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शायद ही कभी ऐसा होता होगा कि किसी आपदा के बाद प्रभाव का आकलन करने वाले दल उन क्षेत्रों में जाते होंगे, जहां लोगों का आवास नहीं है और केवल बर्फ, जंगल, झील हैं। इसका कारण है कि हम गैर आबादी वाले क्षेत्र को आपदा प्रभावित नहीं मानते। नदियों, वनों, हिमाच्छादित चोटियों पर संकट का क्या प्रभाव पड़ा और उससे उसे कैसे उबारा जाएगा-इसे जानने के प्रयास शायद ही होते होंगे।
भूकंपों के मामले में जब यह खबर मिलती है कि जान-माल की कोई क्षति नहीं हुई, तो हम काफी आश्वस्त महसूस करते हैं। जान-माल की क्षति में जानवरों का विवरण होता ही नहीं है। इस सोच का खामियाजा हिमालय भी भुगतता है। हिमालय जैसी अधिकांश पर्वत मालाएं वैश्विक जल मीनारें हैं, जैव-विविधताओं का भंडार हैं एवं क्षेत्रीय व वैश्विक जलवायु नियामक भी हैं। प्राकृतिक, मानवकृत व मानव गतिविधि प्रेरित आपदाओं से ये भी सहज प्रभावित होते हैं।
चूंकि यहां मानव बस्तियों की भीड़ व आवाजाही नहीं होती है, इसलिए जन-धन हानि की खबरें नहीं आतीं। जैसे-सात मार्च, 2023 के पहले के लगभग दो माह में उत्तराखंड में 13 ऐसे भूकंप आए, जिन्हंे लोगों ने महसूस भी किया, पर खबरों में यही बताया गया कि इनसे जान-माल का कोई नुकसान नहीं हुआ। उत्तराखंड में वर्ष 2015 से ही हर महीने औसतन हल्के भूकंप के झटके आ रहे हैं। एक जनवरी, 2015 से मार्च, 2018 के बीच ही करीब 59 हल्के भूकंप के झटके उत्तराखंड में आए थे।
हिमालय का अधिकांश घने वनों और ग्लेशियरों का क्षेत्र है। ये ही निर्जन क्षेत्र पहाड़ों में भू-आकृतियों, संसाधनों, जैव-विविधताओं की विशिष्टताओं, पहाड़ों में मौसम को बनाने व बदलने के साथ ही हिमालय को तीसरा ध्रुव एवं एशिया का जलमीनार बनाते हैं। हिमालय जैसी पर्वत मालाएं जीव-जंतुओं व वनस्पतियों के अधिवास होते हैं। इन पर आई आपदाओं से अधिवासों की स्थिति और उनके पारिस्थितिकीय संतुलन पर असर पड़ता है।
हिमालयी क्षेत्र में जान-माल का नुकसान न होने पर भी भूकंप भूस्खलनों को प्रेरित करते हैं, जिसके मलबे से नदी का प्रवाह बंद हो सकता है, कृत्रिम झीलों का निर्माण शुरू हो सकता है और मटमैले पानी के जलचरों की जैविक क्षमताओं पर असर पड़ता है। भूकंपों से वनस्पति समुदाय भी स्थानांतरित हो सकते हैं। जंगली जानवर अपने घोंसलों व आवासों को छोड़ देते हैं और पालतू पशु भी बेचैन हो जाते हैं। भूकंपों से वन्य प्राणी सीधे मरते व चोटिल होते हैं, तो हम यह कहते हुए कितना सही हैं कि अमुक छोटे या बड़े भूकंप से जान-माल की कोई हानि नहीं हुई है।
लगातार आते हल्के भूकंपों से क्षेत्रीय भू-आकृतियों में आए परिवर्तन भूमिगत या धरातलीय जलप्रणालियों को भी प्रभावित कर देते हैं। भूमिगत भूखंडों के बीच की सक्रिय खाइयां और चौड़ी हो सकती हैं। हिमालयी निर्जन क्षेत्रों में प्राकृतिक जलाशयों व जलस्रोतों की कमी नहीं है, जिनका उपयोग नागरीय जल आपूर्ति के लिए भी किया जाता है। निर्जन क्षेत्रों में हिमनदों से बनते जलाशयों की भी कमी नहीं है। इन झीलों को भी भूकंप से नुकसान होता है। भूकंपों के कारण तरंगें प्राकृतिक निर्जन क्षेत्रों के जलाशयों में भी उठ सकती हैं। समुद्र तलहटियों के नीचे के भूकंप सुनामी तो पैदा करते ही हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूकंप जैसी आपदाओं में गैर आबादी वाले क्षेत्रों की अनदेखी कितनी महंगी पड़ सकती है।
22 फरवरी, 2021 को संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरणीय सभा को संबोधित करते हुए महासचिव अंतोनी गुतरेस ने कहा था कि हमें भूकंपों के बाद निर्जन क्षेत्रों की भी पारिस्थितिकीय हानियों को कम से कम उपग्रहीय माध्यमों से जानने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा न हुआ, तो समझिए कि अगली आपदा आपका दरवाजा खटखटाने वाली है। अतः छोटे-बड़े भूकंपों से प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले असर का लेखा-जोखा रखने की प्रणाली भी उत्तराखंड जैसे राज्य में विकसित करने का प्रयास होना चाहिए।