा जाता। यह छूट काले धन का मनमाना व्यय करने में ही सहायक होती है। राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को जो चंदा मिलता है, उसमें भी अधिकांश काला धन होता है। इस प्रकार चुनाव की कुल खर्च सीमा का निर्धारण मजाक और दिखावा बन जाता है। चूंकि यह कानून संसद द्वारा बनाया गया है, जो राजनीतिक दलों द्वारा ही गठित होती है, इसलिए इसमें सुधार की जरूरत नहीं समझी गई।
सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग और कैग वहीं तक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था करने में सक्षम हैं, जो उनके अधिकारों में है। इसलिए राजनीतिक दल कहते हैं कि चुनाव घोषणा पत्र एक अभिलेख है, वास्तविक निर्णायक तो मतदाता ही हैं, इसलिए उन्हें प्रभावित करने वाला काम करने से राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को कैसे रोका जा सकता है। जैसे जाति, धर्म, संप्रदाय आदि चुनाव के लिए वर्जित तत्व हैं, लेकिन इनका खुला इस्तेमाल तो उम्मीदवारों के निर्धारण से पूर्व ही होने लगता है। कहां किस प्रकार का उम्मीदवार जिताऊ होगा, इसकी खोज करते समय इन समीकरणों पर भी विचार होता है कि उनसे सामना कैसे होगा, वे नए तत्व और उपाय क्या होंगे। तर्क यह दिया जाता है कि जब जाति, धर्म, संप्रदाय और धन वास्तविकता हैं, तो उनसे कैसे बचा जा सकता है।
अब सवाल उठता है कि सियासी दलों को अपने कार्यक्रमों और भावी नीतियों के निर्धारण में कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए। जमींदारी उन्मूलन कानून पर विचार के समय यह तर्क आया कि संविधान के मूल अधिकारों में संपत्ति का अधिकार भी है, इसलिए यह संपत्ति किस रूप में हो, इसे सरकार कैसे नियंत्रित करेगी? ऐसे में मूल अधिकारों के अध्याय में परिवर्तन कर संपत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू में यह व्यवस्था दी थी कि संसद को संविधान के मूल अधिकारों में परिवर्तन का अधिकार नहीं होगा, लेकिन बाद में यह बदला गया। इस परिवर्तनशील युग में अधिकारों पर नियमन और नियंत्रण का अधिकार देना ही होगा और यह संस्था अन्य कोई नहीं, संसद ही होगी।
लिहाजा समाधान की दिशा में दो ही कार्य हो सकते हैं। एक तो जनप्रतिनिधि का निर्वाचन इस तरह हो कि जिसे आधे से अधिक मत मिला हो, उसे ही स्वीकार किया जाए। इससे मतों के बंटवारे का लाभ उठाकर जो लोग सत्ता तक पहुंचते हैं, उन्हें रोका जा सकेगा। दूसरे, एक नई संविधान सभा गठित करनी चाहिए, जो नए संविधान की रचना आज के युग की आवश्यकताओं के अनुसार करे। लेकिन कठिनाई यही है कि जो लोग वर्तमान व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं, वे परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं। ऐसे में चुनावी वायदों, घोषणाओं एवं लोकलुभावन तरीकों पर वास्तविक रोक लगना असंभव ही लगता है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद यह बहस तेज हो गई है कि सियासी दलों को चुनाव घोषणापत्रों में लोकलुभावन वायदे करने की कितनी छूट हो। क्या कंप्यूटर, लैपटॉप, रेडियो, टीवी, फ्रिज बांटने और लगान, सिंचाई और कर्जमाफ करने जैसे फैसले मतदाताओं को लालच देकर प्रभावित करने वाला कार्य नहीं है? चुनाव के पहले चुनाव आयोग द्वारा अब तक जो आचार संहिताएं बनाई गई हैं, उनमें सरकार और उसके मंत्रियों को नए निर्णय लेने और ऐसे कार्य करने को अनुचित माना गया है, जिन सरकारी सुविधाओं को चुनाव के लिए दुरुपयोग माना गया है।
