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विस्तार
करीब पांच करोड़ वर्ष पहले जब यूरेशियन टैक्टोनिक प्लेट से भारतीय प्लेट आकर टकराई, तो हिमालय का उभार प्रारंभ हुआ। विश्व से डायनासोरों का राज खत्म हो रहा था। उसके बाद करोड़ों वर्षों के जैविक विकास एवं भौगोलिक परिवर्तनों के फलस्वरूप मानव सभ्यता का उद्भव हुआ और पामीर के पठार, हिमालय व हिंदूकुश पर्वत शृंखलाएं बनती चली गईं। भारतीय प्लेट आज भी पांच सेमी प्रति वर्ष की दर से यूरेशियन प्लेट को उत्तर की ओर धकेल रही है, फलस्वरूप हिमालय लगातार ऊंचा होता जा रहा है। यह चलता रहेगा, इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। अतः कह सकते हैं कि हिमालय विश्व की सबसे अस्थिर पर्वत शृंखला है। इसी कारण हिमालय क्षेत्र सर्वाधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र बन जाता है। भूगर्भीय दबाव व पर्यावरणीय परिवर्तन स्थिर नहीं होते, लगातार चलते रहते हैं।
सवाल है कि क्या मानव सभ्यतागत विकास, शहरीकरण, विकास संबंधी कार्य-बांध, सड़क व सुरंग निर्माण पर्यावरण के इस हिमालयी संकट के कारण हैं? इसका कोई सीधा उत्तर दिया जाना संभव नहीं है। आप नहीं जानते कि 1991 में उत्तरकाशी में आया 6.6 रिक्टर स्केल का भूकंप, जिसमें बड़े पैमाने पर धन-जन व पर्यावरण की क्षति हुई थी, उसमें कितना हिस्सा टैक्टोनिक प्लेट के तनाव की उर्जा का है और कितना अनियंत्रित नगरीकरण व इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास का। जोशीमठ यदि बिना आबादी का मात्र वनक्षेत्र ही होता, तो क्या यह धंसान, जो जियोलोजिकल कारणों से हो रहा है, न हुआ होता? यह कहना संभव नहीं है। भूगर्भीय परिवर्तन की ऊर्जा बहुत व्यापक है। उस पर मानवीय नियंत्रण असंभव है। हमें पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप अपनी जीवन पद्धति को समायोजित करना चाहिए, उसका अतिक्रमण करके नहीं।
दरअसल जो महत्वपूर्ण है, वह है हमारा आपदा प्रबंधन, जो अत्यंत उच्चकोटि का विश्वस्तरीय होना चाहिए। खतरे का सही आकलन, चेतावनी का प्रेषण, आबादी की आपात निकास व्यवस्थाएं न की गईं, तो जन-धन की क्षति से बचा न जा सकेगा। मैं उत्तरकाशी भूकंप त्रासदी के समय गढ़वाल में नियुक्त था। मैंने देखा कि जो मकान पत्थर व लकड़ी की पुरानी पद्धतियों से बने थे, उनकी क्षति कंकरीट-सरिया से बने मकानों की तुलना में कम थी। पहाड़ों के गांव व मकान हजारों वर्ष के पर्यावरणीय अनुभवों के अनुसार विकसित हुए हंै। बिना पर्वतीय ढलान का सहारा लिए आयतित डिजाइनों पर खड़े कर दिए गए मकान पर्यावरण आपदाओं को झेल नहीं पाते। प्रायः संकट का कारण बनते हैं।
पर्वतों के वनीकरण का ह्रास पारिस्थितिकी संकट का एक बड़ा कारण है। देवभूमि में तीर्थयात्रियों को सुविधाएं देने के नाम पर बड़े पैमाने पर होटलों, गेस्टहाउसों, नागरिक सुविधाओं का विकास हो रहा है। हमने नदियों के किनारों की नजूल जमीनों पर पांच से आठ मंजिला नए मंदिरों का निर्माण देखा है। इन अवैध निर्माणों के नक्शे तो कोई भी प्राधिकरण पास ही नहीं कर सकता, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र को दूषित कर रहे ये निर्माण पर्वतों के सीमित संसाधनों पर भार बने हुए भविष्य की त्रासदियों को आमंत्रण दे रहे हैं। जहां आबादी का दबाव पर्यावरणीय सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा हो, वहां दीर्घकालिक योजनाएं अमल में लाई जा सकती हैं।
वन एवं राजस्व विभाग एक संयुक्त रणनीति पर कार्य कर सकते हैं। जिन गांवों में पेयजल, बिजली और सड़क जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने में समस्या हो रही है, उनकी आबादी को तलहटियों की राजस्व भूमि पर लैंड एक्सचेंज नीति के तहत स्थानांतरित किया जा सकता है। जो गांव पहाड़ पर एक सौ एकड़ का था, उसे यदि मैदान में राजस्व या वन भूमि में ले आया जाए, तो संभवतः 50 एकड़ भूमि ही उनके लिए अतिसुविधाजनक होगी। इस तरह पर्वतीय आबादी के वे बहुत से गांव, जिनके भविष्य में पर्यावरणीय संकट में फंस जाने की आशंका है, सुरक्षित ले आए जा सकेंगे। वन विभाग के स्वाभाविक वनीकरण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप वन क्षेत्र को बढ़ाने के लक्ष्य की भी पूर्ति हो सकेगी। हमारा संकट अस्थिर क्षेत्रों में हुए अनियंत्रित बसाहट को लेकर है। कोई कारण नहीं कि पर्यावरण व प्रकृति, पारिस्थितिकी तंत्र का सम्मान करते हुए हम कोई मध्यमार्ग न निकाल सकें।