वे सरकारी योजनाओं का शुभारंभ और उद्घाटन भी नहीं कर सकते। वे जिलों के सर्किट हाउस और निरीक्षण गृहों का चुनाव कार्य के लिए प्रयोग तथा सरकारी वाहनों को लेकर चुनाव कार्य के लिए नहीं जा सकते। लेकिन चुनाव से पहले लगभग हर दल अपना जो घोषणापत्र जारी करता है, उसका उद्देश्य मतदाताओं को यह बताना है कि यदि वह सत्ता में आएंगे, तो उनकी नीतियां, दिशा और कार्यक्रम क्या होगा। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए राजनेता शराब, साड़ी, जेवर तथा कीमती वस्तुओं का वितरण करते हैं। यह सब जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों के विपरीत आचरण है, लेकिन ऐसा होता है।
चुनावों में सीमा से अधिक खर्च इसीलिए संभव है, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में पार्टी एवं मित्रों द्वारा किया गया व्यय उम्मीदवार के खाते में नहीं जोड़ा जाता। यह छूट काले धन का मनमाना व्यय करने में ही सहायक होती है। राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को जो चंदा मिलता है, उसमें भी अधिकांश काला धन होता है। इस प्रकार चुनाव की कुल खर्च सीमा का निर्धारण मजाक और दिखावा बन जाता है। चूंकि यह कानून संसद द्वारा बनाया गया है, जो राजनीतिक दलों द्वारा ही गठित होती है, इसलिए इसमें सुधार की जरूरत नहीं समझी गई।
सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग और कैग वहीं तक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था करने में सक्षम हैं, जो उनके अधिकारों में है। इसलिए राजनीतिक दल कहते हैं कि चुनाव घोषणा पत्र एक अभिलेख है, वास्तविक निर्णायक तो मतदाता ही हैं, इसलिए उन्हें प्रभावित करने वाला काम करने से राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को कैसे रोका जा सकता है। जैसे जाति, धर्म, संप्रदाय आदि चुनाव के लिए वर्जित तत्व हैं, लेकिन इनका खुला इस्तेमाल तो उम्मीदवारों के निर्धारण से पूर्व ही होने लगता है। कहां किस प्रकार का उम्मीदवार जिताऊ होगा, इसकी खोज करते समय इन समीकरणों पर भी विचार होता है कि उनसे सामना कैसे होगा, वे नए तत्व और उपाय क्या होंगे। तर्क यह दिया जाता है कि जब जाति, धर्म, संप्रदाय और धन वास्तविकता हैं, तो उनसे कैसे बचा जा सकता है।
अब सवाल उठता है कि सियासी दलों को अपने कार्यक्रमों और भावी नीतियों के निर्धारण में कितनी स्वतंत्रता देनी चाहिए। जमींदारी उन्मूलन कानून पर विचार के समय यह तर्क आया कि संविधान के मूल अधिकारों में संपत्ति का अधिकार भी है, इसलिए यह संपत्ति किस रूप में हो, इसे सरकार कैसे नियंत्रित करेगी? ऐसे में मूल अधिकारों के अध्याय में परिवर्तन कर संपत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू में यह व्यवस्था दी थी कि संसद को संविधान के मूल अधिकारों में परिवर्तन का अधिकार नहीं होगा, लेकिन बाद में यह बदला गया। इस परिवर्तनशील युग में अधिकारों पर नियमन और नियंत्रण का अधिकार देना ही होगा और यह संस्था अन्य कोई नहीं, संसद ही होगी।
लिहाजा समाधान की दिशा में दो ही कार्य हो सकते हैं। एक तो जनप्रतिनिधि का निर्वाचन इस तरह हो कि जिसे आधे से अधिक मत मिला हो, उसे ही स्वीकार किया जाए। इससे मतों के बंटवारे का लाभ उठाकर जो लोग सत्ता तक पहुंचते हैं, उन्हें रोका जा सकेगा। दूसरे, एक नई संविधान सभा गठित करनी चाहिए, जो नए संविधान की रचना आज के युग की आवश्यकताओं के अनुसार करे। लेकिन कठिनाई यही है कि जो लोग वर्तमान व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं, वे परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं। ऐसे में चुनावी वायदों, घोषणाओं एवं लोकलुभावन तरीकों पर वास्तविक रोक लगना असंभव ही लगता है।